कृषि विधेयक सुधार के वेश में एक बड़ी ‘साजिश’

Tuesday, Sep 22, 2020 - 03:27 AM (IST)

जब मौजूदा केंद्र सरकार आने वाले वर्षों में अपने कार्यकाल का इतिहास पढ़ेगी तो सहभागिता एक ऐसा शब्द होगा जो पन्नों से गायब होगा। एक लोकतांत्रिक गठबंधन कैसे प्रभावित पक्ष को विश्वास में लिए बिना निर्णय करता है, यह सरकार इसकी मिसाल है। एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में किसानों को विश्वास में लिए बिना कृषि से संबंधित निर्णय लेना, किसी सरकार द्वारा किया गया सबसे बड़ा अपराध है। सरकार के सदस्यों द्वारा इसे एक महान सुधार के रूप में प्रस्तुत करने का एकमात्र कारण है येस-मैन का रवैया क्योंकि केवल यह ही एकमात्र गुण है जो उन्हें सरकार में रखेगा। दुर्भाग्य से, यह रवैया न केवल सामाजिक परिवेश बल्कि राजनीतिक परिवेश को भी नुक्सान पहुंचा रहा है। 

यदि हम उन लाभों को एकत्रित करें जो हाइलाइट किए जा रहे हैं, तो इन सुधारों के पक्ष में तीन प्रमुख तर्क दिए जा रहे हैं। सबसे पहला, ये किसानों के लिए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष इकोसिस्टम बनाते हैं। दूसरा, किसानों को अपनी इच्छा के अनुसार अपनी उपज बेचने की आर्थिक स्वतंत्रता होगी। तीसरा, इन सुधारों में शामिल सभी हितधारकों (किसान, उपभोक्ता, कॉर्पोरेट्स व सरकार) के लिए यह इन-बिन स्थिति साबित होगी। 

इससे पहले कि हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचें, इनमें से प्रत्येक तर्क का मूल्यांकन करना उचित होगा। महत्वपूर्ण डाटा ङ्क्षबदुओं का विश्लेषण हमें परिदृश्य को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेगा। कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार, देश में 86' किसान 5 एकड़ से कम भूमि के मालिक हैं। वर्तमान में ये छोटे किसान अपनी उपज को अपनी निकटतम मंडी में बेचते हैं।  सभी सरकारी खरीद के लिए उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (रूस्क्क) की गारंटी दी जाती है। अब इन विधेयकों के आने से क्या बदलता है? 

संक्षिप्त उत्तर है सब कुछ। यदि हम यह मान भी लें कि कॉर्पोरेट उत्साहित हैं और सीधे किसानों से जुडऩा चाहते हैं पर क्या छोटे किसान जिनके पास 2-3 एकड़ जमीन है, वे कीमतों पर बातचीत करने, लंबी अवधि के समझौतों का प्रबंधन करने और जोखिम उठाने की स्थिति में हैं? क्या छोटे किसान इन बड़े कॉर्पोरेट घरानों से अपनी पैदावार की उचित कीमत के लिए नैगोसिएशन कर सकते हैं? उपरोक्त दोनों सवालों का उत्तर नकारात्मक ही है। 

सरकार के तर्क का दूसरा पहलू यह है कि इन लेन-देन में बिचौलिए गायब हो जाएंगे और किसान बेहतर दर/मार्जिन प्राप्त कर सकेंगे। अमरीका जैसे देश में, जहां खाद्य सेवा वितरण की संरचना बहुत परिपक्व है वहां भी, किसान की उपज एक छोटी संस्था के द्वारा खरीदी जाती है जो आगे किसी प्रसंस्करण कम्पनी को बेचती है या सीधे एक प्रसंस्करण कम्पनी किसानों से खरीदती है। 

यह प्रसंस्करण कम्पनी फिर खाद्य सेवा वितरण कम्पनियों के साथ एक दीर्घकालिक समझौते में प्रवेश करती है, जो आगे अंतिम उपभोगकत्र्ताओं को बेचती है। इसलिए यह तर्क कि परतों की संख्या कम होगी, हकीकत से परे है। बस फर्क यह होगा कि नया बिचौलिया एक कॉर्पोरेट इकाई होगी, जिसके प्रतिनिधि सूट-बूट व टाई में होंगे और अपने नियोक्ता के प्रॉफिट के लिए काम करेंगे। यह किसानों के हाथ से कीमतें तय करने की शक्ति छीन लेगा, खासकर, जब रूस्क्क की अवधारणा विधेयक का भाग नहीं है। 

तीसरा पहलू, यह हितधारकों को कैसे प्रभावित करता है। राज्य सरकारें बाजार शुल्क के रूप में अपने एक बड़े राजस्व को खो देंगी। ऐसे समय में जब सार्वजनिक व्यय में वृद्धि करने की आवश्यकता है और केंद्र, राज्यों के राजस्व के हिस्से को हस्तांतरित करने में विफल रहा है, ये विधेयक राज्यों को और अधिक प्रभावित करेंगे। पंजाब जैसा राज्य जो मंडियों में होने वाली बिक्री से सालाना 3500 करोड़ रुपए का राजस्व हासिल करता है क्या केंद्र सरकार इसकी भरपाई के लिए तैयार है? अंतिम उपभोक्ता भी जमाखोरी से संभावित कीमतों की उछाल से सुरक्षित नहीं होंगे। 

एकमात्र हितधारक जिसे मैं इन सबसे लाभान्वित देखता हूं, वे हैं कॉर्पोरेट्स, किसानों के भाग्य को बदलने के लिए नहीं बल्कि स्वयं के लिए। पिछले 6 वर्षों में हर बार की तरह कठोर व अतर्कपूर्ण निर्णय लेने की बजाय सरकार को इन बिलों में सकारात्मक संशोधन लाने के लिए राज्यों व किसानों के साथ काम करना चाहिए, विश्वास की कमी को समाप्त करना चाहिए। माध्यम कोई भी हो किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (रूस्क्क) की गारंटी सरकार को देनी होगी। ये लेखक के निजी विचार हैं-प्रो. (डा.) गौरव वल्लभ (फाइनांस के प्रोफैसर व कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता)

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