दल-बदल कानून अपना विधायी उद्देश्य हासिल करने में बुरी तरह विफल रहा
punjabkesari.in Sunday, Jul 16, 2023 - 05:44 AM (IST)

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के दिग्गजों, शरद पवार और उनके भतीजे अजित पवार के बीच चल रही रस्साकशी ने एक बार फिर दल-बदल विरोधी कानून की अप्रचलित प्रकृति को दर्शाया है, और यह कैसे पूरी तरह से अपनी प्रासंगिकता खो चुका है।
1985 में संसद ने संविधान में संशोधन किया और 10वीं अनुसूची पेश की, जिसने भारत में दल-बदल विरोधी कानूनों से संबंधित विधायी तंत्र को संहिताबद्ध किया। कानून के पीछे का इरादा राजनीतिक दल-बदल की बुराइयों से लडऩा और उन पर काबू पाना था, जो हमारे लोकतंत्र और इसे कायम रखने वाले सिद्धांत के मूल आधार को कमजोर कर देते। हालांकि, केंद्र में सत्ताधारी सरकार द्वारा महाराष्ट्र, मेघालय और गोवा में बड़े पैमाने पर दल-बदल के हालिया उदाहरण एक बार फिर स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि कानून अपना विधायी उद्देश्य हासिल करने में बुरी तरह विफल रहा है। दल-बदल विरोधी कानून नेक इरादों वाले एक त्रुटिपूर्ण कानून का प्रतीक है।
दल-बदल विरोधी कानून के साथ भारत की कोशिश 52वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1985 के बाद शुरू हुई। संविधान में इस संशोधन के अनुसार, किसी सदन के सदस्य को अयोग्य ठहराया जाएगा यदि वह- (1) स्वेच्छा से ऐसे राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है जहां से वह विधायिका के लिए चुना गया था या (2) पार्टी की पूर्व अनुमति के बिना, राजनीतिक दल के निर्देशों के खिलाफ वोट देता है या अनुपस्थित रहता है। कानून ने अपवाद प्रदान किया कि यदि सदन के एक-तिहाई सदस्य एक अलग गुट बनाते हैं, या किसी अन्य राजनीतिक इकाई के साथ विलय करते हैं तो ऐसी अयोग्यता नहीं होगी। यह अपवाद कानून द्वारा प्रतिनिधि की असहमति व्यक्त करने की शक्ति और राजनीतिक दल की अपनी राजनीतिक पूंजी की रक्षा करने की शक्तियों के बीच संतुलन बनाए रखने का एक प्रयास था। हालांकि, यह प्रयास दल-बदल पर अंकुश लगाने के लिए पर्याप्त नहीं था। दल-बदल के मामले जारी रहे, जिससे स्पष्ट रूप से पता चला कि कानून अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल रहा।
2003 में, 2003 के 91वें संशोधन अधिनियम ने उपरोक्त मुद्दे को संबोधित करने का प्रयास किया। कानून ने किसी सदन में किसी राजनीतिक दल के निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए यह सीमा अनिवार्य कर दी और बढ़ा दी कि वे या तो विलय करना चाहते हैं या नई राजनीतिक पार्टी बनाना चाहते हैं। हालांकि, यह प्रयास भी दल-बदल के मुद्दे को संबोधित करने में विफल रहा और सर्वशक्तिमान चाबुक की शक्तियों को और बढ़ाने का अनपेक्षित परिणाम बना।
10वीं अनुसूची के एक सैद्धांतिक विरोधी के रूप में मेरा विरोध केवल इसकी व्यावहारिक विफलता के बारे में नहीं है, बल्कि भारतीय कानून के साथ इसकी न्यायशास्त्रीय असंगति के बारे में भी है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 105 (1) संसद में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। यह अनुच्छेद इस विचार पर आधारित था कि एक सांसद को अपने निर्वाचन क्षेत्र की शिकायतों को संबोधित करने के लिए बोलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। हालांकि, दल-बदल विरोधी कानून प्रतिनिधियों की इस स्वतंत्रता पर अंकुश लगाते हैं, अगर यह पार्टी लाइनों के अनुरूप नहीं है। यह उस विचार का घोर उल्लंघन है जिसके आधार पर अनुच्छेद 105 (1) की परिकल्पना की गई थी।
इसी प्रकार, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती बनाम भारत संघ के अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि संसदीय लोकतंत्र भारतीय संविधान की एक बुनियादी विशेषता है। हालांकि, एक पार्टी-वर्चस्व वाली प्रणाली, जो व्यावहारिक रूप से सांसद को अपने अधीन कर लेती है, जो अपने निर्वाचन क्षेत्र के सर्वोत्तम हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया था, इस बुनियादी संरचना सिद्धांत का उल्लंघन करती है।
यह शायद हमारे समय की कमतर व्याख्या होगी, भले ही इसे पूरी कठोरता के साथ व्यक्त किया जाए कि संविधान की 10वीं अनुसूची ने विधायी संस्थानों से लोकतंत्र की जीवन शक्ति को छीन लिया है। हालांकि यह अपने इच्छित और घोषित उद्देश्य ‘आया राम और गया राम’ की राजनीति के खतरे को रोकने में शानदार ढंग से विफल रहा है, इसने विधायिकाओं को कोड़े से चलने वाले अत्याचार के ‘डे टोरोस’ में बदल दिया है। अब कोई सांसद अपनी अंतरात्मा, सामान्य ज्ञान या यहां तक कि निर्वाचन क्षेत्र के अनुसार विधायी स्वतंत्रता का इस्तेमाल नहीं कर सकता। जबकि एक प्रतिनिधि का चुनाव उस छोटे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो 5 साल में एक बार तेज धूप या भारी बारिश में लंबी कतार में खड़ा होता है, उस प्रतिनिधि का विधायी जीवन उस पार्टी द्वारा चलाया जाता है जिसने उसे चुनाव लडऩे के लिए सर्वव्यापी ‘टिकट’ दिया था।
पिछले कुछ वर्षों में महाराष्ट्र, गोवा और कई अन्य स्थानों पर हुए घटनाक्रमों ने एक बार फिर इस बात को रेखांकित किया है कि पीठासीन अधिकारियों को दी गई शक्तियों का उपयोग निष्पक्ष, उचित व न्यायसंगत तरीके से नहीं किया जाता। संघीय और राज्य विधानमंडलों दोनों में विधायी संस्थानों की कुर्सी पर किस प्रकार के व्यक्ति/व्यक्तियों को कब्जा करना चाहिए, इसकी भूमिका, प्रकृति पर गंभीरता से विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है। समय आ गया है कि भारत के संविधान की 10वीं अनुसूची को निरस्त किया जाए और इसके स्थान पर कुछ ऐसा लागू किया जाए, जो वास्तव में दल-बदल के खतरे को रोकने और यह सुनिश्चित करने के लिए काम करे कि लोकतंत्र की ऑक्सीजन हमारे विधायी संस्थानों में वापस आ जाए।-मनीष तिवारी