क्या हम अहिंसक तरीके से दुनिया के नेता बन कर आगे बढ़ेंगे?

Monday, May 23, 2022 - 04:06 AM (IST)

फोटोग्राफर ये जान कर करीब आ गए कि जो फोटो उन्होंने खींची है वह दुनिया भर में जाएगी और एक इतिहास बन कर रहेगी। 7 दिसम्बर, 1970 की सुबह जर्मन चांसलर विली ब्रांट ने वारसा यहूदी बस्ती के स्मारक पर श्रद्धासुमन अर्पित किए। यह उन हजारों यहूदियों के साहस की याद दिलाता है जिन्होंने जर्मन उत्पीडि़कों से खुद को मुक्त करने के लिए अपनी जान गंवा दी।

ब्रांट ने काले-लाल-सोने के अंतिम संस्कार के पुष्पांजलि से जुड़े रिबन को सीधा किया और एक-दो कदम पीछे हट गया। सैकेंड बीत गए और फिर वह अपने घुटनों पर गिर गया, उसका सिर थोड़ा आगे की ओर झुका हुआ था और वह माफी मांगने की मुद्रा में रहा। विली ब्रांट ने इस बारे अपने संस्मरण में लिखा था, ‘‘जर्मन इतिहास के दुखद दौर और लाखों लोगों की हत्या के बोझ का सामना करते हुए मैंने वही किया जो हम इंसान उस समय करते हैं जब हमें शब्द नहीं सूझते।’’ 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दो दशकों तक जर्मनी (पूर्व और पश्चिम) अपने जघन्य अपराधों की नैतिकता के नाते पश्चाताप और क्षमा याचना करने से कतराता रहा। चूंकि कम्युनिस्ट पूर्वी जर्मनी का दावा था कि वह युद्ध के बाद का फासीवाद-विरोधी देश था और सभी भूतपूर्व नाजी पश्चिमी जर्मनी से थे (जो सच नहीं था), नरसंहार के लिए उसकी जिम्मेदारी नहीं बनती। 

वहीं पश्चिमी जर्मनी ने झूठ कहा कि केवल ‘थर्ड रीच’ के नेतृत्व को ही सामूहिक हत्याओं के बारे में पता था। उनके अनुसार, ‘‘हमारे लोग वीर योद्धा थे, अपराधी नहीं।’’ यह दावा इस तथ्य के बावजूद किया गया था कि नाजी जर्मनी द्वारा बेरहमी से मार दिए गए 1 करोड़ 10 लाख लोगों में से 60 लाख यहूदी थे जबकि और न जाने कितने हमेशा के लिए बेघर हो गए। तो आखिर क्या बदल गया? वास्तव में, 1960 के दशक के उत्तराद्र्ध में पश्चिमी जर्मनी के नाजियों के बच्चों और पोते-पोतियों का अपने परिवारों के अपराधों से सामना शुरू हुआ। 

टैलीविजन पर ‘एश्मैन’ और ‘ऑशवित्ज’ यातना शिविरों में हुए नरसंहारों के मुकद्दमों को देखने के बाद और यूरोप में हुए व्यापक छात्र विरोधों से प्रेरित होकर युवा जर्मनों ने पिछली गलतियों का सच्चा लेखा-जोखा मांगना शुरू किया। इतिहास के साथ उनका यह टकराव, जो शायद ही कभी पूरा हो सके, काफी व्यापक और ईमानदार कहा जा सकता है। 
जर्मनों द्वारा मारे गए 60 लाख यहूदियों को समर्पित बर्लिन के मध्य में एक स्मारक एक ऐसे राष्ट्र का प्रतीक है जो अपनी विफलताओं और स्याह इतिहास का सामना करने से नहीं डरता। 

पोलैंड ने भी, जिसके 30 लाख लोग जर्मन सेनाओं द्वारा मारे गए और लगभग सारा देश ही मलबे में बदल गया था, शुरू में जर्मनी द्वारा अपने अपराधों के लिए मांगी जाने वाली माफी को गंभीरता से नहीं लिया परंतु धीरे-धीरे जर्मनी ने अपने अपराधों के लिए माफी मांगते हुए उन सभी यूरोपीय राष्ट्रों के दिलों में जगह बना ली जिन्हें इसने बड़ा नुक्सान पहुंचाया था। आज यूरोप में कोई सीमा नहीं है, एक कानून तथा एक आर्थिक बाजार है और जर्मनी इसका नेता है। यह सब इसलिए हो सका क्योंकि उसने अपने अतीत का सामना किया और आगे बढ़ा। दूसरी ओर 2000 वर्ष के बाद अपने पैरों पर खड़े होने वाले इसराईल के लिए भी अपने लोगों के साथ हुए अमानवीय अत्याचार को भुलाना सम्भव नहीं था परंतु उसने भी सब भुला कर आगे बढऩा शुरू कर दिया। 

