एक अन्य ‘सत्ता परिवर्तन’

Saturday, Jul 27, 2019 - 03:37 AM (IST)

कर्नाटक में भाजपा के नए मुख्यमंत्री बी.एस. येद्दियुरप्पा ने पहले जनता दल सैकुलर के नेता एच.डी. कुमारस्वामी के पाखंड का पर्दाफाश किया और उनसे बदला लिया, जिनके साथ किसी समय उन्होंने सांझा मुख्यमंत्रियों वाला गठबंधन किया था, जिससे बाद में उन्होंने इंकार कर दिया था। इसलिए यह फटकार है।

दूसरे, सबसे ऊंचे कद के लिंगायत नेता तथा अभी भी दक्षिण में भाजपा के भविष्य के सारथी होने के नाते उन्होंने पार्टी में अपना प्रभुत्व स्थापित किया है, जो उन्हें भ्रष्टाचार के मामले में दोषी पाए जाने के बाद धुंधला गया था और खनन माफिया के साथ उनके गहरे संबंधों को लेकर केन्द्रीय नेतृत्व के असहज होने के बावजूद वह वैकल्पिक समाधानों की तलाश में था। इस हद तक कि पार्टी अपने ही द्वारा लागू 75 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्ति की धारा को नजरअंदाज करते हुए इस 76 वर्षीय नेता को उनके राज्य का प्रभारी बनाना चाहती थी। 

एक ऐसे समय में, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों के एजैंडे को आगे बढ़ा रहे हैं, उनके पास ‘रैथ्र बंधु’ के तौर पर इन हिस्सों में जाने जाते येद्दियुरप्पा से बेहतर द्वारपाल नहीं हो सकता था। अपने मुख्यमंत्री काल के दौरान कृषि बजट के समर्थन के लिए जाने जाते येद्दियुरप्पा एक वर्ष की प्रशासन पंगुता के बाद पहले ही अपनी महत्वपूर्ण प्राथमिकताएं बता चुके हैं। दो अनमोल अवसरों पर मुख्यमंत्री के सपनों को पूरा कर पाने में असफल येद्दियुरप्पा को इस बार मनहूसियत तोडऩे की आशा है। यद्यपि कर्नाटक के लोगों को एक विखंडित जनादेश के दबावों तथा खींचतान के बीच रहना होगा। 

कर्नाटक में पार्टी की विजय का अंतर बहुत कम था, भाजपा की 105 के मुकाबले जद (एस)-कांग्रेस गठबंधन की 99 वोटें, जो आंकड़ों के खेल को बनाए रखने के लिए दबाव में होगी। 20 विधायकों, जिनमें से 13 कांग्रेस के तथा 3 जद (एस) और 4 अन्य विधायक शामिल हैं, जो किसी न किसी बहाने से अनुपस्थित रहे, के भाग्य का फैसला होना है। एकमात्र बसपा विधायक, जिसे जद (एस) का समर्थन न करने के लिए निष्कासित कर दिया गया था, भाजपा में शामिल होगा। अनाधिकारिक रिपोर्ट्स बताती हैं कि विद्रोही विधायकों को भत्तों, पदोन्नतियों तथा मंत्रिमंडलीय पदों के अतिरिक्त 30 करोड़ रुपए दिए गए। यदि कुमारस्वामी समर्थक स्पीकर उन्हें अयोग्य घोषित कर देते तो उन्हें कोई भी लाभ नहीं मिलता। सबसे बड़ा नुक्सान सार्वजनिक जीवन में नैतिकता का पूर्ण पतन है। जैसा कि सदन में और फिर सड़कों पर कांग्रेस-भाजपा के बीच दुश्मनी के फूट पडऩे के रूप में दिखाई देता है, जिस कारण बेंगलूर में सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करनी पड़ी और व्यस्त कार्य दिवस पर नागरिकों का जीवन प्रभावित हुआ। 

अंतत: इससे यह भी दिखता है कि कैसे दलबदल विरोधी कानून अब कोई मायने नहीं रखता। किसी अन्य पार्टी में शामिल होने की बजाय विधायक केवल पार्टी से इस्तीफा दे देते हैं। जैसा कि तेलंगाना तथा गोवा में हुए घटनाक्रमों से दिखाई देता है, विधायक कार्रवाई से एक ऐसा समूह बनाकर बच जाते हैं जो उनकी पार्टी की सदन में सदस्यता के एक तिहाई से अधिक है और फिर नई प्रायोजक पार्टी में शामिल हो जाते हैं। यह दलबदल कानून की भावना के खिलाफ जाता है, जिसका उद्देश्य धन तथा बल की शक्ति पर अंकुश लगाना था। 

कानून के सबसे बड़े रखवाले सुप्रीम कोर्ट ने इसे और भी दंतविहीन कर दिया, जब इसने सदन में सभी असंतुष्ट विधायकों की उपस्थिति आवश्यक बनाने वाले व्हिप की आज्ञा नहीं दी। अब समय आ गया है विधि आयोग के विलय को अयोग्य घोषित करने के सुझावों की समीक्षा करने तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया को स्पीकर के हाथों से छीनने का, जो पक्षपाती हो सकता है। ये शक्तियां राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति को दी जानी चाहिएं, जो चुनाव आयोग की सलाह पर कार्य करेगा। 2002 के संविधान समीक्षा आयोग ने सुझाव दिया था कि दलबदल करने वालों के किसी सार्वजनिक पद सम्भालने पर रोक लगाई जाए और यहां तक कि कुछ सामाजिक कार्यकत्र्ताओं ने यह भी सुझाव दिया था कि उन पर कम से कम 5 वर्ष का प्रतिबंध लगाया जाए। 

कांग्रेस ने गत 5 वर्षों के दौरान इस खेल में अपनी उंगलियां बुरी तरह से जलाई हैं और अपना मतदाता आधार तथा प्रासंगिकता खोई है। अब यह चुनाव के माध्यम से किसी भी स्पर्धा का सामना करने को तैयार है। भाजपा भी एक नाखुश स्थिति में है। दोनों पार्टियों को अपनी राष्ट्रीय स्थिति को देखते हुए हमेशा के लिए इस बुराई को समाप्त करने हेतु कदम उठाना चाहिए।

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