मोदी सरकार के 4 साल: ‘चमकने वाली हर चीज सोना नहीं होती’

Saturday, Jun 02, 2018 - 04:05 AM (IST)

जमीन से जुड़े एक पत्रकार-लेखक होने के नाते मैंने कई दशकों तक भारत के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक दृश्यों को करीब से देखा है। प्रमुख न्यायविद् नानी पालकीवाला द्वारा 1989 में मुम्बई में जारी अपनी पुस्तक ‘इंडिया : बिटविन ड्रीम एंड रियल्टी’ में मैंने देश के सामने मौजूद मुद्दों तथा समस्याओं का निष्पक्ष विश्लेषण किया है। 

शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा करते हुए मैंने पाया कि स्वतंत्रता के 71 वर्षों बाद भी थोड़े-बहुत अंतर के साथ वही विकास तथा सौहार्द के मुद्दे हमारा पीछा कर रहे हैं। विकास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक भावनात्मक मंत्र रहा है। उन्होंने अभी-अभी भाजपा नीत राजग शासन के 5 वर्षों में से 4 वर्ष पूरे किए हैं जिनका चुनावी परीक्षण 2019 में होगा। लोग अच्छे प्रशासन तथा तीव्र विकास के पात्र हैं। जो सब कुछ लोकतंत्र की सच्ची भावना तथा ईमानदारी से  मार्गदॢशत, निष्ठावान शासकों पर निर्भर करता है। 

सच को छिपाना बेवकूफी होगी। सत्यमेव जयते! भारत के शासकों को अपने शब्दों पर खरे उतरना होगा, खुद  व जनता के लिए ईमानदार तथा जाति, धर्म, नस्ल तथा समुदाय के तंग नजरिए से परे भारत को जगमगाने के लिए तर्क तथा विचारशक्ति के आधुनिक पथ पर तेजी से आगे बढऩा होगा। शासकों का ‘नंगापन’, चाहे वह आत्मप्रवृत्त हो या उनके सहायकों द्वारा उन पर लादा गया, विवाद का विषय नहीं हो सकता। समीक्षकों की पक्षपाती आंखों की बजाय लोग जमीनी हकीकतों के अधिक जानकार होते हैं। 

मैं निर्णय सुनाने वाला नहीं बनना चाहता क्योंकि मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन के पहले और आगे देखता हूं। यद्यपि मैं यह अवश्य कहूंगा कि स्वतंत्रता से लेकर किसी भी सरकार ने टी.वी. स्क्रीन्स तथा प्रिंट मीडिया में इतना जोरदार प्रचार अभियान नहीं चलाया था जैसा कि मैं आज प्रधानमंत्री मोदी की बड़ी-बड़ी तस्वीरों के साथ देखता हूं। मैं प्रचार के जादूगरों को चेतावनी के बस इतने शब्द कहना चाहता हूं कि कृपया नरेन्द्र मोदी को प्रकृति के ह्वासमान प्रतिफल नियमों का विषय न बनाएं। सपने निश्चित तौर पर सपने होते हैं। मगर हमारे सपने वायदों तथा कारगुजारी के बीच खोने नहीं चाहिएं। 

सामान्य भाषा में बात करें तो आधिकारिक आंकड़े बिकिनी की तरह हैं, जो ‘असली चीज’ को छिपा लेते हैं। कोई आधिकारिक आंकड़ों तथा दावों पर कितना विश्वास करता है यह उसका व्यक्तिगत मामला है। यद्यपि मैं यह अवश्य कहूंगा कि वायदों तथा जमीनी स्तर पर उन्हें अमल में लाने के बीच बड़े तथा छोटे फासले होते हैं। निश्चित तौर पर मुख्य चीज मार्कीटिंग है। यहां तक कि सपने भी बेचे जाते हैं, चाहे वे गरीब अथवा वंचित लोगों के बीच हलचल पैदा कर सकें या नहीं। मेरा मानना है कि इंदिरा गांधी के समय से ही नारेबाजी ने शायद ही गरीबी तथा अनपढ़ता को खत्म किया हो। ऊंची आवाजों में गरीबी विरोधी नारेबाजी की बजाय केवल जमीनी स्तर पर की गई कार्रवाई अधिक ऊंचा बोलती है। टैलीविजन की छवियां चमकदार दिखाई देती हैं मगर चमकने वाली हर चीज सोना नहीं होती। 

