कर्नाटक में दल-बदली विरोधी कानून ने विशेष भूमिका अदा की

Monday, May 21, 2018 - 03:37 AM (IST)

1985 में 400 से भी अधिक सीटों पर कांग्रेस की ‘झाड़ूफेर’ जीत दर्ज करने के जल्द ही बाद राजीव गांधी ने संसद से दलबदली विरोधी कानून पारित करवा दिया। सार रूप में यह कानून कहता था कि यदि कोई विधायक वोट के मामले में पार्टी नेतृत्व को ठेंगा दिखाता है तो उसे ‘दलबदलू’ माना जाएगा। 

यानी कि एक बार यदि पार्टी कोई ‘व्हिप’ (यानी किसी विशेष मतदान के लिए विधायकों को लिखित सूचना देकर अनुरोध करना)जारी करती है तो इसका कोई विधायक अपनी मनमर्जी से वोट नहीं दे सकेगा, बल्कि पार्टी के निर्देश अनुसार ही मतदान कर पाएगा। यहां तक कि यदि कोई विधायक मतदान से गैर हाजिर रहेगा तो भी उसे अयोग्य करार दिया जा सकेगा। ऐसा मतदान जरूरी नहीं कि गोपनीय हो या सरकार के लिए जीवन-मौत का सवाल हो। दलबदली विरोधी अधिनियम हर उस मुद्दे पर लागू हो सकता है, जिस पर पार्टी मतदान करना चाहेगी। 

इस कानून ने मूल रूप में एक-तिहाई संख्या में बगावत करने वाले विधायकों को पार्टी की अनुशासनिक कार्रवाई के विरुद्ध कवच प्रदान किया था, लेकिन 2004 में इस प्रावधान को हटा दिया गया था और दलील यह दी गई थी कि ‘न्यूनतम एक-तिहाई विधायकों की शर्त’ थोक के भाव दलबदली को बढ़ावा दे रही थी। 2007 में बहुजन समाज पार्टी से हुई दलबदली से संबंधित  राजेन्द्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि विपक्षी पार्टी के समर्थन में राज्यपाल को हस्ताक्षरित पत्र तक देना भी दलबदली के तुल्य है। यदि भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस अथवा जनता दल के उन सदस्यों का नाम नहीं लिया जो कर्नाटक में इसका समर्थन कर सकते थे, तो इसके पीछे यह भी एक कारण है। 

यदि राज्यपाल को दिए गए अपने पत्र में बी.एस. येद्दियुरप्पा ने इन सदस्यों के नाम और हस्ताक्षर भी जोड़े होते तो संबंधित विधायकों के लिए यह बहुत ही घातक सिद्ध होता। कर्नाटक भाजपा के पक्ष में दलील देते हुए केन्द्र सरकार ने दावा किया कि अभी तक कर्नाटक के विधायकों को शपथ ग्रहण नहीं करवाई गई थी, इसलिए दलबदली विरोधी कानून लागू नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केन्द्र सरकार का यह दावा पाखंडपूर्ण है और सदस्यों की खरीदो-फरोख्त को सीधे रूप में प्रोत्साहित करता है। बीते कई वर्षों दौरान इस कानून के कारण ही न्यायपालिका ऐसे मामलों में अपना दबदबा दिखाने में सफल रही, जो मुख्यतया विधानपालिका के क्षेत्राधिकार में आते थे। कुछ लोगों की नजरों में बेशक ऐसा करना जरूरी हो लेकिन संसदीय लोकतंत्र के लिए यह कोई स्वस्थ रुझान नहीं।

भारत भर में गत कुछ वर्षों दौरान 100 से अधिक विधायक और दो दर्जन से अधिक सांसदों को अयोग्य करार दिया गया है। अन्य महान लोकतंत्रों में भी ऐसी स्थितियां पैदा होती हैं, जब किसी पार्टी के सांसद या विधायक उसके व्हिप का उल्लंघन करते हैं। ऐसे सदस्यों को पार्टी से निकाला जा सकता है। लेकिन भारत के विपरीत उनकी संसद सदस्यता कायम रहती है। भारत में तो पार्टी और विधानपालिका दोनों की सदस्यता से हाथ धोना पड़ता है। आस्ट्रेलिया में पार्टी व्हिप का उल्लंघन करने वालों को पार्टी द्वारा मिल रही कुछ सुविधाओं से हाथ धोना पड़ता है। जबकि अमरीका में ऐसे सदस्यों को राजनीतिक पार्टियों में से निकाला नहीं जा सकता, यानी कि उन्हें दंडित नहीं किया जा सकता। प्रमुख लोकतंत्र में से भारत ही एकमात्र ऐसा है, जहां पार्टी व्हिप के विरुद्ध मतदान करने के बहुत दूरगामी नतीजे हो सकते हैं। 

