‘सेना की कुर्बानियों को भुलाया न जाए’

punjabkesari.in Monday, Dec 07, 2020 - 03:55 AM (IST)

7 दिसम्बर को देश हथियारबंद सेना झंडा दिवस मना रहा है जिसकी शुरूआत महाराजा रणजीत सिंह जी की पोत्री राजकुमारी सोफिया दिलीप सिंह ने प्रथम विश्व युद्ध के समय की। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1914-18 के बीच करीब 9 लाख 50 हजार भारतीय सेना ने विश्व युद्ध में एक अहम भूमिका निभाई। इन योद्धाओं में से 74187 भारतीय शहादत का जाम पी गए जिनमें करीब 13000 अविभाजित पंजाब के सैनिक थे। 67,000 जख्मी/नाकारा हो गए। उनमें से करीब 12,000 पंजाबी थे। इसके अलावा बड़ी गिनती में सैनिकों को विश्व युद्ध के उपरांत फारिग कर दिया गया। 

सोफिया दिलीप सिंह ने स्वैच्छिक नर्स के तौर पर युद्ध के दौरान जख्मियों की मरहम-पट्टी तथा दिन-रात देख-रेख करके विशेष तौर पर भारतीय सैनिकों का दिल जीत लिया। युद्ध के दौरान ब्रिटिश इंडिया सरकार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई जैसा कि बिना किसी पारंपरिक युद्ध को लड़े बिना अपने देश की हो रही है। खैर, इस ओर मैं न जाते हुए बताना चाहता हूं कि एक ओर तो सहयोगी देश जीते हुए युद्ध के बारे में जश्र मनाने में व्यस्त थे पर दूसरी ओर सोफिया ने नाकारा/जख्मी तथा फौज में से निकाले गए सैनिकों के लिए फंड एकत्रित करने की मुहिम 11 नवम्बर को शुरू कर दी। 

उस समय की सरकार ने 11 नवम्बर यादगार दिवस-‘पोपी डे’ के तौर पर हर वर्ष मनाना शुरू किया। उस समय पोपीज नाम का चिन्ह जनता में बांटा जाता था और जनता की ओर से इसके बदले दान दिया जाता था। दान की यह रकम अंग्रेजी पूर्व सैनिकों की संस्था के खाते में जाती थी। वैसे तो संस्था का अपना अधिकार था कि इस फंड का कुछ भाग भारतीय पूर्व सैनिकों के लिए इस्तेमाल में लाया जाए। देश के विभाजन के बाद जुलाई 1948 में भारत सरकार की रक्षा कमेटी ने यह निर्णय किया कि हथियारबंद सेनाओं में सेवा निभा रहे सैनिकों, पूर्व सैनिकों तथा उनके परिवारों की भलाई हेतु दान एकत्रित करने की खातिर विशेष दिन मनाया जाए। इस तरह 28 अक्तूबर 1949 को तत्कालीन रक्षामंत्री की कमेटी की ओर से हथियारबंद सेना झंडा दिवस प्रत्येक वर्ष 7 दिसम्बर को मनाने का फैसला किया गया। 

सर्विस चुनौतियां 
झंडा दिवस सैनिकों के प्रति सद्भावना ताजा करने तथा उन बहादुर सैनिकों की याद का स्मरण करवाता है जिन्होंने शहादत का जाम पी लिया था या फिर नाकारा हो गए थे। जब कभी युद्ध का बिगुल बजता है तो सैनिक अपनी बैरकों तथा अपने परिवारों को छोड़ कर युद्ध वाले मोर्चों की ओर कूच कर जाते हैं, जैसा कि पूर्वी लद्दाख में हुआ। 

