भ्रष्टाचार विरुद्ध न ‘जे.पी. आंदोलन’ कुछ कर पाया, न ही ‘अन्ना आंदोलन’

punjabkesari.in Thursday, Oct 12, 2017 - 05:55 PM (IST)

वी. आई.पी. कल्चर खत्म करने के उद्देश्य से जब प्रधानमंत्री मोदी द्वारा मई 2017 में वाहनों पर से लालबत्ती हटाने संबंधी आदेश जारी किया गया तो सभी ने उनके इस कदम का स्वागत किया था लेकिन एक प्रश्र रह-रह कर देश के हर नागरिक के मन में उठ रहा था कि क्या हमारे देश के नेताओं और सरकारी विभागों में एक लालबत्ती ही है जो उन्हें ‘अतिविशिष्ट’ होने का दर्जा या एहसास देती है? 

हाल ही में रेल मंत्री पीयूष गोयल ने अपने अभूतपूर्व फैसले से 36 साल पुराने प्रोटोकोल को खत्म करके रेलवे में मौजूद वी.आई.पी. कल्चर पर गहरा प्रहार किया। 1981 के इस सर्कुलर को अपने नए आदेश में तत्काल प्रभाव से जब उन्होंने रद्द किया तो लोगों का अंदेशा सही साबित हुआ कि इस वी.आई.पी. कल्चर की जड़़ें बहुत गहरी हैं और इस दिशा में अभी काफी काम शेष है। मंत्रालय के नए आदेशों के अनुसार किसी भी अधिकारी को अब कभी गुलदस्ता और उपहार भेंट नहीं किए जाएंगे। इसके साथ ही रेल मंत्री पीयूष गोयल ने वरिष्ठ अधिकारियों से एग्जीक्यूटिव श्रेणी के बजाय स्लीपर और ए.सी. थ्री टायर श्रेणी के डिब्बों में यात्रा करने को कहा है। 

रेलवे में मौजूद वी.आई.पी. कल्चर यहीं पर खत्म हो जाता तो भी ठीक था लेकिन इस अतिविशिष्ट संस्कृति की जड़ें तो और भी गहरी थीं। सरकारी वेतन प्राप्त रेलवे की नौकरी पर लगे कर्मचारी रेलवे ट्रैक के बजाय बड़े-बड़े अधिकारियों के बंगलों पर अपनी ड्यूटी दे रहे थे। लेकिन अब रेल मंत्री के ताजा आदेश से सभी आला अधिकारियों को अपने घरों में घरेलू कर्मचारियों के रूप में लगे रेलवे के समस्त स्टाफ को मुक्त करना होगा। जानकारी के अनुसार वरिष्ठ अधिकारियों के घर पर करीब 30 हजार ट्रैकमैन काम करते हैं, उन्हें अब रेलवे के काम पर वापस लौटने के लिए कहा गया है। पिछले 1 माह में तकरीबन 6 से 7 हजार कर्मचारी काम पर लौट आए हैं और शीघ्र ही शेष सभी के भी ट्रैक पर अपने काम पर लौट आने की उम्मीद है। 

क्या अभी भी हमें लगता है कि रेलवे में स्टाफ की कमी है? क्या हम अभी भी ट्रैक मैंटीनैंस के अभाव में होने वाले रेल हादसों की वजह जानना चाहते हैं? क्या इन अधिकारियों का यह आचरण ‘सरकारी काम में बाधा’ की श्रेणी में नहीं आता? भारत की नौकरशाही को ब्रिटिश शासन के समय में स्थापित किया गया था, जो उस वक्त विश्व की सबसे विशाल एवं सशक्त नौकरशाही थी। स्वतंत्र भारत की नौकरशाही का उद्देश्य देश की प्रगति, जनकल्याण, सामाजिक सुरक्षा, कानून व्यवस्था का पालन एवं सरकारी नीतियों का लाभ आमजन तक पहुंचाना था लेकिन 70-80 के दशक तक आते-आते भारतीय नौकरशाही दुनिया की ‘भ्रष्टतम’ में गिनी जाने लगी। न जयप्रकाश आंदोलन कुछ कर पाया, न ही अन्ना आंदोलन। 

और आज की सबसे कड़वी सच्चाई यह है कि जो लोग देश में नौकरियों की कमी का रोना रो रहे हैं वे सरकारी नौकरियों की कमी को रो रहे हैं क्योंकि प्राइवेट सैक्टर में तो कभी भी नौकरियों की कमी नहीं रही लेकिन इन्हें वह नौकरी नहीं चाहिए जिसमें काम करने पर तनख्वाह मिले, इन्हें तो वह नौकरी चाहिए जिसमें हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा। कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे समाज के नैतिक मूल्य इतने गिर गए हैं कि आज लोग अपने बच्चों को नौकरशाह बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं देश की सेवा अथवा उसकी प्रगति में अपना योगदान देने के लिए नहीं बल्कि अच्छी-खासी तनख्वाह के अलावा मिलने वाली मुफ्त सरकारी सुविधाओं के बावजूद किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी और जवाबदेही न होने के कारण।
 


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