भारत की 60-70 प्रतिशत दौलत पर केवल 57 खरबपतियों का ‘नियंत्रण’

Saturday, Feb 25, 2017 - 12:02 AM (IST)

ब्रिटिश समाजसेवी संस्था ‘ऑक्सफैम’ की ताजातरीन रिपोर्ट कहती है कि दुनिया में रूस के बाद भारत आर्थिक विषमता वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है। इस बहुत ही परेशान कर देने वाली जमीनी हकीकत ने कभी भी हमारे कांग्रेसी, सोशलिस्ट एवं भाजपा नेताओं को परेशान नहीं किया जो गत कई दशकों से अदल-बदल कर भारत के भाग्य विधाता बनते आए हैं। 

यहां तक कि दुनिया भर में भागदौड़ करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान राजग सरकार अभी तक कांग्रेस की उन पूर्व सरकारों से किसी तरह भी खुद को भिन्न नहीं सिद्ध कर पाई जो समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने की कसमें खाया करती थी। सैकुलरवाद और समाजवाद के अपने फडफ़ड़ाते परचम के नीचे उन्होंने केवल गरीब और वंचित लोगों को ऐसे भविष्य के सप्तरंग सपने दिखाए जिन तक कभी पहुंचा ही नहीं जा सकता। 

खेद की बात है कि हमारे राजनीतिज्ञों को कभी भी यह एहसास नहीं हुआ कि समाजवाद के नारे लगाने से उन्हें आर्थिक समझदारी से खिलवाड़ करने का लाइसैंस नहीं मिल जाता। न ही यह वोट बैंक की राजनीति का खिलौना है। भारत के छोटे-बड़े नेताओं ने समाजवाद की अवधारणा को कभी भी गरीब लोगों को अल्पतम संभव समय में आॢथक मुख्य धारा में शामिल करने के रूप में नहीं देखा। 

देश को स्वतंत्र हुए 70 वर्ष बीत चुके हैं और हमने तड़क-भड़क भरे तथा चमचमाते शहरों के आसपास दूर-दूर तक फैली झुग्गी-झोंपडिय़ों वाले गरीबी में फंसे हुए ग्रामीण क्षेत्रों की ओर अभी हाल ही में ध्यान देना शुरू किया है। सरकार चाहे किसी की भी आए, भयावह विषमताओं, विकास की विकृत अवधारणाओं, गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई, पेयजल की चौंका देने वाली कमी, गंभीर पर्यावरणीय संकट एवं भू-क्षरण, जल भराव, भू-जल के खारेपन इत्यादि जैसी समस्याओं से बंजर भूमि के लगातार बढ़ते क्षेत्रफल की कहानी बेरोक-टोक जारी है। ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के विडम्बनापूर्ण फर्क की पहेली के ये कुछ ही तत्व हैं। 

सरकारी स्तर पर चाहे कोई भी दावे किए जाएं, मेरा दृढ़ विश्वास है कि देश की लगभग 40 प्रतिशत आबादी अभी भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही है जोकि न्यूनतम शोभनीय अंतर्राष्ट्रीय मानकों से कहीं नीचे है। इस कड़वी सच्चाई से अधिक शर्मनाक बात और कोई नहीं हो सकती। साधन सम्पन्न और वंचित लोगों के बीच खाई गत अनेक वर्षों दौरान कई गुणा बढ़ गई है। देश चूंकि ‘‘लगातार ऊंची होती अपेक्षाओं की क्रांति’’ में फंसा हुआ है और ऊपर से हमारा नेतृत्व संवेदनाशून्य है एवं व्यवस्था औपनिवेशक मानसिकता में जकड़ी हुई है, इसलिए वर्तमान परिस्थितियों में उथल-पुथल होना स्वाभाविक ही है। समस्या केवल संसाधनों एवं सम्पत्ति के समतापूर्ण आबंटन की ही नहीं बल्कि हमारा विकास का ‘दिशाबोध’ भी सही होना चाहिए। 

बेशक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को काले धन और भ्रष्टाचार से मुक्त करवाने और गरीबों के कल्याण के नाम पर 8 नवम्बर की नोटबंदी के फलस्वरूप जनता को दरपेश पीड़ा को जायज ठहराते हैं तो भी भाजपा सरकार के लिए आर्थिक अंक गणित एक अलग ही तरह का खेल है। फिर भी मोदी के अर्थशास्त्र के पीछे की सच्चाई अब जगजाहिर है। इस अर्थशास्त्र का झुकाव स्पष्ट रूप में धन्नासेठों के एक चुनिंदा गुट एवं जुंडलीदार पूंजीवाद की ओर है। शेष जो कुछ भी है वह सदा गच्चा दे जाने वाले ‘अच्छे दिनों’ के खोखले वायदों और कड़वी हकीकतों पर चाशनी के लेप के सिवा कुछ नहीं। 

