हर कीमत पर जीतने वाला ही ‘सिकंदर’!

Tuesday, Aug 22, 2017 - 01:08 AM (IST)

राजनीतिक विरोधी या जानी दुश्मन? आज राजनीतिक विरोधियों और कट्टर दुश्मनों के बीच की लाइन धुंधली पड़ गई है जिसके चलते राजनीति में हर कीमत पर जीतना एक नई नैतिकता बन गई है। चाहे इसके लिए लक्ष्मण रेखा ही पार क्यों न करनी पड़े। इस खेल में धन, बल, सस्ती हरकतों तथा छल-कपट आदि सभी का प्रयोग होता है और जो इसमें सफल रहता है वही विजयी होता है।

इस तथ्य को निर्वाचन आयुक्त ओ.पी. रावत ने तब रेखांकित किया जब उन्होंने इस बात पर दुख जताया कि ‘‘विधायकों की खरीदारी एक स्मार्ट राजनीतिक प्रबंधन कहा जाने लगा है। विधायकों को लुभाने के लिए धन-बल का रणनीतिक रूप से उपयोग किया जाता है। कुछ लोग धमकाने के लिए राज्य तंत्र का उपयोग करते हैं और ऐसे सभी लोगों को संसाधन सम्पन्न लोग कहा जाता है। विजेता कोई पाप नहीं कर सकता है। सत्ता पक्ष की ओर दल-बदल करने वाले विधायक के सारे पाप धुल जाते हैं।’’

निर्वाचन आयुक्त का यह आक्रोश गुजरात में राज्यसभा की सीटों के लिए हुए चुनाव के दौरान देखने को मिला, जहां भाजपा अध्यक्ष अमित शाह यह सुनिश्चित कर रहे थे कि सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल की हर कीमत पर हार हो। इन चुनावों में निर्वाचन आयोग को अनुछेद 324 के अंतर्गत राज्य निर्वाचन अधिकारी के निर्णय को पलटने के लिए अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग करना पड़ा और कांग्रेस के 2 बागी विधायकों के वोट को अवैध घोषित किया गया।

इसका कारण यह था कि दोनों विधायकों ने अपने मत पत्र को सार्वजनिक कर दिया था और इस प्रकार उन्होंने गोपनीयता के सिद्धान्त का उल्लंघन किया। इस सबकी शुरूआत तब हुई जब चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस के 6 विधायकों ने त्यागपत्र दिया और भाजपा में शामिल हो गए जिसके चलते पटेल के पास कांग्रेस के शेष 44 विधायकों को कर्नाटक में एक रिजॉर्ट में सुरक्षित रखने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा ताकि और कांग्रेसी विधायक त्यागपत्र न दें। जिस रिजॉर्ट में इन विधायकों को ठहराया गया था, उसके मालिक कर्नाटक के ऊर्जा मंत्री शिव कुमार के 60 परिसरों पर आयकर विभाग ने छापा डाला जिसके चलते कांग्रेस ने भाजपा पर सरकारी तंत्र का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया और निर्वाचन आयोग से संरक्षण मांगा।

इस घटनाक्रम पर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई क्योंकि हमारे राजनेता अपना गिरगिट का रंग दिखाने में माहिर हैं। भारत की राजगद्दी के लिए बोली बढऩे के साथ ही चुनाव बदला और व्यक्तिगत तथा पार्टी इ’जत को बचाने का साधन बन गया है। साथ ही हमारे नेता गठबंधन बनाने में भी माहिर हो गए हैं और वे गठबंधन को राजनीति के पावर ग्लास से देखते हैं क्योंकि राजनीति आज विचारधाराहीन तथा सत्ता हड़पने का साधन बन गई है, जिसमें अपने मित्रों के साथ नए समीकरण बनाए जाते हैं और दुश्मनों के साथ वार्ता की जाती है और जब आप एक बार अपने नेतागणों के मुखौटे को खींचने लगते हैं तो आपको नग्न स‘चाई का सामना करना पड़ता है।

प्रत्येक पार्टी और उसके नेता अपने दोस्तों और दुश्मनों के साथ व्यवहार की कला में सिद्धहस्त हो गए हैं और इस खेल में भारी धनराशि खर्च की जाती है। यही नहीं, सत्ता के लिए दोस्त और दुश्मन एक हो जाते हैं और विचारधारा या सिद्धान्तों की परवाह नहीं करते हैं।

बिहार को ही लीजिए। मुख्यमंत्री और जद (यू) अध्यक्ष नीतीश कुमार ने पिछले माह सत्तारूढ़ राजद-कांग्रेस महागठबंधन छोड़ दिया और सांप्रदायिक भाजपा में शामिल हो गए। प्रश्न यह उठता है कि जो व्यक्ति कल तक धर्मनिरपेक्ष था, आज अचानक सांप्रदायिक कैसे हो गया? यही स्थिति सांसदों और विधायकों की भी है। माफिया डॉन से राजनेता बने लोगों के बारे में कम ही कहा जाए तो अच्छा है। इन नेताओं को जीते हुए सांड की तरह प्रर्दिशत किया जाता है और अन्य विधायकों को चोर कहा जाता है, जो शासन करने के योग्य नहीं हैं। फलत: राज्य जातीय सेनाओं के संघर्ष का केन्द्र बन गया है।

