आखिर हमसे गलती कहां हुई?

Wednesday, Mar 07, 2018 - 01:43 AM (IST)

मेरे मन में हर दम यह सवाल आता था कि हमने कहां गलती की। सैकुलर संविधान को अक्षरश: अपनाने के बाद हम ऐसी भूमि में भटकते रहे जिसमें पत्थर का हर टुकड़ा विविधता के रास्ते में बाधा है। 

भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 14-15 अगस्त, 1947 की रात संसद को संबोधित करते हुए कहा था, ‘‘भविष्य इशारा कर रहा है... हमें आगे कठिन परिश्रम करना है। हम में से हरेक को तब तक आराम नहीं करना है जब तक हम अपनी प्रतिज्ञा सम्पूर्ण रूप से पूरी नहीं कर लेते, जब तक हम भारत के सभी लोगों को वैसा नहीं बना देते जैसा नियति उन्हेें बनाना चाहती है। हम एक ऐसे महान देश के नागरिक हैं जो एक साहसिक अभियान पर जाने वाला है और हमें उस ऊंचे स्तर के हिसाब से काम करना है। हम में से हर आदमी, जिस किसी भी धर्म का हो, समान रूप से भारत की संतान है और उसे बराबर अधिकार, सुविधा है और उसकी बराबर की जिम्मेदारी है। 

हम साम्प्रदायिकता या संकीर्ण मानसिकता को बढ़ावा नहीं दे सकते क्योंकि कोई भी राष्ट्र महान नहीं बन सकता अगर उसके लोग सोच या काम में संकीर्ण हों।’’ नेहरू का यह भाषण ‘नियति से मुलाकात’ के रूप में लोकप्रिय हुआ। नेहरू के बाद भाषण करने वाले मुसलमान नेता इतने भावुक हो गए थे कि उन्होंने तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल के नौकरियों तथा शिक्षण संस्थानों में आरक्षण, जैसी चर्चा जो संविधान सभा में की गई थी, की पेशकश को ठुकरा दिया। मुस्लिम नेताओं ने दोनों सदनों में कहा कि उन्हें कुछ भी अलग या विशेष नहीं चाहिए। उन्होंने इस पर खेद जाहिर किया कि वे गुमराह हो गए और उन्होंने अनजाने में ही विभाजन के बीज बो दिए। कहा जाता है कि कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमानों के लिए ज्यादा से ज्यादा सहूलियतें चाहते थे, अलगाव नहीं। लेकिन इसी मेंं कहीं से पाकिस्तान की मांग उठाए जाने लगी। मुसलमान इसमें बह गए। 

लार्ड माऊंटबेटन, जिनका मैंने लंदन के समीप ब्रॉडलैंंड्स के उनके आवास में एक लंबा इंटरव्यू किया था, ने मुझे बताया कि तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लेमैंट एटली ने उनसे भारत और पाकिस्तान के बीच कुछ सांझा रखने की संभावना तलाशने की बात कही थी लेकिन इस सुझाव को जिन्ना ने साफ तौर पर खारिज कर दिया। जिन्ना ने कहा कि वह कांग्रेस नेताओं पर भरोसा नहीं करते हैं क्योंंकि कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार करने के बाद वे राज्यों के समूह वाली उस व्यवस्था पर चले गए, जिसका हिस्सा हिन्दू बहुल असम था। बाद में वे योजना को स्वीकार करने को आए लेकिन जिन्ना का भरोसा खत्म हो चुका था। 

प्रैस गैलरी में बैठा मैं उन भाग्यशाली लोगों में से था जो उस समय संसद में मौजूद थे और नेहरू का ‘नियति से मुलाकात’ भाषण सुन रहे थे। यह 70 साल पहले की बात है। आज जब कट्टरपंथी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) देश के प्रमुख राज्यों और 2019 में हो रहे लोकसभा चुनावों में ‘हिन्दू वोटों’ को इकट्ठा करने की कोशिश कर रहा है तो मैं अपने से पूछता हूं, हमसे कहां गलती हुई? आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत ने देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्यों बिहार और उत्तर प्रदेश में करीब एक पखवाड़ा बिताया और दौरे किए। दोनों ही राज्यों में जातियों के बीच खाई गहरी है और जाति तथा धर्म का गणित उम्मीदवारों का भाग्य तय करता है। दूसरे शब्दों में, केन्द्र का राजनीतिक परिणाम इन 2 राज्यों के विशाल हिन्दू वोटों पर निर्भर है। 

