देश में न्यायपालिका सहित सभी संस्थान नैतिक प्रतिष्ठा खो चुके हैं

Sunday, Dec 24, 2017 - 03:28 AM (IST)

क्या किसी को बोफोर्स रिश्वत घोटाला याद है? नहीं भी याद तो कोई बात नहीं, बस इतना याद रखें कि एक शक्तिशाली इतालवी दलाल ओट्टावियो क्वात्रोच्चि दिल्ली में रहा करता था जो नेहरू-गांधी परिवार को अपने ‘करीबी पारिवारिक मित्र’ कहा करता था। जब ईमानदार दिखाई देते मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो उस समय तक पिछली कांग्रेस सरकारों द्वारा एक के बाद एक अंजाम दिए गए सौदों में खाई हुई दलाली के मामले में अनेक मुकद्दमे दायर थे। ऊपर से बोफोर्स का वावेला मच गया था। 

ऐसे में अपनी ईमानदार छवि को पुख्ता करने की ङ्क्षचता में मनमोहन सिंह ने चोरी-छिपे एक वरिष्ठ विधि अधिकारी भगवान दास दत्ता को लंदन भेजा, ताकि वह भारतीय करदाताओं से चुराए हुए लाखों-करोड़ों डालर्स को हाईप्रोफाइल नौसरबाज क्वात्रोच्चि की जेबों में ठूूंस आए। लेकिन क्वात्रोच्चि को हम छोड़ कर आगे की चर्चा करते हैं। हमें यह संज्ञान लेना होगा कि दो अलग-अलग मौकों पर दिल्ली हाईकोर्ट के दो अलग-अलग जजों ने स्वत: संज्ञान लेते हुए बोफोर्स मामले में एफ.आई.आर. खारिज कर दी थी। ऐसा करने के लिए दिवंगत न्यायमूर्ति एम.के. चावला को इस हद तक नाराजगी का पात्र बनना पड़ा कि सेवानिवृत्त होने वाले जजों को दी जाने वाली परम्परागत विदायगी से वकील समुदाय ने उन्हें इंकार कर दिया था। 

कई वर्ष बाद जज जे.डी. कपूर ने अपनी सेवानिवृत्ति से कुछ ही दिन पूर्व बोफोर्स मामले को लाल झंडी दिखा दी थी क्योंकि उन्हें इसमें कोई भी वजन दिखाई नहीं दिया था। उन्होंने तो यहां तक कह दिया था कि यह जांच और अभियोजन पर करदाताओं का पैसा बर्बाद करने की कवायद मात्र है। इस ‘उपकार’ के लिए रिटायरमैंट के कुछ ही दिन बाद कपूर दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के अंतर्गत एक बहुत ऊंचे वेतन वाली पदवी पर सुशोभित हो गए थे। न्यायमूर्ति कपूर के इस विवादित आदेश को ही उच्च अदालत में चुनौती देने में सी.बी.आई. विफल रही थी। 

अब हम सी.बी.आई. के विशेष जज ओ.पी. सैनी के 2जी घोटाले के संबंध में दिए गए फैसले की ओर लौटते हैं। सैनी ने अपना करियर दिल्ली पुलिस के सब इंस्पैक्टर के रूप में शुरू किया था। अब 60 वर्ष के करीब पहुंचे सैनी के दिमाग पर अवश्य ही शीघ्र होने जा रही रिटायरमैंट की चिंता छाई हुई होगी। पुलिस इंस्पैक्टर के रूप में उन्होंने जिस तरह की संस्कृति और मानसिकता हृदयंगम की थी उसने भी उन पर अपना अस्थायी प्रभाव छोड़ा लगता है। 2जी घोटाले को अंजाम देने वाले समस्त नौसरबाजों को उन्होंने सिरे से जिस तरह बरी किया है, उसके बावजूद यह घोटाला ही रहता है, समाप्त नहीं हो गया है-बिल्कुल उसी तरह जैसे कि आरुषि हत्याकांड में आरोपियों के बरी होने के बावजूद आरुषि वापस नहीं आ सकती। उसी मामले की तरह 2जी घोटाले का मामला भी न्यायपालिका को आहत किए बिना नहीं छोड़ेगा। 

मुझे इस संबंध में लेशमात्र भी आशंका नहीं कि 2जी घोटाले के आरोपियों को बरी करने के लिए जिन दलीलों को आधार बनाया गया है वे बहुत अधिक त्रुटिपूर्ण हैं। अदालत जब भी कुछ चुनिंदा रिश्वतदाताओं का पक्ष लेने की नीति को न्यायोचित नहीं ठहरा पाती तो इसके द्वारा अधिकारियों को दोष देना पूरी तरह अस्वीकार्य है। जिस प्रकार हम जस्टिस सैनी के आदेश के लिए अदालत के रजिस्ट्रार या स्टैनो को दोषी नहीं ठहरा सकते, बिल्कुल उसी तरह हम पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा द्वारा की गई धोखाधड़ी के लिए बेचारे अफसरों को दोषी नहीं ठहरा सकते। उल्लेखनीय है कि 2012 में 2जी के 122 लाइसैंस सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किए गए थे। फिर भी अनगिनत तथ्यों और साक्ष्यों के बावजूद अदालत को इसमें से किसी भ्रष्ट आचरण की बू न आना न्याय प्रक्रिया का मजाक उड़ाने के तुल्य है। 

