‘पशुपालन’ का अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान

punjabkesari.in Saturday, Sep 14, 2019 - 12:26 AM (IST)

यह देखकर हैरानी भी होती है और हंसी भी आती है कि कुछ लोग पशुधन विशेषकर दुधारू पशुओं में सर्वश्रेष्ठ कही जाने वाली गाय की देखभाल और उसका संरक्षण करने की बात सुनते ही आग बबूला हो जाते हैं, अपना संतुलन खोने की हद तक चले जाते हैं और इस कदर विरोध करने लगते हैं जैसे कि मानो पशुधन की रक्षा करने की बात करना उनका अपमान हो।

इसके विपरीत हकीकत यह है कि आज पशुधन की बदौलत ही हमारा देश दुनिया भर में इस क्षेत्र में पहले या दूसरे स्थान पर है और देश की अर्थव्यवस्था में वृद्धि करने, रोजगार देने और ग्रामीण इलाकों में खेतीबाड़ी के साथ-साथ ग्रामवासियों को आमदनी का अतिरिक्त साधन देने में पशुपालन की इतनी बड़ी भूमिका है कि उसे नजरंदाज करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा। 

पशुपालन और किसानी
हमारे देश में किसान के पास साल भर में लगभग 6 महीने ही खेतीबाड़ी और उससे जुड़े काम रहते हैं। अब बाकी के 6 महीने वह पशुपालन अर्थात गाय, भैंस, बकरी से लेकर मुर्गी, भेड़ और अन्य पशुओं को पालता है जिससे उसे अतिरिक्त आमदनी भी होती है और खाली भी नहीं बैठना पड़ता। हालांकि पशुपालन के लिए अनेक शिक्षण संस्थान अब खुल गए हैं और उनसे पढ़ाई करने के बाद आधुनिक टैक्नोलॉजी और नवीन तकनीकों की जानकारी होने के बाद इस क्षेत्र में रोजगार की अपार सम्भावनाएं होती हैं, लेकिन अधिकांश किसानों के लिए पशुपालन एक पुश्तैनी काम होने से पढ़ाई-लिखाई न भी की हो, फिर भी एक फायदेमंद काम है। 

ज्यादा दूर क्यों जाएं, 30-40 साल पहले तक दिल्ली जैसे शहर में घर में गाय पालने की परम्परा थी और गौसेवा को पुण्य का काम समझा जाता था। गांव-देहात में तो पशुपालन आज भी मुख्य है और दो-तिहाई ग्रामीणों की आजीविका इससे चलती है। इसके साथ ही छोटे शहरों, कस्बों में तो यह अभी भी बहुत से परिवारों की आय का प्रमुख स्रोत है। 

किसान के लिए हल बैल से खेती करना आज भी सुगम है क्योंकि छोटी जोत वालों के लिए ट्रैक्टर का इस्तेमाल काफी महंगा भी है और उससे क्योंकि खेत में गहराई तक खुदाई हो जाती है इसलिए उसे ज्यादा खाद और पानी की जरूरत पड़ती है। यहां तक कि अनेक परीक्षण करने पर यह बात भी सामने आई कि हल बैल से खेती करने पर ट्रैक्टर का इस्तेमाल करने के मुकाबले अधिक उपज हुई। यह भी ध्यान रखने की बात है कि ट्रैक्टर से मिला केवल धुआं और बैल से मिला गोबर और मूत्र, जो खाद बनकर किसान के काम आया। ट्रैक्टर और खेतीबाड़ी के लिए आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल जरूरी है लेकिन वहां जहां बड़ी जोत हों, लम्बे-चौड़े खेत हों और खाद तथा सिंचाई की पूर्ण व्यवस्था हो। इन बड़े किसानों के लिए पशुपालन का अधिक महत्व न हो लेकिन छोटे और मंझोले किसानों के लिए यह उनकी रीढ़ के समान है जो जितनी मजबूत होगी उतनी ही खुशहाली गांव-देहात में होगी। 