1992 में (काईहोतो हल्लोहान बनाम जचिल्हू मामले में) सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया था कि दल बदली विरोधी कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या अन्य आधारभूत स्वतंत्रताओं के विरुद्ध नहीं और न ही संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध है। अदालत ने कहा कि ‘‘दलबदली विरोधी कानून राजनीतिक और व्यक्तिगत सलीके की मर्यादाओं की व्यावहारिक जरूरतों को कुछ सैद्धांतिक मान्यताओं पर वरीयता देता है।’’ इससे हमारा सहमत होना जरूरी नहीं। लेकिन यदि हम सहमत हो जाते हैं तो भी अन्य गंभीर सवाल अनुत्तरित ही रह जाते हैं। जैसे कि-यदि पार्टी चुनाव के बाद किसी ऐसी पार्टी के साथ गठबंधन बनाती है, जिसकी विचारधारा से संबंधित विधायक का टकराव चल रहा था तो क्या होगा? क्या वह विधायक केवल इसलिए अपने मतदाताओं का अपमान करवाएगा कि पार्टी नेतृत्व ने इस संबंध में फैसला ले लिया है। इस सवाल का उत्तर देना आसान नहीं। और दलबदली विरोधी कानून में भी इस सवाल की अनदेखी की गई है। 

फिर भी दलबदली विरोधी कानून न्यायसंगत था क्योंकि उस दौर में बहुत से विधायक पैसे और मंत्री पद की अदालत में पाॢटयां बदलते रहते थे। 1960 के दशक के अंत में हरियाणा से संबंधित एक कांग्रेस विधायक गया लाल ने कुछ ही दिनों में तीन बार पार्टी बदली थी और उसकी इसी करतूत के कारण ‘आया राम गया राम’ जैसा जुमला प्रचलित हुआ था, जो ऐसे विधायकों के लिए प्रयुक्त होता था, जो किसी पार्टी के प्रति वफादार नहीं होते और अपनी निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए ही राजनीति में आते हैं। दलबदली विरोधी कानून ऐसे लोगों की गतिविधियों पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से बनाया गया था और यह कानून अपने उद्देश्य में काफी हद तक सफल रहा। फिर भी यह समस्या मुख्य रूप में नैतिकता से संबंधित है। लेकिन कानून कुछ अधिक ही कड़ा एवं व्यापक था। यदि कोई विधायक किसी पार्टी के टिकट पर निर्वाचित होकर उसी के व्हिप को ठेंगा दिखाता है तो निश्चय ही मतदाताओं को ही उसे दंडित करना चाहिए न कि पार्टी को। 

दलबदली विरोधी कानून ने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों में से अंत:करण (जमीर) नाम की चीज को ही गायब कर दिया और इस कारण यह लोकतंत्र और संविधानवाद के विरुद्ध एक वज्रपात था। यह कानून दो अति महत्वपूर्ण मामलों में हम नागरिकों की उम्मीदों पर खरा उतरने में विफल रहा। पहली बात तो यह है कि जन प्रतिनिधि को अवश्य ही अपने मतदाताओं और अपने चुनाव क्षेत्र के लोगों के प्रति वफादार रहना चाहिए। लेकिन कानून ने उन्हें पार्टी प्रति वफादार रहने को बाध्य कर दिया। दूसरी मान्यता यह है कि पार्टी हमेशा सही होती है। स्वतंत्र भारत का इतिहास दिखाता है कि कोई भी पार्टी संपूर्ण और दूध की धुली नहीं है और पार्टियों के नेतृत्व गलतियां करते हैं। इन गलतियों का विरोध होना चाहिए लेकिन दलबदली विरोधी कानून इस विरोध की धार कुंद कर देता है। 

लोकतंत्र में संसद ही सबसे सशक्त और सबसे मुखर मंच होता है। दलबदली विरोधी कानून ने हर प्रकार के आंतरिक और सहमति का मुंह बंद कर दिया है। इस बात का कोई अर्थ नहीं कि कर्नाटक की गड़बड़ चौथ में आप किस खेेमे में खड़े हैं, हम सभी को अवश्य ही इस कानून पर गंभीरता से दृष्टिपात और मंथन करना चाहिए और इसके लाभों की स्वीकारोक्ति करने के साथ-साथ इस द्वारा पहुंचाए गए नुक्सान की भी पड़ताल करनी चाहिए।-आकार पटेल

Pardeep

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