अफगानिस्तान : पाक-अमरीका में कूटनीतिक ढोंग का खेल

punjabkesari.in Tuesday, Aug 10, 2021 - 04:27 AM (IST)

इतिहास के खिलाफ एक जुआ खेलने की उम्मीद में, अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और उनकी टीम भरोसा कर रहे हैं कि पुनरुत्थानशील तालिबान अफगानिस्तान में एक शांति समझौते के लिए सहमत होगा और आतंकवादी समूह का लंबे समय से प्रायोजक पाकिस्तान उस पर अफगान सरकार के साथ सत्ता सांझी करने के लिए दबाव डालेगा। 

लेकिन कई विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी उम्मीदें भ्रमपूर्ण हैं और अंत में इतिहास के दोहराए जाने की आशंका है : पाकिस्तान और तालिबान नेतृत्व, जिसका मु यालय अभी भी पाकिस्तान में है, युद्ध के मैदान के साथ-साथ बातचीत की मेज पर भी एक-दूसरे की पीठ थपथपाते रहेंगे। संक्षेप में, पाकिस्तान चाहता है कि तालिबान जीत जाए या कम से कम ऐसा होने से रोकने के लिए कुछ करने को तैयार नहीं है।

ब्रूस रिडेल, जिन्होंने चार अमरीकी राष्ट्रपतियों के लिए दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व में एक वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्य किया, ने कहा, ‘‘पाकिस्तानी साजो-सामान के समर्थन के बिना, तालिबान बड़े पैमाने पर राष्ट्रव्यापी हमले नहीं कर सकता था। आई.एस.आई. (पाकिस्तान की शक्तिशाली खुफिया सेवा) पहले खुश है कि उसने अफगानिस्तान से सभी विदेशी सैनिकों को निकाल दिया है। अब लक्ष्य अफगान सरकार और सेना में दहशत फैलाना है।’’ 

बाइडेन टीम का तर्क यह है कि अफगानिस्तान से अमरीका की वापसी के साथ, न तो तालिबान और न ही इस्लामाबाद उस खूनी इतिहास को दोहराने की इच्छा रखते हैं, जिसके कारण 9/11 हुआ। अमरीका के प्रमुख वार्ताकार खलीलजाद ने गत दिवस एस्पेन सिक्योरिटी फोरम में कहा, ‘‘तालिबान ने कहा कि वे एक खारिज राज्य नहीं बनना चाहते, वे पहचाना जाना, सहायता प्राप्त करना चाहते हैं।’’ लेकिन यह अलंकारिक संयम जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाता। 2020 में अमरीकियों के साथ शांति वार्ता शुरू होने के बाद से खुद को विश्व मंच पर राजनयिक के रूप में पेश करने के बावजूद, तालिबान ने अपनी अतीत की क्रूर प्रथाएं फिर से शुरू कर दी हैं क्योंकि वे कंधार (काबुल के बाद अफगानिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा शहर), लश्करगाह और हेरात जैसे प्रमुख अफगान शहरों में चले गए हैं। 

इस हफ्ते, अमरीकी सरकार ने भी उस वास्तविकता को स्वीकार किया। काबुल में अमरीकी दूतावास ने गत सोमवार ट्वीट किया, ‘‘कंधार के स्पिन बोल्डक में तालिबान ने बदला लेने के लिए दर्जनों नागरिकों की हत्या की। ये हत्याएं युद्ध अपराध बन सकती हैं; उनकी जांच होनी चाहिए और उन तालिबान लड़ाकों या कमांडरों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।’’ 

पिछले एक दशक में पाकिस्तान ने तालिबान का समर्थन किया, यहां तक कि काबुल में निर्वाचित अफगान सरकार का समर्थन करने वाले यू.एस. के नेतृत्व वाले 46-राष्ट्र गठबंधन के सामने भी। अमरीकी सेना और नाटो के जाने और अफगान सरकार पर हमले और विश्वसनीयता तेजी से खोने के साथ अब उस नीति में बदलाव की संभावना कम है और राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अंतर्गत एक शत्रुतापूर्ण, आक्रामक भारत का सामना करते हुए, पाकिस्तान अफगानिस्तान में इस्लामी विद्रोहियों का समर्थन करने के लिए पहले से कहीं अधिक प्रेरित है, जो इस क्षेत्र में नई दिल्ली के प्रभाव को संतुलित करने की कोशिश कर रहा है। इस्लामाबाद को डर है कि भारत और पश्चिम के साथ गठबंधन करने वाली एक मजबूत अफगान सरकार पाकिस्तान को घेर सकती है। 

