एक ‘खास परिप्रेक्ष्य’ से संबंधित होता है बजट

punjabkesari.in Sunday, Feb 12, 2017 - 01:28 AM (IST)

नववर्ष का सूर्योदय होते ही कुछ बातें बहुत अधिक स्पष्ट हो गई थीं। पहली बात तो यह थी कि बाहरी यानी विदेशी पर्यावरण अब पहले की तरह मेहरबान नहीं रह गया था क्योंकि जहां तेल कीमतों में वृद्धि शुरू हो गई थी, वहीं विकसित देशों ने संरक्षणवाद की नीति अपनानी शुरू कर दी थी।
दूसरी बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर की गति मंद होनी शुरू हो गई थी। दुनिया के अन्य कई देशों में भी यही क्रम चल रहा है। तीसरी बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में वृद्धि के बावजूद बहुत कम रोजगार पैदा हो रहा था। चौथी- कृषि क्षेत्र में बहुत गंभीर संकट आया हुआ था। पांचवीं बात यह है कि वृद्धि के 3 प्रमुख चालकों यानी प्राइवेट निवेश, प्राइवेट खपत और निर्यात डावांडोल थे। छठी बात- भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि यात्रा में नोटबंदी से भयावह व्यवधान पैदा हो गया था।
 

2017-18 के बजट के समूचे लक्ष्य इसी परिप्रेक्ष्य से निर्धारित होने चाहिएं थे। वित्त मंत्री के बजट भाषण, बजटीय दस्तावेजों की संख्या तथा वित्त विधेयक के प्रावधानों में भी यही बातें परिलक्षित होनी चाहिए थीं। खेद की बात है कि बजट भाषण में कहीं भी इनका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। यहां तक कि वित्त मंत्री ने बजट के बाद मीडिया को दिए गए अनगिनत साक्षात्कारों में भी अपने उद्देश्यों को स्पष्ट नहीं किया।
 
 

परिप्रेक्ष्य ही लक्ष्यों को निर्धारित करता है
यू.पी.ए.-1 (2004-2009) के दौरान हम वाजपेयी सरकार (1999-2004) के दौर की 5.9 प्रतिशत औसत वृद्धि दर को ऊपर उठाने का लक्ष्य अपनाए हुए थे जबकि सितम्बर 2008 से शुरू होकर 2012 (यू.पी.ए.-2) तक हमारा लक्ष्य यही रहा कि किसी न किसी तरह सितम्बर 2008 में शुरू हुए अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट के दुष्प्रभावों को निरस्त किया जाए और वृद्धि दर को बनाया रखा जाए। अगस्त 2012 के बाद हमारा लक्ष्य था अर्थव्यवस्था को भटकावों से मुक्त करवाना और फिर से वृद्धि के रास्ते पर खींचते हुए वित्तीय सुदृढ़ता के लिए अपनी प्रतिबद्धता का डंका बजाना। 2012-13 और 2013-14 में हमारा लक्ष्य था वित्तीय सुदृढ़ीकरण, मुद्रास्फीति नियंत्रण एवं आॢथक वृद्धि के मोर्चे पर प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाना। 2017-18 के बजट में इस तरह का कोई दूरगामी प्रयास पूरी तरह गैर-हाजिर है।
 

एक बात स्पष्ट है  सरकार और इसके सभी प्रयासों पर नोटबंदी एक काली घनी प्रेत छाया बनकर मंडरा रही है। सरकार अर्थव्यवस्था को फिर से चाक-चौबंद बनाना चाहती है लेकिन इसे सूझ नहीं रहा कि यह कौन-कौन-सा जोखिम उठा सकती है। स्पष्ट रूप में मंद पड़ती जा रही ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें पर्याप्त रोजगार सृजन न हो रहा हो, को स्वस्थ बनाने का आजमाया हुआ नुस्खा यही है कि सरकारी खर्च में वृद्धि की जाए। वित्त मंत्री का दावा है कि उन्होंने यह काम किया है और इसकी पुष्टि में वह बताते हैं कि 2017-18 के लिए कुल सरकारी खर्च 21,46,735 करोड़ रुपए होगा जबकि गत वर्ष के बजट में यह आंकड़ा 20,14,407 करोड़ रुपए था। खर्च में यह वृद्धि पहली नजर में काफी प्रभावशाली दिखाई देती है लेकिन ऐसा तब तक ही महसूस होता है जब तक आप खर्च के सभी आंकड़ों को जी.डी.पी. की प्रतिशत में नहीं बदलते।
 

