सेना के जवान और अफसर भी इंसान हैं

Sunday, Feb 18, 2018 - 04:19 AM (IST)

हम सभी देशभक्त हैं लेकिन एक सैन्य अधिकारी का बेटा होने के नाते  मैं यह कहना चाहूंगा कि आत्मसम्मान और आत्मविश्वास से भरे हुए लोकतंत्र में हमारी सशस्त्र सेनाएं नागरिकों के स्नेह का पात्र बनने के लिए कोई विशेष दावा नहीं रखतीं। सेना के प्रति प्यार पूरी तरह व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का विषय है। 

सेना के प्रति प्यार किसी भी अन्य तरह की उस स्नेहपूर्ण भावना से किसी भी अर्थ में श्रेष्ठ नहीं है जो आप नर्सों, डाक्टरों, पुजारियों अथवा मौलवियों, किसानों या मजदूरों के प्रति महसूस करते हों। वास्तव में जब हम सैन्य बैंड बजाते हैं और दावा करते हैं कि हम किसी प्रकार से विशेष या बेहतर हैं तो हम लोकतंत्र के रूप में केवल अपनी अपरिपक्वता को ही प्रतिबिम्बित करते हैं। इस विस्तृत बिन्दु से आगे भी सेना के नाम पर बहुत उलटी-सीधी बातें की जाती हैं। चूंकि इस संस्थान से मेरा विशेष रिश्ता है और मैं इस मामले में किसी से पीछे नहीं हूं इसलिए मैं इस अतिशयोक्तिपूर्ण लफ्फाजी को दुरुस्त करना चाहता हूं। चूंकि मैं सेना से प्यार करता हूं इसलिए मैं सेना के विषय में हर प्रकार की बेहूदा बातों के विरुद्ध अवश्य ही पंगा लेने को तैयार हूं। 

मैं जिस उदाहरण को यहां अपनी दलील का आधार बना रहा हूं वह है व्हाट्सएप का एक वीडियो जो अनुष्का शर्मा की प्रस्तुति पर आधारित है। बहुत तड़क-भड़क वाले मंच पर खड़े होकर वह बताती हैं कि सेना के सैनिक की संतान होने का क्या अर्थ है? उनकी यह बात किसी भी तरह गलत नहीं है लेकिन जो शब्द उन्होंने प्रयुक्त किए हैं वे मुझे बहुत ही उपहासजनक लगते हैं। सुश्री शर्मा अपनी बात शुरू करती हुई कहती हैं कि सैनिकों के घरों में अन्य घरों की तुलना में पूरी तरह अलग तरह का वातावरण होता है क्योंकि वहां की हवा भी अनुशासित होती है। ऐसे में क्या मैं यही मान कर चलूं कि उनके कहने के अनुसार सैनिक परिवारों में मां-बाप अपने बच्चों को बिगाड़ते नहीं? 

यानी कि न तो उनके बेटे लाडले होते हैं और न ही बेटियां लाडली होती हैं? वैसे स्वाभाविक रूप से सैनिकों के बच्चे बात-बात पर रोने वाले नहीं होते। चूंकि उनके पिता वर्दी पहनते हैं इसलिए उन्हें भी लगता है कि वे अन्य लोगों से अलग तरह के हैं। सैनिकों के बच्चों को ठंडे जल से स्नान, शारीरिक व्यायाम और नियमित ड्रिल व पथ संचलनों के वातावरण में बड़े होने का मौका मिलता है। इतना ही नहीं, अपने ही कल्पना लोक में खोई हुई सुश्री शर्मा सैनिकों की पत्नियों और बच्चों का काव्यमयी भाषा में गुणगान करते हुए कहती हैं कि जब सैनिकों को युद्ध के लिए बुलावा आता है तो उनकी पत्नियां और बच्चे किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। सैनिकों की पत्नियां बहुत मजबूत होती हैं और अपनी भावनाओं को नियंत्रण में रखती हैं। मैं भी इस बात से इंकार नहीं करता कि वे अलग तरह की और विशिष्ट होती हैं लेकिन सुश्री शर्मा तो ऐसा आभास देती लगती हैं कि सैनिकों की पत्नियों के मन में कोई डर नहीं होता। यह बात राष्ट्रीय भावना का गुब्बारा फुलाने जैसी है। 

यदि आप कारगिल प्रकरण को युद्ध में शामिल न करें तो युद्ध का अवसर आखिरी बार 1971 में आया था। मेरा ख्याल है कि तब अनुष्का शर्मा पैदा भी नहीं हुई होंगी। मैं तब बोॄडग स्कूल में रह कर पढ़ता था और मेरे लिए पूरी दुनिया उलटी-पुलटी हो गई थी। आइए हम ईमानदारी से बात करें। जब भी युद्ध छिड़ता है तो सैनिकों का कलेजा भी डूबने लगता है क्योंकि उनकी पत्नियां और बच्चे जानते हैं कि उनके प्रियजन को सबसे बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। यानी कि अपनी जान की बाजी लगानी पड़ सकती है। उन दिनों यदि सैनिकों के पारिवारिक सदस्यों के लिए यदि एक-एक मिनट नहीं तो कम से कम एक-एक घंटा भी युगों के बराबर हो जाता है। सैनिक परिवारों की भावनाओं को सुनहरी रूप में पेश करना कोई मुश्किल नहीं लेकिन यह बेवकूफी भरा है और ऐसा करना हमेशा ही गलत होता है।  हमारे सैनिक और अफसर भी इंसान हैं तथा उसी तरह उनके बच्चे व पत्नियां भी। यदि आप कहते हैं कि वे हम सब लोगों से अलग तरह के हैं तो आप वास्तव में उनको सम्मानित नहीं कर रहे।-करण थापर

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