खतरे की घंटी : ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना

Tuesday, Feb 15, 2022 - 07:08 AM (IST)

दुनिया के खत्म होने पर कई फिल्में बन चुकी हैं। कुछ आपने भी देखी होंगी। पर्यावरण विशेषज्ञों ने भी इसके संकेत दे दिए हैं। यह सब इंसानों की गलती के कारण हो रहा है। जिस ग्लेशियर को बनने में 2000 साल लगे, वह 25 साल में ही पिघल गया। यह घटना कहीं और नहीं बल्कि दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत माऊंट एवरैस्ट पर हुई है। यही नहीं, माऊंट एवरैस्ट पर मौजूद सबसे ऊंचे ग्लेशियर की बर्फ हर साल बड़ी मात्रा में पिघल रही है। एक नई स्टडी में इसकी जानकारी दी गई है। 

हाल ही में नेपाल में स्थित इंटरनैशनल सैंटर फॉर इंटीग्रेटेड माऊंटेन डिवैल्पमैंट (आई.सी.आई. एम.ओ.डी.) ने प्रकाशित एक शोधपत्र के हवाले से कहा है कि एवरैस्ट पर 1990 के दशक से लगातार बड़ी मात्रा में बर्फ  पिघल रही है, जिस कारण वहां स्थित सबसे बड़ा ग्लेशियर इस शताब्दी के मध्य तक गायब हो सकता है, क्योंकि विश्व की सबसे ऊंची पर्वतीय चोटी पर स्थित 2000 साल पुराना हिमखंड तेजी से पिघल रहा है।

आई.सी.आई. एम.ओ.डी. ने कहा कि एवरैस्ट पर किए गए सबसे व्यापक वैज्ञानिक अध्ययन ‘द एवरैस्ट एक्सपेडिशन’ के तहत ग्लेशियरों पर गहन अनुसंधान किया गया है। नेचर पोर्टफोलियो में हाल में प्रकाशित एक आलेख में कहा गया है कि एवरैस्ट पर बर्फ बेहद तेजी से पिघल रही है। इस अनुसंधान में 8 देशों से वैज्ञानिकों ने भाग लिया। 

रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसा अनुमान लगाया गया है कि 8020 मीटर की ऊंचाई पर स्थित साऊथ कोल ग्लेशियर लगभग 2 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पिघल रहा है। ये नतीजे एक चेतावनी हैं, क्योंकि पृथ्वी के सबसे ऊंचे इलाके पर बर्फ का तेजी से पिघलना जलवायु परिवर्तन के कुछ सबसे खराब प्रभावों को सामने लाता है। इसकी वजह से हिमस्खलन बढ़ और पानी के स्रोत सूख सकते हैं। हिमालय पर्वत शृंखलाओं के जरिए मिलने वाले पानी पर लगभग 1.6 अरब लोग निर्भर हैं। इस पानी का इस्तेमाल पीने, सिंचाई और पनबिजली के लिए किया जाता है। साऊथ कोल ग्लेशियर पिघलने का मतलब यह है कि जितने दिनों में यहां पर बर्फ  बनी, उसकी तुलना में यह लगभग 80 गुना तेजी से पिघल गई। 

जहां दुनियाभर में ग्लेशियर के पिघलने पर व्यापक तौर पर अध्ययन किया जाता है, लेकिन पृथ्वी की सबसे ऊंची चोटी पर मौजूद ग्लेशियर पर बहुत ही कम ध्यान दिया गया। यदि धरती पर गर्मी इसी तरह दिनों-दिन बढ़ती रही तथा ग्लेशियर पिघलने के साथ ही टूटने जारी रहे तो इनका सीधा प्रभाव समुद्र का जलस्तर बढऩे एवं नदियों के अस्तित्व पर पडऩा निश्चित है। कई छोटे-छोटे द्वीप और समुद्र तटीय शहर जलमग्न हो जाएंगे। हालांकि वैज्ञानिक अभी भी यह तय नहीं कर पाए हैं कि इस तरह की घटनाओं को प्राकृतिक माना जाए या इसके लिए सिर्फ जलवायु परिवर्तन ही जिम्मेदार है। 

