अल्लामा इकबाल के पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण ही थे

Thursday, Aug 17, 2017 - 12:03 AM (IST)

अल्लामा मोहम्मद इकबाल अपनी कश्मीरी वंशावली और कश्मीरी जड़ों पर बहुत गर्व करते थे। अधिकतर कश्मीरी मुस्लिमों की तरह उनके पूर्वज भी ब्राह्मण थे, जिनका गोत्र सप्रू था। हिन्दू धर्म से इस्लाम की ओर धर्मांतरण की प्रक्रिया कश्मीर में इकबाल के जन्म से लगभग 450 वर्ष पूर्व शुरू हो चुकी थी लेकिन इकबाल का परिवार काफी लम्बे समय तक शैव मत का अनुयायी बना रहा। 

यहां तक कि उनके पिता भी जन्म से हिन्दू थे और उनका नाम रतन लाल सप्रू था। उनका खानदान अपनी जड़ें बीरबल नामक किसी पूर्वज के साथ जोड़ता था। वे लोग शोपियां से कुलगाम जाने वाली सड़क पर स्थित स्प्रैण नामक गांव में रहते थे, इसी कारण उन्हें सप्रू कहा जाता था। बाद में यह परिवार श्रीनगर चला गया। बीरबल की एक बेटी और पांच बेटे थे। उनके तीसरे बेटे कन्हैया लाल की शादी इन्द्राणी से हुई थी और उनके 3 पुत्र और 5 बेटियां थीं। यह कन्हैया लाल ही इकबाल के दादा थे। उनके बेटे रतन लाल ने इस्लाम अपना लिया और अपना नाम नूर मोहम्मद रख लिया तथा एक मुस्लिम महिला इमाम बीबी से शादी रचा ली। लेकिन इस्लाम अपनाने के कारण पूरे सप्रू ब्राह्मण समुदाय ने रतन लाल के साथ अपने संबंध तोड़ लिए। 

वैसे इकबाल की कई कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद करने वाली साहिदा हमीद का मानना है कि रतन लाल वास्तव में कश्मीर के अफगान सूबेदार का अहलकार (टैक्स अधिकारी) था, जो पैसे की हेरा-फेरी करते पकड़ा गया था। इस पर सूबेदार ने दो विकल्प रखे- या तो इस्लाम अपना ले, नहीं तो फांसी पर लटकने को तैयार रहे। रतन लाल ने जिंदा रहने का रास्ता अपनाया और नूर मोहम्मद बन गया। जब कश्मीर पर महाराजा रणजीत सिंह ने विजय हासिल कर ली तो नूर मोहम्मद भाग कर स्यालकोट चला गया क्योंकि उसकी पत्नी का मायका वहीं था। यहीं 9 नवम्बर 1877 को इकबाल का जन्म हुआ। 

लेकिन इकबाल के हिन्दू दादा-दादी, चाचा-ताया और उनका परिवार कश्मीर में ही रहा। कई वर्षों बाद उनके दादा अमृतसर आ बसे और यहीं इकबाल की अपनी हिन्दू दादी के साथ मुलाकात हुई। लेकिन इकबाल ने इस बारे में कहीं उल्लेख नहीं किया। वैसे 1931 में स्यालकोट में ही उन्हें अपनी हिन्दू दादी और चचेरे भाई अमरनाथ सप्रू से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था जिसका चित्र अभी भी उपलब्ध है। जैसा कि अक्सर होता है कि धर्मांतरण करने वालों में पहली पीढ़ी मूल अनुयायियों से भी अधिक कट्टर होती है, इकबाल भी बड़े होकर श्रद्धावान मुस्लिम बन गए। बेशक उनके अनेक हिन्दू और सिख दोस्त व प्रशंसक थे तो भी उन्हें यही महसूस होता रहा कि भारतीय मुस्लिमों का भविष्य उनके अलग देश के रूप में सुरक्षित हो सकता है। पाकिस्तान की अवधारणा के मुख्य प्रतिपादक अल्लामा इकबाल ही थे। उनकी मातृभाषा बेशक पंजाबी थी लेकिन उन्होंने अपने पूर्ववर्ती अनेक कवियों की तरह केवल फारसी और उर्दू को ही अपनाया। 

इकबाल ने अपनी कश्मीरी ब्राह्मण जड़ों के बारे में अपनी कविताओं में बहुत गर्वपूर्ण उल्लेख किया है लेकिन उनका बेटा जावेद इकबाल इस विवरण को उस दृष्टि से नहीं देखता जिस दृष्टि से इकबाल ने इसे प्रस्तुत किया था। जावेद इकबाल तो यहां तक कहता है कि उनके पूर्वजों ने इकबाल के जन्म से 450 वर्ष पूर्व इस्लाम मजहब अपनाया था इसलिए उनके दादा के धर्मांतरण और पैसों की हेरा-फेरी के मामले में सभी कहानियां मनघड़ंत हैं। वैसे एक बात तो तय है कि इकबाल ने कश्मीरी पंडितों का मुक्त कंठ से गुणगान किया था तो भी एक भी कश्मीरी शायर या विद्वान ने उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त नहीं की थी। हालांकि कश्मीरी पंडित समुदाय में बहुत बड़े-बड़े विद्वान और कवि हुए हैं जो इकबाल की तरह ही फारसी और उर्दू में पारंगत थे लेकिन सभी ने इकबाल की अनदेखी की। 

सर तेज बहादुर सप्रू ही एकमात्र ऐसे कश्मीरी पंडित थे जिन्होंने इकबाल का खुला समर्थन करते हुए उन्हें महाकवि कालीदास से उपमा देते हुए कहा था कि वह किसी एक समुदाय के कवि नहीं हैं। वैसे तो पंडित नेहरू भी इकबाल के प्रशंसकों में से एक थे और उन्हें बहुत बड़ा कवि और दार्शनिक मानते थे लेकिन साथ ही उन्होंने इस तथ्य को भी रेखांकित किया था कि इकबाल पोंगापंथी सामंतवादी व्यवस्था के प्रति वफादारी रखते हैं। उल्लेखनीय है कि कश्मीरी ब्राह्मण समुदाय तब उनके और भी अधिक विरोध में डट गया जब उन्होंने महाराजा हरिसिंह के शासन का विरोध करते हुए कश्मीरी मुस्लिमों को भड़काना शुरू कर दिया, जबकि कश्मीरी पंडित ही महाराजा के सबसे बड़े समर्थक थे। पूरे ब्रिटिश भारत में सिवाय अल्लामा इकबाल के कश्मीरी मुस्लिमों की दुर्दशा पर कोई भी मुखर होकर नहीं बोलता था। 

एक बात तो तय है कि आज भी हिन्दू बहुल भारत और मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में इकबाल की शायरी के प्रति दीवानगी में कोई कमी नहीं आई है। जहां कश्मीरी मूल के अनेक मुस्लिम विद्वानों ने उनके जीवन और रचना पर अनेक किताबें लिखी हैं, वहीं कश्मीरी पंडित समुदाय के किसी भी लेखक ने उनका यशोगान नहीं किया, और न ही इकबाल के खानदान के किसी व्यक्ति ने उनके बारे में कभी चर्चा की है।
 

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