‘विमुद्रीकरण’ के 6 महीने बाद सफलता का आकलन है आवश्यक

Sunday, May 28, 2017 - 11:14 PM (IST)

गत वर्ष 8 नवम्बर की आधी रात से विमुद्रीकरण के तहत रु. 500 व 1000 के नोट अमान्य हो गए। नि:संदेह यह सरकार का एक ऐतिहासिक, साहसिक व महत्वपूर्ण कदम रहा। सरकार व गैर सत्ताधारी राजनीतिक दलों ने इस विषय में पक्ष-विपक्ष में बड़े-बड़े दावे किए। सत्ता पक्ष का मत था कि इससे कालाधन, जाली मुद्रा व आतंकवादी गतिविधियों पर लगाम लगेगी। गैर सत्ताधारी दलों ने सरकार के दावों को खारिज कर इसे लूट व ड्रामा की संज्ञा दी, व आम जनता के लिए कष्टकर बताया। 

अब 6 महीने बीत जाने पर इसकी सफलता का आकलन करना आवश्यक है। ध्यान रहे कि किसी भी प्रणाली/उपाय में शत-प्रतिशत सफलता कभी नहीं मिलती। वैज्ञानिक आधार पर शत-प्रतिशत दक्षता ‘कार्नाट साइकिल’ (ऊष्मा को यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित करने का आदर्श सिद्धांत) से भी नहीं प्राप्त होती परन्तु यथोचित सफलता न मिलने पर सम्पूर्ण प्रकरण का वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण करना आवश्यक है। गहराई से विचार करें, तो विमुद्रीकरण नागरिकों के पास नकदी व बैंक बैलेंस का एक कैलीब्रेशन (मापांकन) कहा जा सकता है जिसमें सभी ने 30 दिसम्बर 2016 तक अपनी अधिकांश धनराशि की औपचारिक घोषणा कर दी। अर्थात इस तिथि के बाद किसी भी नागरिक द्वारा लेन-देन व क्रय-विक्रय उसके द्वारा घोषित कुल धनराशि व तदोपरान्त अर्जित अतिरिक्त धनराशि के अनुरूप होनी चाहिए। 

विमुद्रीकरण के समय देश में रु. 15.44 लाख करोड़ की मुद्रा रु. 500 व 1000 के नोटों के रूप में प्रचलित थी। इसमें लगभग एक तिहाई कालाधन होने का अनुमान था। इस प्रकार बैंकों में मात्र दो-तिहाई रकम (लगभग रु.10 लाख करोड़) ही जमा होनी चाहिए थी। प्रारम्भिक 15-20 दिनों में बैंकों में जमा हुए पुराने नोटों के रुझान से ऐसा ही प्रतीत हो रहा था परन्तु जैसे-जैसे राजनीतिक दलों व मीडिया के दबाव में बैंकों से नकदी-निकासी के नियमों में ढील दी जाती रही, ज्यादा से ज्यादा पुराने नोट जमा होते गए। यदि रु. 10 लाख करोड़ धनराशि ही बैंकों में जमा होती, तो विमुद्रीकरण को कालेधन पर लगाम लगाने में शत-प्रतिशत सफल माना जा सकता था, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। यद्यपि पुराने नोटों के रूप में जमा की गई कुल धनराशि अभी तक मीडिया में प्रकाशित नहीं हुई, पर प्रतीत होता है कि अधिकांश धनराशि जमा हो गई है। 

यद्यपि अधिकांश धनराशि जमा हो गई है तथापि विमुद्रीकरण को पूर्णरुपेण असफल भी नहीं कहा जा सकता। आम आदमी के पुराने नोट तो आसानी से जमा हो गए, परन्तु कालेधन, कुबेरों ने विभिन्न अवैध तरीकों से इस काम को अंजाम दिया। कुछ ने अस्पताल, पैट्रोल पंप, अनाज मंडी, मंदिरों आदि के माध्यम से कमीशन देकर नोट-बदली कर ली व कुछ ने तो अन्य इनसे भी ज्यादा क्षमता वाले मार्ग तलाश कर लिए। विचारणीय है कि जिस प्रकार पानी के बहाव में, लीकेज, सीपेज व (सदुपयोग हेतु) दोहन होता है, उसी प्रकार (मीडिया-रिपोटर््स के अनुसार) कालेधन की नोट-बदली में भी 10-30 प्रतिशत तक कमीशनखोरी हुई। 

अर्थात विमुद्रीकरण में कालेधन का पुनर्वितरण हो गया। अनेक बड़े-बड़े कारोबारियों ने दशकों से बैंकों में लंबित कर्जे अदा कर दिए। जाली मुद्रा की समस्याएं प्रकाश में तो आती रहीं परन्तु अधिक सुरक्षा, विशेषताएं होने के कारण शीघ्र ही नियंत्रण पा लिया गया। मुद्रा की अनुपलब्धता के कारण अस्थायी रूप से आतंकवादी गतिविधियों पर नियंत्रण दिखाई दिया। बहुत से नए लोग बैंकिंग प्रणाली से जुड़े व कैशलैस लेन-देन प्रणाली विकसित, प्रचलित व लोकप्रिय हुई। यह सब सफलता की आंशिक झलक प्रदर्शित करता है। जो कालाधन विभिन्न माध्यमों से होता हुआ रिजर्व बैंक पहुंच गया, सरकारी तंत्र उस पर शिकंजा कसने का प्रयास कर रहा है। आंशिक सफलता मिली भी है परन्तु यह अत्यंत सीमित है। 