हाल ही में एक भारी भीड़ को संबोधित करते समय आर.एस.एस. प्रमुख एकदम स्पष्ट थे, जब उन्होंने हिन्दुओं से जाति के मतभेदों को मिटाने का आह्वान किया। उनकी टिप्पणी तीखी और राजनीतिक थी, ‘‘हिन्दुओं को एक होना चाहिए। जाति को लेकर समाज में विभाजन तथा इन मुद्दों पर हिंसा एकता के लिए सबसे बड़ी बाधा है और कुछ ताकतें हैं जो इसका लाभ उठाती हैं।’’ अपने भाषण के दौरान भागवत ने किसानों, छोटे और मध्यम उद्योगों को प्रभावित करने वाली केन्द्र सरकार की हाल की आॢथक नीतियों से हो रहे नुक्सान को रोकने की कोशिश की जो भाजपा के नेतृत्व वाले एन.डी.ए. के खिलाफ जा रहा है। हालांकि यह कह कर कि आर.एस.एस. प्रमुख का उद्देश्य संगठन के पदाधिकारियों से मिलना था, आर.एस. एस. प्रवक्ता ने मजबूती दिखाने की कोशिश की। कहा जाता है कि यह वोटरों को मनाने के लिए था क्योंकि संघ परिवार को चिंता है कि जातियों की गुटबंदी केन्द्र में भाजपा के आने की उम्मीदों पर पानी फेर सकती है। 

दलित-मुसलमान गठजोड़ को लेकर इसकी गहरी चिंता को समझा जा सकता है क्योंकि यह एक मजबूत विरोध तैयार कर सकता है जो भाजपा को मंच के पीछे भेज सकता है, इसलिए आर.एस.एस. को आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों, खासकर कुर्मी तथा कोइरी, जो इसे वोट नहीं देते, से संबंध जोड़ते तथा उन तक पहुंचते देखा जा रहा है। ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने साथ लाने के लिए हर गांव में आर.एस.एस. की उपस्थिति की योजना के अलावा भागवत की बिहार तथा उत्तर प्रदेश की यात्राओं का उद्देश्य भाजपा को केन्द्र में दोबारा वापस लाने के लिए समर्थन जुटाना था। हिन्दुओं का समर्थन हासिल करने की आर.एस.एस. की लगातार कोशिश भाजपा की पकड़ बनाए रखने के लिए है। 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भूमिका निंदनीय है। अपनी सरकार बचाने के लिए उन्होंने विभाजनकारी शक्तियों से समझौता कर लिया जिसके खिलाफ वह उम्र भर लड़ते रहे। उन्होंने भाजपा को साथ लाने के अपने कदम को उचित ठहराने की कोशिश की है लेकिन यह एक तमाशा दिखाई देता है। एक आदमी, जिसकी स्पष्ट सैकुलर पहचान की प्रशंसा वामपंथी तक करते थे, ने सत्ता में बने रहने के लिए अपने विचारों से समझौता कर लिया। 

वास्तविकता यही है कि सैकुलर ताकतें हिन्दुत्व के उफान को रोकने में सक्षम साबित नहीं हुईं। कांग्रेस इतनी कमजोर है कि वह लोगों को भारत की सोच, एक सैकुलर और लोकतांत्रिक देश के प्रति फिर से समर्पित करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकती है। प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी के कारण भाजपा अपराजेय मालूम होती है क्योंकि मोदी का जादू अभी भी कम नहीं हुआ है। शायद 2019 का चुनाव उनके पक्ष में जाएगा। मैं सिर्फ यही उम्मीद और प्रार्थना करता हूं कि राष्ट्र सैकुलरिज्म की राह पर फिर से वापस आ जाएगा।-कुलदीप नैय्यर

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