इसीलिए आज राजनीतिक गुंडे समाज और राष्ट्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं। आज कोई भी पार्टी देश को विकास के मार्ग पर आगे ले जाने के लिए अपने दृष्टिकोण और योजनाओं की बातें नहीं करती है और न ही ये पार्टियां सही उम्मीदवारों के चयन की बातें करती हैं। ये पार्टियां आज सबसे बुरे सौदे से भी फायदा उठाना चाहती हैं जिसमें जाति, वर्ग, पंथ, अपराधी और सांप्रदायिक ये बातें तय करती हैं कि वोट किसे दिया जाएगा। जीतने की क्षमता सबसे महत्वपूर्ण बन गई है। सभी ताज प्राप्त करना चाहते हैं या किंग मेकर बनना चाहते हैं।

त्रासदी यह है कि विजेता के सब कुछ होने के इस खेल में राजनीति ने हमारी विधायिकाओं को हड़प लिया है और आज संसद तथा विधानसभाएं नए अखाड़े बन गए हैं जहां विधायक कागज, फाइल तथा माइक आदि एक-दूसरे पर फैंकते हैं, नारे लगाते हैं, स्पीकर के आसन तक पहुंचते हैं, माइक उखाड़ देते हैं तथा मार्शल बेचारे बनकर यह सब तमाशा देखते हैं। वे इस बात के मूकदर्शक बन जाते हैं कि हमारे नेता लोकतंत्र के इन मंदिरों का किस तरह अपमान करते हैं। इस गिरावट के लिए दोषी केवल हमारी पार्टियां हैं। वे छोटी-छोटी बातों पर व्हिप जारी कर देती हैं। वे निर्वाचन आयोग से अपने  विधायकों  के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग तो करती हैं किंतु ऐसा अनुशासन स्वयं पार्टी पर लागू नहीं करतीं।

एक समय था जब राजनेता अपनी विचारधारा और नीतियों को इस तरह प्रस्तुत करते थे कि वे देश के विकास में योगदान देते थे। आज चुनाव व्यक्तिगत तू-तू, मैं-मैं और चरित्रहनन का खेल बनकर रह गया है। चुनावों के दौरान हर राजनेता के अंदर का शैतान बाहर आ जाता है। राजनेताओं को लुभाने के लिए धन-बल का प्रयोग किया जाता है और जो थोड़ा-सा अडिय़ल नेता होता है उसके लिए बाहुबल का उपयोग किया जाता है। कुल मिलाकर आज स्थिति पैसा फैंक, तमाशा देख वाली बन गई है जिसके चलते आज लोकतंत्र का विचार ही विकृत हो गया है।

आम आदमी अपशब्दों, महिलाओं  के प्रति अभद्र शब्दों का उपयोग तथा सांप्रदायिक  घृणा वाले भाषणों को पसंद नहीं करता है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा घृणा भरे भाषणों पर रोक न लगाने के कारण निर्वाचन आयोग को आगे आना और कानूनी उपायों के साथ विधायकों को अयोग्य घोषित करना पड़ रहा है।

इस स्थिति का समाधान क्या है? हम अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते हैं और इसे यह कहकर नजरअंदाज नहीं कर सकते कि राजनीतिक कलियुग आ गया है। यह सच है कि हमारे राजनेताओं को व्यक्तिगत हमले तथा विभाजनकारी राजनीति नहीं करनी चाहिए। इसकी बजाय उन्हें एक-दूसरे का सामना मुद्दों पर करना चाहिए। उन्हें देश और जनता के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाना चाहिए।

जो नेता राजनीतिक चर्चा का स्तर गिराते हैं उन्हें इसका खमियाजा भुगतना चाहिए। आज भारत एक नैतिक चौराहे पर खड़ा है। विशेषकर इसलिए भी कि हमारे राजनेताओं में नैतिक गिरावट आ गई है और वे प्रलोभन के चलते अक्सर दल-बदल कर देते हैं। ऐसे नेताओं पर अंकुश लगना चाहिए। नेताओं की इस हरकत का परिणाम यह हो गया है कि हमारे देश में सांप्रदायिकता खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है किंतु हमारी पार्टियां और उनके नेता धर्मनिरपेक्ष बने हुए हैं।

हमारे राजनेताओं को इस राजनीतिक नौटंकी को छोडऩा होगा और इस बात को ध्यान में रखना होगा कि यदि वे किसी की ओर एक उंगली उठाएंगे तो उनकी ओर चार उंगलियां उठ सकती हैं। निर्वाचन आयोग ने भारत के राजनीतिक दलों की इस कमजोरी को उजागर कर दिया है। समय आ गया है कि हमारे राजनेता सार्वजनिक हित के नाम पर व्यक्तिगत नीचता का प्रदर्शन न करें। उन्हें अपनी प्राथमिकताओं पर पुनॢवचार करना चाहिए और विनाशकारी विवेकहीनता से बचना चाहिए क्योंकि एक पुरानी कहावत है कि किसी राष्ट्र को सबसे अधिक खमियाजा सस्ते राजनेताओं के कारण भुगतना पड़ता है। 
 

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