ए. राजा के करीबी एक जाने-माने आरोपी और कलाइगनार टी.वी. के मालिक की कम्पनियों द्वारा 200 करोड़ रुपए की अघोषित आय जमा करवाने, आरोपियों व लाभाॢथयों में से एक शाहिद बलवा द्वारा बहुत घुमावदार बैंकिंग प्रक्रियाओं के माध्यम से रिश्वतों के हस्तांतरण के साक्ष्य उपलब्ध होने के स्थिति में क्या कोई व्यक्ति ईमानदारी से इस निष्कर्ष तक पहुंच सकता था कि ये अदायगियां उन लाइसैंसों के लिए की गई थीं जो ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की नौसरबाजी भरी प्रणाली के अंतर्गत जारी किए गए थे। यह पैसा राजा और उनके पार्टी नेताओं की झोली में आकाश से नहीं टपका था। 

इस बात के बहुत प्रचंड साक्ष्य मौजूद हैं लेकिन अदालत ने दोषियों को बरी करने के लिए इनकी अनदेखी की या फिर इनकी व्याख्या अलग ढंग से की। तथ्य यह है कि ‘पहले आओ पहले पाओ’ की नीति भी कुछ रिश्वतदाताओं को लाभ पहुंचाने के लिए मनमर्जी से बदली गई थी। यह भी तथ्य है कि दोषियों को कटघरे में खड़ा करने वाले प्रैस नोट की शब्दावली मंत्री ने दो विशेष कम्पनियों की तरफदारी करते हुए स्वयं बदली थी। स्वान और यूनिटेक कम्पनियों ने दोषियों को दंडित करने की बहुत दुहाई दी थी। मेरा मानना है कि जहां न्यायमूर्ति सैनी द्वारा सी.बी.आई. पर दोष लगाना कानून की भावना से खिलवाड़ है वहीं उनका फैसला खुद न्यायपालिका को भी कटघरे में खड़ा करता है। 

कुछ देर के लिए यह मान लें कि न्यायपालिका भी दूध की धुली नहीं है। 122 स्पैक्ट्रम लाइसैंस रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर प्रश्रचिन्ह लगाने के साथ न्यायमूर्ति सैनी का आदेश नौसरबाजों को निजी लाभ के लिए व्यवस्था से खिलवाड़ करने के लिए और भी दिलेरी प्रदान करेगा। तथ्य यह भी न्यायमूॢत सैनी के सामने था  कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पूरी तरह यह जानते थे कि घोटाला हो रहा है, फिर भी उन्होंने केवल अपने हाथ बेदाग रखने से अधिक कोई प्रयास नहीं किया लेकिन उन्होंने इस संबंध में पी.एम.ओ. द्वारा लिखे पत्र की व्याख्या अपने पूर्व निर्धारित निष्कर्षों के अनुसार ही की। 

यह भी एक तथ्य है कि न्यायमूर्ति सैनी ने इससे पहले पी. चिदम्बरम को 2008 में 2001 की कीमतों पर स्पैक्ट्रम की बिक्री करने के मामले में निर्दोष पाया था। इस फैसले से ही उनके ताजा फैसले का संकेत मिल गया था। बेशक चिदम्बरम ने निजी रूप में इस धोखाधड़ी में से लाभ न लिया हो तो भी राजा के कुकृत्यों का उनके द्वारा अनुमोदन किसी तरह न्यायोचित नहीं है। भले ही न्यायमूर्ति सैनी को उनके ताजा फैसले से कोई व्यक्तिगत लाभ न पहुंचता हो तो भी इसका अर्थ यह नहीं कि वह सही है। 

वीरवार का दिन हमारे राष्ट्र के संस्थापकों द्वारा बनाई गई संवैधानिक संरचना के लिए एक बहुत दुख भरा दिन था। न्यायपालिका सहित सभी संस्थान अपनी नैतिक प्रतिष्ठा खो चुके हैं जबकि व्यवस्था पर प्रहार करने वाले लोग दनदनाते घूम रहे हैं। नुक्सान केवल साधारण भारतीयों का हुआ है जो संस्थागत न्याय के प्रति श्रद्धाभाव रखते हैं। कोई भी संविधान के प्रति सच्चा नहीं रह गया और इस मामले में सबसे अधिक नुक्सान मनमोहन सिंह जैसे मंझे हुए राजनीतिज्ञों ने पहुंचाया है जो कांग्रेस के राज में जुंडलीदार पूंजीपतियों को भारत के प्राकृतिक संसाधनों की लूट की अनुमति देने के साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी का ढोल पीटते रहे हैं।-वीरेन्द्र कपूर

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