खुशी और दर्द के 70 साल

Monday, Aug 14, 2017 - 10:54 PM (IST)

आजादी का जश्न मुझे अपने गृह-नगर में बिताए गए दिनों की याद दिला देता है। मैं कानून की डिग्री हासिल करने के बाद वकील बनने की तैयारी में था लेकिन बंटवारे ने मेरी सारी योजना बिगाड़ दी। इसने मुझे वह जगह छोडऩे को मजबूर कर दिया, जहां मैं पैदा हुआ और मेरी परवरिश हुई। मैं जब भी इस बारे में सोचता हूं, यह एक उदासी भरी याद होती है। 

लेकिन उम्मीद की किरण यह है कि इससे हिंदुओं और मुसलमानों का संबंध ज्यादातर बेअसर रहा। मेरे पिता जी, जो चिकित्सक थे, ने जब भी सियालकोट छोडऩे की सोची, उन्हें रोक लिया गया। एक दिन उन्होंने लोगों को बिना बताए यात्रा का फैसला किया। वह लोगों की नजर में आए बगैर ट्रेन में चढ़ गए। कुछ देर बाद पड़ोस के कुछ नौजवानों ने उन्हें पहचान लिया और उनसे आग्रह किया कि वह नहीं जाएं। मेरे पिता जी ने कहा कि वह सिर्फ अपने बच्चों से मिलने जा रहे हैं जो पहले से दिल्ली में हैं और जल्द ही लौट आएंगे लेकिन नौजवान हठ कर रहे थे कि वह यात्रा नहीं करें। कुछ समय में वे मान गए और उन्होंने मेरे माता-पिता से एक दिन बाद उसी ट्रेन से जाने के लिए कहा। उन्होंने खुले तौर पर स्वीकार किया कि पास के नरोवाल ब्रिज पर इस ट्रेन के सभी यात्रियों की हत्या की योजना है।

और ऐसा हुआ। दूसरे दिन वे हमारे यहां आए और उन्होंने हमारे माता-पिता से कहा कि वे यात्रा कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि इसका इंतजाम किया गया है कि उनका सफर सुरक्षित रहे। उन्होंने न केवल मेरे बीमार माता-पिता को पैदल पुल पार करने में मदद की बल्कि उन्हें सरहद पर अलविदा भी कहा। मैं कुछ दिनों तक वहीं रुक गया था। मैंने वाघा जाने के लिए एक दूसरी सड़क वाला रास्ता लिया। एक ब्रिगेडियर, जिसका तबादला भारत में हो गया था, जाने से पहले मेरे पिता जी से यह पूछने आया था कि क्या वह कोई मदद कर सकता है। मेरे पिता जी ने मेरी ओर देख कर ब्रिगेडियर से कहा था कि वह मुझे सरहद के पार ले जाए। मैंने सामानों से लदी एक जीप में पीछे बैठकर यात्रा की।

सियालकोट अमृतसर जाने वाली मुख्य सड़क से थोड़ा हट कर है लेकिन मैं यह देख कर भौंचक्का था कि यह सड़क सैंकड़ों लोगों से भरी हुई थी। एक छोटी-सी धारा पाकिस्तान में प्रवेश कर रही थी और हमारी बड़ी धारा अमृतसर की ओर जा रही थी। एक चीज पक्की थी कि वापसी नहीं हो सकती थी। मैंने लाशों की बदबू महसूस की। लोग जीप को रास्ता दे देते थे। एक जगह लहराती दाढ़ी वाले एक बूढ़े सिख ने हमें रोका और हमसे अपने पोते को उस पार ले जाने का आग्रह किया। मैंने उसे कहा कि मैंने अभी-अभी पढ़ाई पूरी की है और एक बच्चे को नहीं पाल सकता। उसने कहा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और आग्रह किया कि मैं उसे शरणार्थी शिविर में छोड़ दूं। सिख ने कहा कि वह जल्द ही शरणार्थी शिविर में अपने पोते के पास आ जाएगा। मैंने उसे मना कर दिया और आज भी उसका लाचार चेहरा मुझे परेशान करता है। 