देश के जवान जंगलों, पहाड़ों, बर्फीले पर्वतों, पथरीली धरती तथा रेगिस्तान इत्यादि सरहदी क्षेत्रों में जाकर अपनी पलटन तथा देश की खातिर मर-मिटने के लिए तैयार रहता है। इतिहास गवाह है कि वर्ष 1947 से लेकर कारगिल सहित जो भी युद्ध सेना ने लड़े हैं उनमें 19,000 के करीब सैनिकों ने कुर्बानियां दी हैं तथा 33000 के आसपास सैनिक जख्मी भी हुए हैं। शहादतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। गलवान घाटी में 20 शहीदों के अलावा समस्त जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध के दौरान निरंतर देश भर के विशेष तौर पर पंजाब, हिमाचल तथा हरियाणा के इलाके गमगीन रहे। इसके अलावा सर्द नरक भोग रहे सियाचिन, लद्दाख तथा अन्य कठिन क्षेत्रों में अनेक सैनिक मौसम का शिकार हो रहे हैं। 

यह कड़वा सच है कि भगवान तथा सैनिक को केवल कठिन मौकों पर ही याद किया जाता है। जब खतरा टल जाता है तो सरकारें तथा समस्त समाज सब कुछ भूल जाता है। आखिर ऐसा क्यों होता है? सबका कत्र्तव्य बनता है कि ऐसे परिवारों और सैनिकों की विधवाओं जिनकी रोजी-रोटी कमाने वाले देश की रक्षा की खातिर सदा के लिए नींद में सो गए, उन नाकारा, लाचार तथा वृद्ध सैनिकों के पालन-पोषण तथा देख-रेख के लिए उन्हें फिर से स्थापित करने के लिए हम अपना योगदान दें। जरूरत इस बात की भी है कि सैन्य वर्ग की प्राप्तियों तथा मुश्किल भरी चुनौतियों और शूरवीरता वाले कारनामों के बारे में राजनेता, सांसद, नौकरशाह, पूरे देशवासी, विशेषतौर पर कालेजों तथा स्कूली बच्चों, समाज सेवी संस्थाओं को जागरूक किया जाए। 

समीक्षा और सुझाव 
रक्षा सेवाओं से संबंधित अधिकारी, जनता की ओर से चुने गए प्रतिनिधि तथा विशेष तौर पर नौकरशाह सरहदी क्षेत्रों में ट्रेङ्क्षनग कैप्सूल कैंप लगाएं  ताकि उन सब सैनिकों की समस्याओं का हल ढूंढा जा सके। वर्णनीय है कि एक सैनिक को दिन के 24 घंटों और सप्ताह के सातों दिन तैयार-बर-तैयार रहते हुए अपनी ड्यूटी करनी पड़ती है। फिर चाहे वह देश की सरहदों पर तैनात हो या फिर बैरकों में हो।

एक पूर्व उच्च सैन्य अधिकारी की ओर से कुछ समय पहले किए गए सर्वेक्षण के अनुसार सैनिक को औसतन 24 साल की नौकरी के दौरान करीब 18 साल अपने परिवार से अलग रहना पड़ता है। सरहद पर ड्यूटी निभा रहे सैनिक को दुश्मन, आतंकियों, घुसपैठियों, अलगाववादियों संग मुकाबले के लिए प्रत्येक वर्ष औसतन 415 जानें कुर्बान करनी पड़ती हैं। उसके साथ-साथ प्रत्येक वर्ष करीब 5000 सैनिक नाकारा या फिर जख्मी हो जाते हैं। उन्हें सेना अलविदा कह देती है। इसके अलावा बार-बार पोस्टिंग होने के कारण बच्चों की पढ़ाई पर भी असर पड़ता है। प्रशासन, पुलिस तथा अधिकारियों की ओर से सैनिकों को इज्जत और इंसाफ देने की बात तो दूर, उनकी दुख-तकलीफों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। 

आतंकवादियों के साथ लोहा लेने के समय यदि कोई सैनिक मानवीय अधिकारों की अवहेलना करता है तो सेना की ओर से उसका कोर्ट मार्शल तक कर दिया जाता है। सैन्य वर्ग की भलाई राष्ट्रीय नीति के आधार पर ही संभव हो सकती है। अफसोसजनक बात यह है कि अभी तक कोई बहुपक्षीय राष्ट्रीय नीति तय नहीं की गई।-ब्रिगे. कुलदीप सिंह काहलों (रिटा.)


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