जब सभी अर्थशास्त्री इस बात पर एकमत थे और आॢथक सर्वेक्षण ने भी सरकारी खर्च में वृद्धि की सिफारिश की थी, ऐन उसी समय सरकार ने जी.डी.पी. की प्रतिशत के रूप में खर्च में कमी करने का रास्ता चुना। न केवल कुल खर्च बल्कि महत्वपूर्ण मदों में किए जाने वाले खर्च में भी 2017-18 के बजट में जी.डी.पी. के प्रतिशत की दृष्टि से गिरावट आई है। यहां तक कि पूंजीगत रक्षा व्यय जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में भी खर्च में गिरावट आएगी।

निष्कर्ष स्वत: स्पष्ट हैं। 2016-17 के लिए रक्षा मंत्रालय को पूंजीगत खर्चे हेतु जो आबंटन हुआ है वह लक्ष्य भी पूरा नहीं किया जा सकता क्योंकि आबंटन पूंजीगत खर्च से 7071 करोड़ रुपए कम है यानी कि 9 प्रतिशत कम है। इसीलिए वित्त मंत्री ने 2017-18 के लिए सेना को आबंटन बजट राशि 78,586 करोड़ से घटाकर 78,078 करोड़ रुपए कर दी है। क्योंकि ऐसा करना देखने में कुछ अच्छा नहीं लगेगा इसलिए वित्त मंत्री ने आयुद्ध फैक्टरियों, अनुसंधान एवं विकास तथा डी.जी.क्यू.ए. पर होने वाले खर्च को भी ‘रक्षा सेवाओं हेतु पूंजी प्रावधान’ के अंतर्गत शामिल करके रक्षा बजट के आंकड़े को गुब्बारे की तरह फुलाकर 8364 करोड़ बढ़ा दिया।
 

यदि आप सारिणी पर दृष्टिपात करें तो आप यह देखकर आसन्न रह जाएंगे कि जी.डी.पी. की प्रतिशत के रूप में आबंटन 2016-17 की तुलना में 2017-18 में लेशमात्र भी बढ़ा नहीं है, खास तौर पर कृषि ऋण पर सबसिडी, बुढ़ापा पैंशन, मिड-डे मील स्कीम जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के मामले में। चूंकि इन स्कीमों के लाभाॢथयों की संख्या भी बढ़ी है और मिड-डे स्कीम की लागतों में भी वृद्धि हुई है, इसलिए आबंटन को स्थिर बनाए रखने का व्यावहारिक प्रमाण यह है कि असल में बजट प्रावधान का आंकड़ा नीचे आयाहै।

 

भयाक्रांत है सरकार
सवाल पैदा होता है कि सभी परामर्शों के विपरीत जाते हुए सरकार ने विरोधाभासी रणनीति क्यों अपनाई? ऐसा करने के लिए सरकार यह बहाना गढ़ रही है कि वित्तीय घाटे का लक्ष्य पूरा करने के लिए उसने यह नीति अपनाई है लेकिन यह लक्ष्य तो बजट में संकुचन के बावजूद भी हासिल नहीं हुआ। 2017-18 में बजट घाटा जी.डी.पी. के 3.2 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य अपनाया गया है जबकि यह 3 प्रतिशत से नहीं बढऩा चाहिए था। इससे यह स्पष्ट है कि 
* सरकार को यह डर सता रहा है कि इसने 2017-18 के लिए जी.डी.पी. का अनुमान बढ़ाकर लगाया था; या फिर 
* खर्च के सरकारी अनुमान घटाकर लगाए गए थे; अथवा 
* दोनों ही बातें हुई हैं।
 

क्या यह रणनीति कारगर सिद्ध होगी? क्या इससे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा और 7 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर हासिल हो सकेगी? क्या इससे प्राइवेट निवेश आकॢषत होगा? क्या रोजगार बढ़ेंगे? मुझे तो इस बारे में आशंका ही आशंका है।
चाहिए तो यह था कि सरकार व्यापक और दिलेरी भरे सुधारों के साथ-साथ विस्तारवादी रणनीति अपनाती। इसे अपनिवेश का अधिक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम लागू करना चाहिए था। इसे अपनी ही अनुमोदित ‘खर्च सुधार समिति’ की अनुशंसाएं लागू करनी चाहिए थीं और उस फिजूल खर्च को बंद करना चाहिए था जिसका कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल रहा।
हकीकत यह है कि सरकार भयाक्रांत है। ऐसा लगता है कि इसने दिलेरी भरे सुधारों के प्रयास का परित्याग कर दिया है।


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