विमुद्रीकरण के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि मात्र सरकारी कर्मचारी ही नहीं, अधिकांश समाज भ्रष्ट है। दिहाड़ी मजदूर से लेकर रिजर्व बैंक कर्मचारियों तक, जिसे भी अवसर मिला उसने हाथ साफ  कर लिया। गैर-सत्ताधारी दलों के नेता सत्ताधारी दल के नेताओं पर कालाधन सफेद करने का आरोप लगाता रहे, परन्तु किसी के विरुद्ध न तो जांच की मांग की और न ही आपराधिक मुकद्दमे दर्ज किए। कुछ एक को छोड़कर कोई वी.आई.पी. बैंक में नकदी निकासी या जमा करने के लिए नहीं पहुंचा, फिर भी सभी की पुरानी मुद्रा, नई मुद्रा में बदल गई। यह आश्चर्यजनक तथ्य प्रकट होना भी विमुद्रीकरण का परिणाम है। 

विमुद्रीकरण व कठोर कानूनों के बावजूद कालेधन के पुन: उत्पादन पर अपेक्षित नियंत्रण नहीं दिखाई पड़ता। रु. 500 व 2000 के नोटों के रूप में नई मुद्रा प्रचलित हो जाने पर कैशलैस लेन-देन पुन: कम हो गया। बड़े शहरों को छोड़कर लगभग सभी जगह प्राय: सभी छोटे व मध्यम स्तर के अस्पताल ग्राहकों को नकद भुगतान के लिए बाध्य कर रहे हैं। यही हाल पैट्रोल पंपों का है। रियल एस्टेट कारोबारी भी कुल कीमत में एक बड़ी रकम नकद मांग रहे हैं। यह स्थिति कैशलैस लेन-देन अपनाने वाले ईमानदार ग्राहकों के लिए परेशानी का कारण बन रही है। विमुद्रीकरण से अपेक्षित सफलता नहीं मिली। इसके कारणों पर विचार करना आवश्यक है। यहां 3 मुद्दे महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। 

पुराने नोट जमा करने की समयावधि 10 नवम्बर से 30 दिसम्बर (50 दिन) आवश्यकता से बहुत अधिक थी। जिसके कारण राजनीतिक विरोधियों व मीडिया को सरकार पर दबाव बनाने व कालेधन-कुबेरों को अवैध तरीके अपनाने का अवसर मिल गया। प्रति सप्ताह रु. 24000 (प्रति पैन-धारक लगभग 1 लाख रुपया प्रतिमाह) तक निकासी भी आवश्यकता से बहुत अधिक मानी जाएगी। इसी कारण नकदी की मांग का दबाव बढ़ गया, आपूर्ति कठिन हो गई व सरकार को ज्यादा नकदी छापनी पड़ी। रु. 2000 व 500 मूल्य के नए नोटों का प्रचलन  जोकि भारी रकम को नकदी के रूप में भंडारण के लिए बहुत सुविधाजनक है। यदि यह बड़े मूल्य के नोट न छपते तो नोट बदलीकर छोटे मूल्य के नोटों के रूप में कालेधन का भंडारण कठिन होता। 

नकदी का प्रचलन सामान्य होने से भ्रष्टाचार भी पुन: सामान्य होता जा रहा है। कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा बैंक लूटने की घटनाएं प्रकाश में आई हैं व आतंकवादी घटनाएं पुन: बढ़ गई हैं। इन सभी समस्याओं पर नियंत्रण पुन: विमुद्रीकरण व कैशलैस लेन-देन अपनाकर किया जा सकता है। आवश्यकता है (क) बड़े मूल्य (रु. 500 व 2000) के नोटों का पुन: विमुद्रीकरण हो, व फुटकर खर्चे के लिए छोटे मूल्य (रु. 10, 20 व 50) के नोटों की अधिक उपलब्धता हो, (ख) कैशलैस लेन-देन आकर्षक बनाया जाए व इसकी स्वीकार्यता सुनिश्चित की जाए (ग) नकदी-भंडारण की सीमा सुनिश्चित की जाए आधुनिक डिजीटल युग में प्रति पैन धारक रु. 50,000 नकदी बहुत है। 

किसी भी सरकार के लिए यह सब करना आसान नहीं है। यह कटु सत्य है कि गैर-सत्ताधारी दलों का विरोध व मीडिया का दबाव तो झेलना पड़ ही सकता है, सत्तापक्ष के भी कुछ नेता शायद इसे पसन्द न करें। स्मरणीय है अच्छे को बुरा साबित करना दुनिया की पुरानी आदत है। नि:संदेह यह करना सरकार के लिए तलवार की धार पर चलने के समान होगा, परन्तु भ्रष्टाचार, कालाधन, गैरकानूनी गतिविधियां व आतंकवाद आदि पर नियंत्रण पाने का यह प्रभावी उपाय हो सकता है।  

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