यरूशलम की अपनी यात्रा पर, 1989 में केप टाऊन के आर्कबिशप डेसमंड एम. टूटू ने इसराइलियों से नाजी नरसंहार के लिए जिम्मेदार लोगों के लिए प्रार्थना करने और उन्हें माफ करने का आग्रह किया था। हालांकि, उस समय इसराईल इसके लिए तैयार नहीं हुआ था तथा आर्कबिशप डेसमंड एम. टूटू  को ‘नाजी टूटू’ कह कर दुत्कार दिया गया, परंतु धीरे-धीरे इसराईल कटुता को भुला कर भविष्य की ओर आगे बढऩे लगा और अब वह यू.ए.ई., सऊदी अरब, कतर, मिस्र यहां तक कि जॉर्डन और ईरान के साथ शांति से लेकर व्यापार समझौते भी कर रहा है और इस समय वह जर्मनी का सबसे बड़ा व्यापार सहयोगी है। 

दक्षिण अफ्रीका में भी नेल्सन मंडेला ने महात्मा गांधी से प्रेरित होकर, न केवल अहिंसक तरीकों को अपनाया, बल्कि अश्वेतों पर किए गए अत्याचारों के लिए गोरे लोगों को माफ करने का आह्वान भी किया। अफ्रीकी महाद्वीप में एकमात्र दक्षिण अफ्रीका ही प्रगति की राह पर आगे बढ़ सकने में सफल होने वाला एकमात्र देश है। इसलिए किसी भी राष्ट्र के सुखद भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है कि वह अपने अतीत का सामना बिना किसी इंकार या संकोच से करे, ताकि क्षमा किया जा सके। लेकिन आगे सवाल यह उठता है कि पहले ‘सॉरी’ कौन कहेगा? कौन पहले उदारता दिखाएगा और क्षमा करेगा? 

विश्व के ये उदाहरण भारतीय इतिहास के नजरिए से बहुत छोटा-सा हिस्सा माने जाएंगे क्योंकि हम 4000 वर्षों से किसी भी देश पर आक्रमण किए बिना, एक ही भूमि पर शांति से रह रहे हैं। बेशक हमारी शांतिप्रिय जनता पर अनेकों अत्याचार हुए, कई कुछ उनको सहना पड़ा लेकिन अपनी आनेे वाली पीढिय़ों के लिए हमें अपने अतीत के दर्द को अलविदा कह भविष्य की ओर आगे बढऩा ही पड़ेगा। 

समाज में हिंसा एक साल या एक दशक या एक महीने में भी वापस आ सकती है। महात्मा गांधी ने अपना ‘असहयोग आंदोलन’ चौरीचौरा में ङ्क्षहसा होने के कारण 1922 में बीच में ही बंद कर दिया था परंतु 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान जब राष्ट्रीय आंदोलन के अधिकांश नेता सलाखों के पीछे थे, तो नेतृत्व विहीन नागरिकों ने सफलतापूर्वक एक अहिंसक आंदोलन चलाया परंतु इसके केवल 5 वर्ष बाद विभाजन के दौरान जघन्य हिंसा हुई जबकि गांधी और अन्य नेताओं ने लोगों से हिंसा रोकने का कितना ही आह्वान किया था। 

अब फिर से हम इतिहास की दहलीज पर हैं-क्या हम अहिंसक तरीके से दुनिया के नेता बन कर आगे बढ़ेंगे या अपनी प्रगति को रोकेंगे। अभी अतीत से जुड़ी भावनाएं लगातार बलवती हो रही हैं, लेकिन कहीं ये हमारे भविष्य को ही खतरे में तो नहीं डाल देंगी, आज इसी महत्वपूर्ण प्रश्न पर गम्भीरता के साथ विचार करने की जरूरत है। 

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