दिल्ली और गुजरात में दंगों के विरुद्ध लोगों की नाराजगी

Wednesday, Jun 01, 2016 - 12:46 AM (IST)

मैं सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान के बेटे वली खान से मिलने के लिए पेशावर के रास्ते में था। ऐबटाबाद में चाय पीने के लिए रुका तो वहां रेडियो पर बी.बी.सी. की रिपोर्ट आ रही थी कि सिख सुरक्षा गार्डों ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की गोली मार कर हत्या कर दी है। मेरे आगे जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। मैं लाहौर भागा लेकिन तब तक दिल्ली जाने वाली उड़ान जा चुकी थी। विडम्बना की बात यह थी कि उस दिन लंदन में काम करने वाले सिखों के एक संगठन ने खालिस्तान की मांग के लिए लाहौर में एक बैठक रखी थी।
 
दूसरे दिन जब मैं पालम पर उतरा तो हवाई अड्डा वीरान दिखाई दे रहा था। परदेस से आने वाले यात्रियों के काऊंटर पर 2 सिख अधिकारी अलग खड़े थे। मैंने किसी को काऊंटर पर कहते सुना कि सिख कर्मचारियों को घर सुरक्षित पहुंचाने के लिए सुरक्षा की व्यवस्था करनी पड़ेगी। मैं एकदम हक्का-बक्का रह गया और जरा भी समझ नहीं पाया कि क्या चल रहा था। काऊंटर के एक अधिकारी ने समझाया कि दिल्ली में सिखों का कत्लेआम चल रहा था। 
 
मेरे दिमाग में कभी नहीं आया था कि हिन्दू सिखों, जो संविधान के मुताबिक हिन्दू हैं, की हत्या करेंगे। इसके अलावा, हाल तक हिन्दुओं और सिखों के बीच शादी आम बात थी। मेरी मां एक सिख परिवार से थी। मैं जब पालम से बाहर आया तो मैंने राख के ढेर देखे। टैक्सी ड्राइवर ने मुझे बताया कि दिन की शुरूआत में एक सिख को जिंदा जला दिया गया था।
 
कई साल बाद, जब मैं राज्यसभा का सदस्य था, मैंने 1984 के सिख विरोधी दंगों का सवाल उठाया और सारे मामले की जांच के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाने की मांग की। एल.के. अडवानी ने मेरा समर्थन किया और जस्टिस जी.टी. नानावती जिन्होंने गुजरात संहार की जांच की, को कमीशन का अध्यक्ष बनाया गया।
 
जस्टिस नानावती ने वैसे तो एक निष्पक्ष रिपोर्ट सरकार को सौंपी लेकिन वह उस आदमी का नामलेने से बच निकले जो सिख विरोधी दंगों के पीछे था। बाद में जब मैं इसकी शिकायत करने के लिए उनसे मिला तो उन्होंने कंधा सिकोड़ते कहा कि हर आदमी को पता है कि दंगों के पीछे कौन लोग थे। यह सच है लेकिन अगर उन्होंने अपनी रिपोर्ट में उनके नाम लिए होते तो काफी अंतर पड़ता।
 
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर 10 मामलों की जांच के लिए बनी स्पैशल इंवैस्टीगेशन टीम (एस.आई.टी.) के  प्रमुख आर.के. राघवन ने अपनी विचारधारा के हिसाब से काम किया, हालांकि वे बहुत अच्छे पुलिस अधिकारी थे। यहां तक कि अदालत ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर कोई टिप्पणी नहीं की, जब कि उसके सामने सारा ब्यौरा था।
 
कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी, जिन्हें 69 आदमियों के साथ अहमदाबाद की गुलबर्गा सोसायटी में जिंदा जला दिया गया या जिनका कत्ल कर दिया गया, के मामले को निचली अदालत को वापस भेज कर सुप्रीम कोर्ट ने मामले की जिम्मेदारी दूसरे को सौंप दी। यह वही सुप्रीम कोर्ट था जिसने नरेंद्र मोदी पर टिप्पणी की थी कि जब रोम जल रहा था, नीरो बांसुरी बजा रहा था।
 
सच में, गुजरात की दहशत ने देश को हिला दिया। फिर भी, लोगों और मीडिया की सार्वजनिक ङ्क्षनदा भी मोदी से पछतावा नहीं करा पाई। उन्होंने माफी मांगने से इंकार कर दिया और राज्य के बड़े शहरों में सद्भावना सभा के आयोजन का पाखंड किया। मोदी के पास छिपाने के लिए काफी कुछ है। हत्या की घटनाओं की कहानी को जोड़ कर देखने या साबित करने पर राज्य में सांप्रदायिक आधार पर सफाए की योजना दिखाई देती है।
 
संजीव भट्ट जैसे बहादुर पुलिस अधिकारियों ने मोदी की नाराजगी मोल लेकर भी सच्चाई बताई।मोदी ने अपना दमनकारी और पक्षपाती प्रशासनउसके खिलाफ लगा दिया। वह अकेले पीड़ा झेल रहे हैं और यहां तक कि गुजरात हाईकोर्ट भी उनकी मदद में नहीं आया। फिर भी भट्ट ने एक हलफनामे मेंकहाहै कि मोदी ने अपने अधिकारियों को निर्देश दिए कि हिन्दुओं को मुसलमानों पर अपना गुस्सा उतारने दिया जाए।
 
सिखों के मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 1984 के दंगों के लिए माफी मांगी है। मोदी और उनकी पार्टी भाजपा ने यह भी नहीं किया है। अब जब वे प्रधानमंत्री हैं, उनमें यह शिष्टता होनी चाहिए थी कि वह उसके लिए माफी मांगें जो उन्होंने 2002 में गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए कथित रूप सेकिया।
 
मुस्लिम विरोधी और सिख विरोधी दंगों के इतने साल बाद भी इन्हें लेकर नाराजगी क्यों है? इससे पहले मामले में गुजरात को लेकर भाजपा और दूसरे में सिखों को लेकर कांग्रेस नहीं समझ पाई है। इसका कारण है कि वास्तव में उन लोगों के खिलाफ कोई कारवाई नहीं हुई जिनके हाथ खून से सने हैं। भाजपा ने उन्हें गुजरात में और कांगे्रस ने उन्हें दिल्ली और दूसरी जगहों पर बचाया। उससे भी खराब बात तो यह है कि दोनों पाॢटयों ने इन दंगों की योजनाएं बनाने और उस पर अमल करने वाले प्रशासन को बचाने के लिए भरपूर प्रयास किए।   
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