वास्तव में अब भारतीय समाज के अंदरूनी टकराव और अंतॢवरोध भी आर्थिक क्षेत्र की तरह इतने अनगिनत और प्रचंड हैं जितनी दुनिया में कहीं और नहीं। ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं कि हम देश के एक छोर से दूसरे छोर तक गरीबी रेखा के नीचे जी रहे उन करोड़ों लोगों के निराशा में डूबे चेहरे देखते हैं जिनका संघर्ष केवल जिंदा रहने के लिए ही है। 2016 की ‘ऑक्सफैम’ रिपोर्ट कहती है कि भारत के 1 प्रतिशत धनाढ्य लोग देश की कुल दौलत के लगभग 60 प्रतिशत पर काबिज हैं। (‘ऑक्सफैम इंडिया’ की मुख्य कार्यकारी अधिकारी निशा अग्रवाल तो इस आंकड़े को 70 प्रतिशत बताती हैं।) बात 60 या 70 प्रतिशत की नहीं, वास्तविकता यह है कि ‘‘मात्र 57 खरबपति ही भारत की कुल दौलत के 60-70 प्रतिशत पर नियंत्रण बनाए हुए हैं।’’ 

इस वास्तविकता से मुझे अमरीकी सीनेटर बर्नी सैंडर्ज द्वारा एक बार कहे ये शब्द याद आ जाते हैं: ‘‘जब इतने कम लोगों के पास इतनी अधिक दौलत और इतने अधिक लोगों के पास इतने कम संसाधन हों तो कोई देश न तो नैतिक रूप में जिंदा रह सकेगा और न ही आर्थिक रूप में।’’ गत 70 दशकों दौरान हमारे शासक अभिजात्य वर्ग में से हर प्रकार के जीवन मूल्य और धर्म के नियम गायब हो गए हैं। गांधीवादी परम्परा में दरारें आ गई हैं। जिससे हमें हमारी अर्थव्यवस्था को नई चुनौतियां दरपेश आ गई हैं जिनका हमारे नेताओं के पास कोई उत्तर नहीं है। राष्ट्र जीवन के हर स्तर पर अपराधों, साम्प्रदायिक जातिगत हिंसा के रूप में नए सामाजिक  आर्थिक तनाव पैदा हो गए हैं। 

रिपोर्ट के अनुसार हाल ही के दशकों में जहां सबसे गरीब लोगों की आय में केवल 10 प्रतिशत वाॢषक दर से वृद्धि हुई है, वहीं शीर्ष 1 प्रतिशत धन्नासेठों की आमदन में 182 गुणा वृद्धि हुई है। ऑक्सफैम का विश्लेषण हमें इस दृष्टि से सहायता देता है कि हम घोर गरीबी के विरुद्ध उठाए गए कदमों की सीमा से पार जाते हुए व्यापक आर्थिक न्याय की भाषा में सोच सकें। वैसे भारत में महात्मा गांधी नरेगा जैसी सरकारी योजनाओं के अंतर्गत विकास और कल्याण की नीतियां कई वर्षों से जारी हैं लेकिन ये असंतुलित हैं क्योंकि इनमें मानवीय पहलू की बहुत अक्षम्य अनदेखी की गई है। 

इस प्रकार की नीतियों को विश्व प्रसिद्ध स्वीडिश अर्थशास्त्री गुनार मीरदाल ने इस प्रकार बखान किया है : ‘‘सरकार मशीनरी और उपकरण खरीदने तथा बांध बनाने के प्रयास करती है और इनके वित्त पोषण के लिए पैसा ढूंढती है लेकिन मानवीय पहलू को बिसार देती है जबकि लोगों के तन और मन ही किसी विकासशील देश की बचत और निवेश के प्रमुख संग्राहक होने चाहिएं।’’ दुख की बात तो यह है कि इस प्रकार के मानवीय पहलू हमारी नीतियों और योजनाओं से गैर-हाजिर हैं। 

वास्तव में आर्थिक विषमता, गरीबी तथा विकास जैसी अवधारणाओं को अब नए अर्थ प्रदान किए जाने की जरूरत है ताकि वे हाशिए पर जी रहे लोगों की जरूरतों के प्रति अधिक संवेदनशील बन सकें। ऐसा तभी हो सकता है यदि हमारी अर्थव्यवस्था संवेदनशील बने और संस्थागत समर्थन हासिल हो जिसके चलते गरीब और वंचित लोगों की संवेदनाओं को त्वरित और प्रभावी ढंग से संबोधित हुआ जा सके।     

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