सियालकोट में एक अमीर मुसलमान गुलाम कादर ने अपना बंगला खोल दिया और मेरे पिता जी से कहा कि वह इसे तब तक अपने पास रखें जब तक वह शहर में सुरक्षित महसूस न करें। बंगला खुद एक शरणार्थी शिविर बन गया और एक समय हम 100 लोग उसमें रहते थे। कादर हम सभी लोगों को राशन मुहैया करवाते थे और हमारा दूधवाला नियमित दूध पहुंचाता था। जब मैंने सरहद पार की तो मेरे पास सिर्फ एक छोटा थैला था जिसमें एक जोड़ी कपड़े और 120 रुपए थे, जो मेरी मां ने दिए थे लेकिन मेरे पास बी.ए. (आनर्स) और एलएल.बी. की डिग्री थी तथा मुझे यकीन था कि मैं अपनी जिंदगी फिर से बना लूंगा। मैं अपने पिता को लेकर ङ्क्षचतित था कि उन्हें जालंधर में फिर से  सब कुछ शुरू करना था और वह कम दिनों में बहुत लोकप्रिय हो गए तथा सुबह से शाम तक मरीज उन्हें घेरे रहते थे। 

मैं दिल्ली चला आया, जहां दरियागंज में मेरी मौसी रहती थी। जामा मस्जिद काफी नजदीक थी और मैं यहीं खाता था क्योंकि यहां बढिय़ा मांसाहारी भोजन सस्ता मिलता था। वहीं मेरी किसी से मुलाकात हो गई जो मुझे उर्दू अखबार ‘अंजाम’ में ले गया और इस तरह मैंने पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया। बाकी इतिहास है लेकिन मैं उस पर ज्यादा चर्चा करना नहीं चाहता। क्या बंटवारा जरूरी था क्योंकि इसने दोनों तरफ 10 लाख लोगों की जान ली। वह कड़वापन जारी है और दोनों अभी भी दुश्मनी के साथ जीते हैं। भारत और पाकिस्तान 3 युद्ध, 1965, 1971 और 1999 में लड़ चुके हैं। आज भी सीमा दुश्मनी से भरी है और सशस्त्र सैनिक गोली चलाने के लिए हरदम तैयार रहते हैं। 

हम आजादी की 70वीं वर्षगांठ मना रहे हैं लेकिन सीमा पर नरमी, जिसकी मैंने कल्पना की थी, के बदले कंटीली तार हैं और हर समय गश्त जारी रहती है। लंबी सीमा पर सरगर्मी कभी कम नहीं होती। दोनों देशों के बीच कोई बातचीत नहीं है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि इस्लामाबाद से बातचीत नहीं हो सकती क्योंकि वह घुसपैठियों को प्रोत्साहित करता है। पाकिस्तान कहता है कि वह इसका हिस्सेदार नहीं है और घुसपैठियों की गतिविधियों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है इसलिए दोनों पड़ोसी देश अभी भी एक-दूसरे से दूर हैं, बिना संपर्क के। वीजा पाना बहुत कठिन हो गया है। दोनों तरफ रिश्तेदार और दोस्त असली पीड़ित हैं। पाकिस्तान किसी तरह के संबंध से पहले कश्मीर की समस्या का समाधान चाहता है। कश्मीर खुद एक लम्बी कहानी है क्योंकि बंटवारे का फार्मूला सिर्फ भारत और पाकिस्तान को मान्यता देता है। कश्मीर घाटी की आजादी, जो वहां के लोग चाहते हैं, पर फिर से विचार और इसके बारे में सोचने के लिए इसमें कोई प्रावधान नहीं है। वास्तविकता है कि अपना लक्ष्य पाने के लिए उन्होंने बंदूकें उठा ली हैं। 

हाल ही में मैं उनमें से कुछ से श्रीनगर में मिला और पाया कि वे घाटी को आजाद इस्लामिक राष्ट्र बनाने का हठ किए हैं। वे इस पर किसी भी दलील को स्वीकार नहीं करते कि यह संभव नहीं है। मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता कि कश्मीर को आजादी देने के किसी प्रस्ताव पर हमारी संसद विचार करेगी। पाकिस्तान मानता है कि यह उसके लिए जीवन रेखा है। इसलिए मैं आगे आने वाले 70 वर्षों में भी समस्या का कोई हल नहीं देख पाता हूं, उतना ही समय जो एक-दूसरे पर गोली चलाने में हमने बर्बाद कर दिया है। पहली चीज होनी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र संघ में दी गई याचिका वापस ली जाए और पाकिस्तान को आश्वस्त किया जाए कि भारत इस्लामाबाद के साथ शांति और अच्छे संबंध चाहता है। शायद दोनों तरफ के मीडिया प्रमुख आमने-सामने बैठें और कोई ठोस प्रस्ताव तैयार करें, अगर यह संभव है। 
 

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