हजारों वर्षों से प्राकृतिक रूप से हिमखंड पिघल कर नदियों की जलधारा में मिलते रहे हैं। लेकिन वैश्वीकरण के बाद प्राकृतिक उपहारों के दोहन पर आधारित जो औद्योगिक विकास हुआ है, उससे निकलने वाली कार्बन ने इनके पिघलने की तीव्रता को और भी ज्यादा बढ़ा दिया है। गर्म हवा की वजह से हिमालय की जैव विविधता प्रभावित हुई है। जब-तब जंगल में लगने वाली आग और उससे निकलने वाला धुआं और कार्बन भी ग्लेशियरों को प्रभावित करते हैं। इस धुएं और कार्बन से ग्लेशियरों पर एक महीन काली परत नजर आने लगी है।

हिमालय से 100 से ज्यादा छोटी-बड़ी नदियां निकलती हैं। ग्लेशियर जब पिघलते हैं तो इस पर चढ़ा कार्बन पानी के साथ बह कर लोगों तक पहुंच जाता है जो मानव सेहत के लिए खतरनाक साबित होता है। भारत में हिमालय से कुल 9975 हिमखंड हैं। बात की जाए उत्तराखंड की तो इसके क्षेत्र में 900 हिमखंड आते हैं। बताया जाता है कि इन हिमखंडों से ही अधिकतर नदियां निकलती हैं, जो देश की 40 प्रतिशत आबादी को सिंचाई, पेयजल व रोजगार के कई संसाधन उपलब्ध कराती हैं। 

पूरी दुनिया में ग्लेशियरों के पिघलने की घटनाओं पर व्यापक शोध एवं अनुसंधान हो रहे हैं, लेकिन भारतीय ग्लेशियरों के पिघलने की स्थितियों पर न अध्ययन हो रहा है, न ही ऐसी स्थिति को नियंत्रित करने के कोई उपाय होते दिखाई दे रहे हैं। इन गंभीर होती स्थितियों पर काम करने वाले कुछ पर्यावरण संरक्षकों ने देश के लिए ग्लोबल वाॄमग के खतरों के संकेत देने शुरू कर दिए हैं। साथ ही यह सवाल भी खड़ा किया है कि भारत इसका मुकाबला कैसे करेगा। हमें हिमखंडों को टूटने या पिघलने से बचाने के लिए दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही औद्योगिक गतिविधियों को भी कुछ समय के लिए विराम देना चाहिए। 

हिमखंडों के टूटने की घटनाओं को इतना सामान्य लेना आने वाले समय में और भी ज्यादा गंभीर परिणामों का कारण बन सकता है। पहाड़ों को तोड़-तोड़कर बांध तथा सड़कों के चौड़ीकरण की बढ़ती प्रक्रिया को संतुलित होकर अंजाम देना जरूरी है वरना हिमखंडों तथा पहाड़ों का सब्र ऐसे ही टूट-टूटकर अप्रिय घटनाओं को अंजाम देता रहेगा। यह सही है कि ग्लोबल वार्मिंग को रोकना तो सीधे तौर पर हमारे बस में नहीं है, लेकिन हम ग्लेशियर क्षेत्र में तेजी से बढ़ती मानवीय गतिविधियों को रोक कर ग्लेशियरों पर बढ़ते प्रदूषण के प्रभाव को कम कर सकते हैं। 

इस क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों को पूरी तरह प्रतिबंधित करने के अलावा कई ऐसी तकनीकें हैं, जिनसे ग्लेशियर और बर्फ को लंबे समय तक बचाए रखा जा सकता है। अब इन पुराने उपायों को फिर से अपनाने की जरूरत है, साथ ही नवीन तकनीक विकसित किए जाने की जरूरत है, ताकि इस बड़े संकट से बचा जा सके, मनुष्य जीवन पर मंडरा रहे खतरों को नियंत्रित किया जा सके।-दवेंद्रराज सुथार

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