दबंग जनप्रतिनिधियों का लेखा-जोखा

Saturday, Apr 06, 2024 - 05:42 AM (IST)

संसद को ‘लोकतंत्र का मंदिर’ माना गया है, ऐसी ही शुचिता की अपेक्षा राष्ट्रहित एवं जनकल्याण से जुड़े मुद्दे उठाने वाले जनप्रतिनिधियों के चरित्र से भी की जाती है किंतु अनेक मामलों में वास्तविकता ठीक इसके विपरीत दिखाई पड़ती है। 
भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनावी सुधारों को लेकर होने वाली तमाम चर्चाओं में राजनीति का बढ़ता अपराधीकरण विगत कई वर्षों से एक अहम मुद्दा बना हुआ है। हाल ही में एसोसिएशन फॉर डैमोक्रेटिक रिफॉर्म (ए.डी.आर) ने मौजूदा संसद के 514 सदस्यों के आपराधिक, शैक्षणिक व आर्थिक रिकार्ड को लेकर नवीनतम आंकड़े जारी किए, जिनके अनुसार, विगत लोकसभा चुनाव के दौरान चयनित 44 प्रतिशत सांसद आपराधिक मामलों में संलिप्त हैं, जबकि 29 प्रतिशत सांसद संगीन आपराधिक मामलों में नामजद हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक, अपने विरुद्ध हत्या से संबद्ध मामलों की जानकारी देने वाले मौजूदा 9 सांसदों में 5 भाजपा से संबद्ध हैं। कांग्रेस, बसपा, वाई.एस.आर. कांग्रेस सहित एक आजाद सांसद भी कत्ल के मामले में आरोपी है। वर्तमान सांसदों में से 28 के विरुद्ध हत्या के प्रयास में मामला दर्ज है। 16 मौजूदा सांसदों का नाम महिलाओं के विरुद्ध मामलों में आता है, जिनमें 3 सांसदों के खिलाफ महिलाओं से दुष्कर्म करने का आरोप भी है। आपराधिक सांसद चयनित करने के मामले में केरल प्रांत प्रथम स्थान पर रहा। यहां 20 में से 17 सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज  हैं। गंभीर आपराधिक मामलों में उत्तर प्रदेश का नाम सर्वोपरि रहा। यहां 43' सांसद गंभीर आपराधिक मामलों में लिप्त पाए गए। 

आंकड़ों का सम्पूर्ण लेखा-जोखा बदल रहे राजनीतिक समीकरणों की ओर इशारा करता है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संसद में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान कहा था, ‘हमारी आजादी के समय, राष्ट्र के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को यदि ध्यान में रखा जाए तो ‘भारतीय लोकतंत्र’ को नि:संदेह मानव इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक माना जा सकता है।’ वास्तव में, यह उपलब्धि इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि समूचे तौर पर इसका ध्येय जनहित से ही जुड़ा था। मताधिकार के आरम्भिक वर्षों में उम्मीदवार की कार्यक्षमता का आकलन करने के साथ, साफ-सुथरी छवि को ही प्राथमिकता दी जाती थी। भले ही शतरंजी चालें सदैव से ही राजनीति का हिस्सा रही हों किंतु आदर्शों, मूल्यों एवं सिद्धांतों की इस प्रकार सरेआम अवहेलना नहीं होती थी। 

वर्तमान में तो जैसे चुनाव का आशय ही येन-केन-प्रकारेण अपनी जीत सुनिश्चित करवाना है, जनहित का मुद्दा तो सिर्फ नारों तक सीमित नजर आता है। बाहुबलियों की राजनीति में लगातार बढ़ती दखलअंदाजी एक ङ्क्षचतनीय विषय बन चुका है। दरअसल, चुनावी राजनीति कमोबेश राजनीतिक दलों को प्राप्त होने वाली फंडिंग पर निर्भर करती है। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के पास अक्सर धन संपदा की कोई कमी नहीं होती। इसी माया के दम पर खुलकर वोट की सौदेबाजी होती है। चुनावी अभियान में प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से खर्च किया गया पैसा जीत की संभावना कई गुणा बढ़ा देता है। जाति, वर्ग अथवा धर्माधारित मतदान भुनाना भी राजनीतिक दल खूब जानते हैं। प्रत्याशी को टिकट आबंटित करते संबंधित क्षेत्र में वर्ग-धर्म-जाति बाहुल्य का पलड़ा खंगालना राजनीतिक तुरुप चालों का ही तो हिस्सा है। जो नेतागण संसद में खड़े होकर डंके की चोट पर जातिगत भेदभाव मिटाने की बात करते हैं, चुनावों के दौरान वही जाति-धर्म के नाम पर वोट बटोरते दिखाई पड़ते हैं, यानी ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और’। 

फिर भी कुछ मतदाता समझ नहीं पाते और राजनीतिज्ञों की लच्छेदार बातों में उलझकर रह जाते हैं। जाति-धर्म के रूप में नेताओं को एक ऐसा अचूक हथियार मिल जाता है जो उनकी जीत सुनिश्चित करने में खासा मददगार सिद्ध होता एवं कालांतर में लोकतंत्र के लिए विषम परिस्थितियां उत्पन्न करने का एक बड़ा कारण बन जाता है। राजनीति के अपराधीकरण को बढ़ावा देने में भ्रष्टाचार की भी मुख्य भूमिका रहती है। आपराधिक पृष्ठभूमि को रिश्वत देकर कोई सत्ता तथा राजनीतिक प्रभुत्व हासिल करने के लिए पूरे सिस्टम को भ्रष्ट कर सकता है। विचारणीय है, स्वयं आपराधिक कृत्यों में प्रवृत्त व्यक्ति  भला समाज को कैसे दिशा प्रदान करेगा? राजनीति में अपराधियों का प्रवेश सार्वजनिक जीवन में अपराध को बढ़ावा देने के साथ कार्यपालिका, नौकरशाही, विधायिका तथा अदालतों सहित राज्य संगठनों को प्रतिकूल दबाव डालते हुए नकारात्मक रूप से प्रभावित करने के अतिरिक्त करेगा भी क्या? 

राजनीति तथा देश के कानून निर्माण में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति यों का अस्तित्व हर प्रकार से लोकतंत्र की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव ही डालता है। लोकतंत्र से आशय, लोगों का तंत्र है। सतही तौर पर इसकी स्थापना तभी संभव हो सकती है, जब इसे चलाने वाले आपराधिक प्रवृत्ति के दबंग न होकर चारित्रिक रूप से सुदृढ़, गरिमा सम्पन्न व लोकहित के हिमायती हों और ऐसा तभी संभव है जब हम अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करें एवं सोच-समझकर ही करें।-दीपिका अरोड़ा
 

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