अमरीका : भारत को मत गंवाओ

punjabkesari.in Saturday, Sep 06, 2025 - 05:53 AM (IST)

1940 के दशक के उत्तराद्र्ध और 1950 के शुरुआती वर्षों में, संयुक्त राज्य अमरीका ‘हू लॉस्ट चाइना’ बहस से घिरा हुआ था। अक्तूबर 1949 में चीन पर कम्युनिस्टों के कब्जे के बाद अमरीकी विदेश नीति प्रतिष्ठान में एक राजनीतिक हड़कम्प मच गया,जब माओ त्से तुंग के नेतृत्व में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ  चाइना की घोषणा हुई, जिससे कुओमिन्तांग राष्ट्रवादियों की हार हुई, जिनका नेतृत्व च्यांग काई-शेक कर रहे थे और जो ताइवान चले गए। कई दशकों तक यह एक नीति आपदा और शुरुआती शीत युद्ध में एक बड़ा झटका था क्योंकि वाशिंगटन ने साम्यवाद को रोकने की कसम खाई थी। आज, 75 साल बाद,नई दिल्ली खुद को चीन और रूस की गोद में पाती है और अमरीका से दूर हो रही है। अमरीकी ‘हू लॉस्ट इंडिया’ बहस में शामिल होने से पहले यह देखना चाहिए कि यह अभी टाला जा सकता है। दोनों देशों के बीच जो हो रहा है, वह अक्षम्य है अमरीका-भारत संबंध  जो विश्व के सबसे महत्वपूर्ण द्विपक्षीय संबंधों में से एक है, गलत दिशा में जा रहा है।

फिर भी 7 दशकों में, वाशिंगटन और नई दिल्ली ने आपसी सम्मान और सांझा हितों की नींव पर संबंधों का निर्माण किया है। फिर भी, आज  ट्रम्प की दंडात्मक टैरिफ  की लहर के भार तले और परिणामी कूटनीतिक तनाव के कारण यह नींव दरक रही है। भारत जो दुनिया में सबसे अधिक टैरिफ लगाए जाने वाले देशों में से है (औसतन लगभग 50 प्रतिशत, जबकि चीन का लगभग 20 प्रतिशत है) अमरीका में अन्य प्रतिस्पर्धियों की तुलना में अपने सामान को बाजार में लाने में कठिनाई महसूस करता है। इसका अर्थ यह है कि भारतीय निर्यातक, विशेषकर मॉस्को और बीजिंग की ओर देख रहे हैं। गहरी अविश्वास और अमरीकी व्यापार नीति के बारे में कड़वाहट ने हाल ही में घोषित ‘इंडो-यू.एस. संबंध’ को पिछले चौथाई सदी में परिभाषित किया है। लेकिन यह केवल व्यापारिक सांझेदारी नहीं है, अगर वाशिंगटन यही चाहता है। यह अमरीका के लिए समय है कि वह भारत को रणनीतिक सांझेदार के रूप में स्वीकार करे न कि केवल एक व्यापारिक प्रतिस्पर्धी के रूप में। 26 अगस्त तक, भारत का अमरीका को निर्यात 46.4 बिलियन तक बढ़ गया था जबकि अमरीका से आयातित सामान $57 बिलियन तक था। अमरीका  भारत का  सबसे बड़ा व्यापारिक सांझेदार है। प्रमुख निर्यात में कपड़े, चमड़ा, समुद्री भोजन और इंजीनियरिंग वस्तुएं (जैसे हीरे और फार्मास्यूटिकल्स) शामिल हैं। इसके बदले भारत अमरीका से तेल और लगातार बढ़ते हुए रक्षा उपकरण खरीदता है।