गरीब लोग मुख्यत: ऊंची कीमतों के कुचलने वाले स्तर पर ही बने हुए हैं। यहां तक कि जीवन के लिए जरूरी चीजों के मामले में जैसे कि दाल-रोटी। अमीर तथा गरीब के बीच बढ़ते फासले के दौरान जो चीज मुझे विशेषतौर पर ङ्क्षचतित करती है वह यह है कि किस तरह से लोकतंत्र को परिभाषित किया जा रहा है। अब यह ‘लोगों की, लोगों के द्वारा और लोगों के लिए’ नहीं रह गया है। लोकतंत्र आज ‘राजनीतिज्ञों का, राजनीतिज्ञों के द्वारा तथा राजनीतिज्ञों तथा उनके सांझीदारों के लिए’ है! यहां पार्टी का ठप्पा महज संयोग है। अधिकतर नेता लोक-लुभावन राजनीति खेलते हैं। इन परिस्थितियों में आदर्श अथवा सिद्धांत कैसे फिट हो सकते हैं? 

उतनी ही बेचैन करने वाली बात यह है कि आज की विघटनकारी राजनीति टकराव की राजनीति बन गई है। यही कारण है कि संसद तथा विधानसभाओं में हमें लोगों की वास्तविक समस्याओं पर अर्थपूर्ण चर्चा की बजाय गाली-गलौच तथा हिंसक कार्रवाइयां देखने को मिलती हैं। अब मैं आपको विज्ञापनों में प्रधानमंत्री मोदी के आकर्षित करने वाले दावों के बारे में बताता हूं:
1. युवा शक्ति को काम में लाना
2. स्वस्थ भारत का निर्माण
3. गरीबों तक विकास पहुंचाना
4. सामाजिक न्याय के प्रति अटल निश्चय
5. किसान सबसे पहले
6. नए भारत के लिए नया आधारभूत ढांचा
7. महिला-नीत विकास के माध्यम से पूर्ण सामथ्र्य
8. भ्रष्टाचार समाप्त करना, ईमानदारी का संस्थापन करना तथा पारदशर््िाता को बढ़ावा देना
9. भारत में बदलाव लाने के लिए अप्रत्याशित रफ्तार तथा पैमाना
10. भारत का वैश्विक विकास का इंजन बनना 

विस्तार में जाए बिना मैं कुछ तथ्यों तथा जमीनी हकीकतों की याद दिलाना चाहता हूं जो मुझे निरंतर परेशान करती हैं। राष्ट्रीय परिदृश्य में नरेन्द्र मोदी को लेकर मेरा व्यापक आकलन यह है कि भारत की पेचीदगियों को लेकर नरेन्द्र मोदी की समझ कुछ हद तक सीमित तथा एकतरफा है। ऐसी ही उनकी प्राथमिकताएं हैं। यह भी कि उन्होंने अभी तक देश के ऐतिहासिक क्रमिक विकास को पूरी तरह से समझा नहीं। निश्चित तौर पर एक तरफ चलने वाला दिमाग खतरनाक तथा अनुत्पादक हो सकता है। भारत को विकास के गुजरात के सांचे में पूरी तरह से ढाला नहीं जा सकता। मुझे अफसोस इस बात का है कि घरेलू समस्याओं से निपटने की बजाय कैसे मूल रूप से एक ‘चायवाला’ अपने 4 वर्ष के शासनकाल में 36 देशों (मई 2018 तक) की यात्रा करने बारे सोच सकता है? और इन यात्राओं का परिणाम क्या निकला?-हरि जयसिंह

Pardeep

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