इंडो-पैसिफिक में अपने दबदबे को लेकर गंभीर हो रहा अमरीका

punjabkesari.in Thursday, Apr 07, 2022 - 05:12 AM (IST)

इस हफ्ते की शुरूआत में अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 1.8 अरब डालर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र पर खर्च करने की घोषणा की। ये 1.8 अरब डालर मुक्त, सुरक्षित, और कनैक्टिड इंडो-पैसिफिक व्यवस्था को मूर्त रूप देने के लिए खर्चे जाएंगे। 40 करोड़ डालर की राशि चीन के इंडो-पैसिफिक में दुष्प्रभाव को रोकने में खर्च होगी। आश्चर्य की बात यह है कि व्हाइट हाऊस के बयान में इन 40 करोड़ डॉलरों को ‘चाइनीज मलाइन इन्फ्लुएंस फंड’ की संज्ञा दी गई है। इससे जाहिर होता है कि बाइडेन प्रशासन इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन से आर्थिक मोर्चे पर भी दो-दो हाथ करने को तैयार है। 

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही अमरीका की सैन्य और कूटनीतिक मौजूदगी पूर्वी और उत्तर-पूर्वी एशिया के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अभिन्न हिस्सा रही है। जैसे-जैसे ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य यूरोपीय शक्तियां एशिया से बाहर खिसकती गईं, अमरीका (सोवियत रूस और चीन भी) इस क्षेत्र में ताकतवर होते गए। 20वीं सदी के आधे हिस्से और 21वीं सदी के पहले दशक में अमरीका की मौजूदगी कमोबेश मजबूत रही। लेकिन पिछले 10 सालों में जैसे-जैसे चीन ताकतवर होता गया और अमरीका का ध्यान अफगानिस्तान, पश्चिमी एशिया और अन्य क्षेत्रों में ङ्क्षखचता गया, एशिया के तमाम देशों को लगने लगा कि शायद अमरीका का ध्यान उनकी ओर नहीं है। 

दिलचस्प बात यह रही कि पिछले 5 सालों में अमरीका को लेकर भी चीन के तेवर बदले हैं। खुद को दुनिया का चौधरी समझ बैठे अमरीका को जब यह एहसास हुआ कि चीन उसके वर्चस्व के लिए ही खतरा बन गया है तब उसके व्यवहार में परिवर्तन आना शुरू हुआ। हालांकि बराक ओबामा के कार्यकाल में ही ‘पिवट टू एशिया’ जैसी महत्वाकांक्षी परियोजनाएं शुरू हो गई थीं, लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प के समय में अमरीका और चीन के संबंधों में तल्खी भी आई और चीन को काबू करने की व्यापक कोशिशें भी शुरू हुईं। अमरीका और चीन के बीच व्यापार युद्ध के साथ ही साथ इंडो-पैसिफिक रणनीति पर भी आधिकारिक मुहर लगी और भारत के इस रणनीति में प्रमुख स्थान पर भी व्यापक चर्चाएं हुईं। ट्रम्प के बेबाक अंदाज चीन को रास नहीं आए और दोनों के बीच तनातनी बढ़ती गई। 

नतीजा यह हुआ कि इंडो-पैसिफिक में चीन को घेरने के ट्रम्प के मंसूबों को अमली जामा पहनाया जाने लगा। हालांकि ट्रम्प की अपनी खामियां थीं और शायद उनके अंदाज दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों को ज्यादा रास नहीं आए। बाइडेन के गद्दी संभालने के बाद ऐसा लगा कि अमरीका शायद चीन को लेकर लचर पड़ जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बाइडेन ने न सिर्फ ट्रम्प प्रशासन की नीतियों को जारी रखा, बल्कि तमाम वायदों को पूरा करने की कोशिश भी शुरू की। इसके पीछे कहीं न कहीं यह समझ भी है कि बैल्ट एंड रोड परियोजना के बाद से चीन आर्थिक मोर्चे पर अमरीका से आगे निकल रहा है। यही वजह है कि बाइडेन प्रशासन अब रूस के साथ-साथ इंडो-पैसिफिक पर भी नजर जमाए बैठा है। 

इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क : अक्तूबर 2021 में हुई ईस्ट एशिया सम्मिट के दौरान अपने ऑनलाइन बयानों में बाइडेन ने इस फ्रेमवर्क की बात पहली बार की थी। इस फ्रेमवर्क के तहत कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर साथ काम करने की बात कही गई है, जिनमें व्यापार बढ़ोत्तरी, डिजिटल टैक्नोलॉजी और इकोनॉमी, सप्लाई चेन, स्वच्छ ऊर्जा, इंफ्रास्ट्रक्चर आदि मुद्दों पर काम होने की उम्मीद है। इस फ्रेमवर्क के 2 महत्वपूर्ण पहलू हैं। पहली वजह यह है कि इस फ्रेमवर्क के माध्यम से अमरीका चीन को बाहर रख कर सप्लाई चेन रेसिलिएंस बढ़ाने पर काम करना चाहता है। उसकी यह भी कोशिश है कि 5जी तकनीक जैसे मसलों पर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के देश चीन की बजाय पश्चिमी देशों की तकनीकी सुविधाओं का इस्तेमाल करें। 

सरी वजह यह है कि रीजनल कंप्रीहैंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आर.सी.ई.पी.) मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर और चीन की बैल्ट एंड रोड परियोजना की सफलता के बाद अमरीका को यह एहसास हो चला है कि आर्थिक मोर्चे पर वह चीन से काफी पीछे हो गया है। यही वजह है कि अब अमरीका व्यापार से लेकर रक्षा, तकनीकी सहयोग से कूटनीतिक मुलाकातों, सभी पर फोकस कर रहा है। 

इसी सिलसिले में अमरीका ने यह भी प्रस्ताव किया था कि वह और आसियान देश एक शिखर वार्ता में शिरकत करें। हालांकि यह वार्ता कुछ समय के लिए स्थगित हो गई है, लेकिन इसी हफ्ते सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली शिन लूंग अमरीका पहुंचे। सिंगापुर आसियान क्षेत्र में अमरीका का सबसे बड़ा आर्थिक सांझेदार और करीबी सामरिक सहयोगी देश है। अपनी चर्चाओं में कहीं न कहीं बाइडेन प्रशासन ने आसियान क्षेत्र का रुख भांपने की कोशिश भी की होगी। दूसरी ओर म्यांमार का मुद्दा भी पेचीदा है। खासतौर पर तब, जबकि आसियान के 2022 में अध्यक्ष देश कंबोडिया ने शिखर वार्ता के प्रस्ताव पर टालमटोल कर दी है। म्यांमार को लेकर भी कंबोडिया अमरीका के साथ खड़ा नहीं दिखता। 

इतना आसान नहीं अमरीका का रास्ता : जाहिर है, यह सब इतना आसान नहीं है। दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश चीन पर काफी निर्भर हैं और वे सिर्फ अमरीका के भड़काने पर चीन से नाता नहीं तोड़ेंगे। जब तक अमरीका की दक्षिण-पूर्वी एशिया और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में प्रतिबद्धता पूरी तरह स्थापित नहीं हो जाती और अमरीका अपने वादों को जमीनी हकीकत में नहीं बदलता, तब तक नीतियां सिर्फ कागजी रहेंगी और उनकी हासिल होगी जबानी दोस्ती की खोखली गर्मजोशी।-राहुल मिश्र


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