वाशिंगटन की जलवायु परिवर्तन फंड्स में रूस की युद्ध संचालित बाधा ने केवल अमरीका से भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए तेल खरीदने की बाध्यता को और बढ़ा दिया है। भारत अमरीका से लगभग $67 बिलियन का सामान निर्यात करता है लेकिन टैरिफ  से बहुत बड़ी मात्रा में प्रभावित होता है। लेकिन ये टैरिफ  केवल आॢथक दंड नहीं हैं, ये राजनीतिक संकेत हैं। और इन्हें नई दिल्ली में जोर-शोर से पढ़ा और सुना जा रहा है। रणनीतिक स्वायत्तता को दंडित किया जा रहा है न कि (जैसा कि पहले सम्मानित किया जाता था) आदर किया जा रहा है।
परिणाम गंभीर हैं। भारतीय निर्यातक प्रतिस्पर्धात्मकता खो रहे हैं (जैसे त्रिपुर, सूरत और विशाखापट्टनम में )। अमरीकी खरीदार जो पहले वियतनाम, इक्वाडोर, थाईलैंड और तुर्की से आपूर्ति लेने लगे थे अब भारतीय आपूर्ति पर दबाव डाल रहे हैं। निवेशक विश्वास कमजोर हुआ है। भारतीय उपभोक्ताओं को उच्च कीमतों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि आयातित कंटेनर देर से आते हैं और लागत बढ़ गई है।

सूरत के आभूषण निर्माता और विशाखापट्टनम के स्टील निर्माता नौकरियां खो रहे हैं। यह नुकसान लंबे समय तक झेलना होगा। जितना यह चलता रहेगा, उतना ही भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिरता खतरे में होगी। आर्थिक मुद्दे से परे व्यापार युद्ध अमरीका-भारत रणनीतिक संबंध को भी खतरे में डालता है। एक ऐसा संबंध जिसमें प्रमुख रक्षा सहयोग, सह-विकास और सह-उत्पादन व्यवस्थाएं और हाल ही में हस्ताक्षरित ‘मेजर डिफैंस पार्टनरशिप फ्रेमवर्क’ शामिल है। इसके अलावा इस साल भारत की मेजबानी में होने वाला ‘क्वाड’ शिखर सम्मेलन अस्थिर हो सकता है। नई दिल्ली को अलग-थलग करना भारत को अमरीका के विरोधियों (जैसे चीन और रूस) के करीब धकेलना, क्षेत्रीय सुरक्षा को अस्थिर करना और वैश्विक स्थिरता को हिला देना है।अमरीका को यह पहचानना होगा कि रणनीतिक स्वायत्तता अवज्ञा नहीं है-यह संप्रभुता है। भारत को ऊर्जा विकल्पों या रक्षा खरीद के निर्णयों के लिए दंडित करना, जिन्हें हर देश केवल अपने राष्ट्रीय हितों के आधार पर ही ले सकता है, अल्पदृष्टि और प्रतिकूल है।

वाशिंगटन को तुरंत भारतीय श्रम-गहन क्षेत्रों को लक्षित करने वाले दंडात्मक टैरिफ  समाप्त करने चाहिएं जो विशेष रूप से संवेदनशील हैं (जैसे कपड़ा और परिधान उद्योग), जहां भारतीय निर्यात पर लगभग 25 प्रतिशत टैरिफ  लगता है। बातचीत में कोई प्रगति नहीं हो रही है। व्यापार वार्ताओं को तेज करना चाहिए, जिसमें बाजार तक पहुंच देने की सच्ची इच्छा होनी चाहिए  और इससे दोनों पक्षों के बीच विश्वास बहाल होगा। भारत को 15-19 सितम्बर को वाशिंगटन में होने वाले अगले उच्च-स्तरीय संवाद में शामिल करना चाहिए, जिसमें रक्षा प्रौद्योगिकी, इंडो-पैसिफिक रणनीति और कूटनीति में सहयोग पर ध्यान केंद्रित किया जाए।

यह एक प्रतिस्पर्धा नहीं है। यह एक सांझेदारी है। वर्तमान टैरिफ विवाद रणनीतिक सांझेदारी को खतरे में डाल रहा है। अमरीका और भारत को तुरंत इस संबंध को फिर से संतुलित, पुनस्र्थापित और बहाल करना चाहिए  ताकि वे उस वैश्विक स्थिरता को आकार देने के लिए मिलकर काम कर सकें जिसकी दुनिया को सख्त जरूरत है। अब समय आ गया है कि अमरीका अपने टैरिफ  युद्ध को खत्म करे और उस रणनीतिक सांझेदारी को बहाल करे जिसकी दोनों देशों को सख्त जरूरत है और जिससे पूरी दुनिया को लाभ होता है।-शशि थरूर
(कांग्रेस सांसद ,लोकसभा)


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