शांति वार्ता किसी ओर नहीं जा रही क्योंकि न तो तालिबान और न ही अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी एक-दूसरे के साथ बातचीत करने को तैयार हैं, प्रत्येक पक्ष वैध शासकों के रूप में वैधता का दावा करता है। इनके बीच में पाकिस्तान बैठता है, जिसका तालिबान पर अभी भी महत्वपूर्ण प्रभाव है क्योंकि यह समूह के कई नेताओं और उनके परिवारों को पनाह देता है। गत सप्ताह वाशिंगटन में आयोजित कई वार्ताओं में, पाकिस्तानी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ ने जोर देकर कहा, ‘‘हम अफगानिस्तान के एक जबरन अधिग्रहण को स्वीकार नहीं करेंगे।’’ 

फिर भी, लंबे समय से पर्यवेक्षकों का कहना है कि तालिबान का इरादा यही है और इस्लामाबाद के उनके रास्ते में खड़े होने की संभावना नहीं है। अफगानिस्तान में अमरीका के पूर्व राजदूत रेयान क्रोकर ने कहा, ‘‘यह सोचना मूर्खतापूर्ण है कि यह 2001 की तुलना में किसी तरह एक नरम, विनम्र तालिबान है। यह एक कठिन, कठोर तालिबान है। 20 साल तक जंगल में रहने के बाद, तालिबान को आखिरकार अपना खेल वापस मिल रहा है। वे किसी से बात करने में दिलचस्पी नहीं रखते।’’ हडसन इंस्टीच्यूट के हुसैन हक्कानी ने कहा, ‘‘ऐसा लगता है कि बाइडेन प्रशासन इस निष्कर्ष पर पहुंच गया है कि पाकिस्तान तालिबान पर दबाव नहीं बनाएगा।’’ बाइडेन ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को फोन करने की भी जहमत नहीं उठाई। 

पाकिस्तान लंबे समय से खेले जा रहे दोहरे खेल में संलग्न है, इसका सबूत है जमीन पर तालिबान का चुपचाप समर्थन करते हुए एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते की गुहार लगाना। जॉर्ज टाऊन विश्वविद्यालय के एक राजनीतिक वैज्ञानिक क्रिस्टीन फेयर ने कहा, ‘‘पाकिस्तान तालिबान से मुंह नहीं मोडऩे वाला। अब वह ऐसा क्यों करेगा क्योंकि तालिबान पाकिस्तान के अथक प्रयासों की बदौलत ‘जीता’ है?’’ 

वाशिंगटन लंबे समय से पाकिस्तान के दो-मुंह वाले व्यवहार के बारे में जानता है लेकिन पाकिस्तान को बहुत मुश्किल से धकेलने के लिए अमरीका की अनिच्छा एक विलक्षण भय में निहित है-पाकिस्तान एक परमाणु-सशस्त्र राष्ट्र है। पाकिस्तान को अलग-थलग करने और उसे आतंकवाद के समर्थक के रूप में पहचानने से 1990 के दशक के अंत में जो हुआ उससे कहीं ज्यादा बुरा सपना आसानी से पैदा हो सकता है, जब एक पाकिस्तानी तस्करी नैटवर्क ने लीबिया को परमाणु हथियार डिजाइन प्राप्त करने में सक्षम बनाया था। वाशिंगटन के लिए और भी भयावह यह संभावना है कि एक अस्थिर, अलग-थलग पाकिस्तान टूट सकता है और चरमपंथी देश के परमाणु हथियारों पर कब्जा कर सकते हैं। नतीजतन, वाशिंगटन और इस्लामाबाद दोनों ही कूटनीतिक ढोंग का खेल खेलते दिख रहे हैं।-माइकल हिर्श
 


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