किसान के लिए परिवार में पशुधन, विशेषकर गाय-भैंस एक तरह से चलता-फिरता बैंक है। जब जरूरत पड़ी, कोई अचानक खर्चा आ गया या फिर शादी में लेन-देन की बात सामने आई तो यही पशुधन उसका सहारा बनता है। ये पशु खाते क्या हैं: खरपतवार, छीजन तथा खेती के लिए अनुपयुक्त जमीन पर उगे चरागाह का चारा और देते हैं पौष्टिक दूध तथा गोबर से खाद, ईंधन और स्वच्छ वातावरण जो प्रदूषण रहित है। बापू गांधी तो गौसेवा को सत्य और अहिंसा के सिद्धांत पर चलने के लिए अनिवार्य साधन तक मानते थे। जो गाय हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं, तीज-त्यौहारों और आस्था से जुड़ी है तथा आर्थिक समृद्धि का प्रतीक है, परिवार के सम्मान को बढ़ाती है और उसका प्रत्येक अंग हमारे लिए उपयोगी है तथा जो मरने के बाद भी अपने अवशेषों से हमारी आमदनी करवा जाती है तो ऐसे जीव का संरक्षण और संवर्धन करना व्यक्तिगत भलाई तो है ही, साथ में देश की अर्थव्यवस्था में भी योगदान डालना है। 

पशुपालन और व्यवसाय
आज दुधारू पशुओं, जैसे गाय-भैंस का पालन केवल व्यक्तिगत नहीं रह गया है, बल्कि इसने अब संगठित व्यापार का रूप ले लिया है। भैंस के मांस निर्यात में तो हम पहले स्थान पर हैं ही, साथ में सम्पूर्ण पशुधन के मामले में भी सबसे आगे हैं। मुर्गी, भेड़ पालन में भी बहुत आगे हैं, यहां तक कि मछली पालन में भी दूसरे स्थान पर हैं। जो अन्य पशु हैं, जैसे घोड़े, खच्चर, ऊंट, उनकी उपयोगिता इतनी है कि आज भी जंगलों, पहाड़ी इलाकों और दुर्गम स्थानों पर यातायात का एकमात्र साधन हैं। देश की लगभग एक-चौथाई आबादी किसी न किसी रूप में पशुपालन से जुड़ी है, चाहे यह श्वान यानी कुत्तों का पालन ही क्यों न हो जिसने भी अब एक उभरते व्यापार का रूप ले लिया है। 

जहां तक अर्थव्यवस्था के कमजोर और देश में मंदी का दौर होने, उद्योगों के बंद होने के कगार पर होने, रोजगार कम होने से लेकर निवेशकों द्वारा निवेश करने में संकोच करने या हाथ खींच लेने का संबंध है तो इसका कारण आर्थिक नीतियों का कारगर न होना नहीं है। इससे पूरी तरह सहमत इसलिए नहीं हुआ जा सकता क्योंकि इसके कुछ कारण ऐसे हैं जो मुनाफाखोरी और लालच से जुड़े हैं। जो भी हो, जरूरत इस बात की है कि वैकल्पिक उद्योग के रूप में ही सही, पशुपालन को औद्योगिक दर्जा दिया जाए, इसमें भी सस्ते ऋण, सस्ती जमीन और मुफ्त बुनियादी सुविधाएं दी जाएं तो यह क्षेत्र अपार सम्भावनाओं वाला सिद्ध होगा। 

पशुपालन के शिक्षण और प्रशिक्षण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर तो सुविधाएं हैं लेकिन उन तक हरेक की पहुंच न होने से लोगों की इसमें ज्यादा रुचि नहीं होती। इसके लिए जिला स्तर पर ट्रेङ्क्षनग सैंटर खुलें और पशुओं के रखरखाव से लेकर उनकी चिकित्सा तक के व्यापक प्रबंध हों। अभी तो यह हालत है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पशु बीमार हो जाए तो उसका इलाज करने के लिए समय पर पशु चिकित्सक ही नहीं मिलता और पशु की असामयिक मौत हो जाती है। 

डेयरी उद्योग, मत्स्य पालन, सूअर, मुर्गी, भेड़, बकरी पालन से लेकर घोड़े और ऊंट पालन तक में उद्योग का आकार लेने की क्षमता है। इन्हें प्रोत्साहन देने से उद्यमशीलता को बढ़ावा मिलेगा, उत्पादकता में वृद्धि होगी, रोजगार के साधन बढ़ेंगे और इनसे जुड़े छोटे उद्योग तथा कल-कारखाने खुलेंगे जो व्यक्तिगत समृद्धि का कारण तो बनेंगे ही, देश की आॢथक स्थिति भी पहले से अधिक और स्थायी तौर पर मजबूत करेंगे।-पूरन चंद सरीन


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