एक साथ चुनाव करवाने से लोकतंत्र सूख जाएगा?

Monday, Oct 09, 2017 - 02:39 AM (IST)

विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र इंगलैंड आज तक प्रथाओं तथा परम्पराओं पर काम कर रहा है। इसके अलिखित संविधान को-‘दुर्घटना’ तथा ‘मंसूबों’ का नतीजा भी कहा जाता है। शायद भारत में भी हम संविधान को अपनाने के 67 वर्ष पश्चात कुछ ऐसा ही दावा कर सकते हैं। मूल संविधान में अब तक 101 संशोधन हो चुके हैं जिन्हें हम ‘मंसूबे’ कह सकते हैं जबकि आपातकाल अथवा अनगिनत प्रादेशिक सरकारों को बर्खास्त करना ‘दुर्घटनाएं’ कहा जा सकता है। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विजन 2019 का एक ‘मंसूबा’ है केंद्र तथा राज्यों में एक साथ चुनाव करवाने का प्रस्ताव। लगभग हर साल इस मुद्दे पर बहस शुरू हो जाती है। कुछ को लगता है कि ऐसा मुख्यत: जनता का ध्यान भटकाने के लिए किया जा रहा है (पहले कश्मीर से और अब जी.एस.टी. से)। यह काफी कुछ कांग्रेस द्वारा प्रस्तावित राष्ट्रपति प्रणाली वाली सरकार जैसा ही है। वास्तव में कुछ लोगों को यह भी लगता है कि दोहरे चुनावों के बाद राष्ट्रपति प्रणाली वाली सरकार दूसरा कदम हो सकती है और कुछ लोग मानते हैं कि हो सकता है कि यह महज डराने वाला प्रचार हो। इसके पक्ष में दी जाने वाली एक  दलील है कि सरकार विशेषकर प्रधानमंत्री 5 वर्ष के लिए बिना किसी व्यवधान के शासन पर पूर्ण ध्यान दे सकेंगे। आमतौर पर शिकायत होती है कि अक्सर होने वाले चुनाव निर्णय लेने तथा कठिन अलोकप्रिय फैसलों को लागू करने में अवरोधक बनते हैं। 

एक अन्य दलील यह है कि 5 वर्ष में एक ही बार में चुनाव करवा कर बहुत सारा पैसा बचाया जा सकता है। चुनाव आयुक्त ओ.पी. रावत ने भी बुधवार को कहा था कि सितम्बर, 2018 तक चुनाव आयोग संसद तथा विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने में पूर्णत: तैयार हो जाएगा। तब तक नई ई.वी.एम. तथा वी.वी.पैट (वोटर वैरीफाइबल पेपर ऑडिट ट्रेल) मशीनों की खरीद पूरी हो जाएगी। स्वतंत्रता के पश्चात 26 वर्षों तक केंद्र तथा राज्यों में चुनाव एक साथ होते थे जिनमें वोटर राज्यों के उम्मीदवारों को ज्यादा महत्व दिया करते थे क्योंकि वे उनके अधिक करीब रहते थे। अधिकतर आम वोटर उम्मीदवार को नहीं बल्कि पार्टी को वोट दिया करते थे। चीजें 1969 में कांग्रेस में विभाजन तथा धारा 356 के प्रयोग से अक्सर राज्य विधानसभाओं को भंग किए जाने के साथ बदल गईं। 

परंतु सुगमता या खर्च बचाने जैसे मुद्दों को लोगों की इच्छा तथा इसकी अभिव्यक्ति से अधिक प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है। सबसे कम महंगी  और निरंतरता वाली सरकार तो तानाशाही है जिसे शायद कोई पसंद नहीं करेगा। चुनावों को कम खर्चीला बनाने का बेहतर मार्ग राजनीतिक दलों के चुनावी धन संबंधी नियमों में सुधार करना है। सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश सहित 5 राज्यों के चुनावों से ठीक पहले प्रधानमंत्री ने सबसे कठिनतम फैसलों में से एक नोटबंदी लागू की। यानी सरकार कोई फैसला लेना चाहे तो चुनाव उसके लिए कोई बाधा नहीं। गौर करने वाली अन्य महत्वपूर्ण बात है कि किसी राज्य में संवैधानिक मशीनरी के विफल हो जाने पर क्या विधानसभा भंग किए जाने के बावजूद राज्य के चुनावों के लिए आम चुनावों तक प्रतीक्षा की जाएगी या नहीं? 

उन राज्यों का क्या जिनमें इसी वर्ष चुनावों के बाद सरकारों का गठन हुआ है या जिनके चुनाव अगले वर्ष होने तय हैं? क्या उन सभी राज्यों की विधानसभाओं को 2019 में भंग कर दिया जाएगा ताकि केंद्र तथा सभी राज्यों के चुनाव एक साथ हो सकें? उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में चुनावों के आयोजन में चुनाव आयोग को 6 सप्ताह लगे। 67 करोड़ वोटरों के दो बार वोट डालने के लिए सुरक्षा बलों की तैनाती किस तरह से हो सकेगी? चुनाव आखिर कितने लम्बे चलेंगे, कहीं एक वर्ष लम्बे तो नहीं हो जाएंगे? यदि किताबों में लिखे सभी नियमों का पालन करने के बावजूद 65 वर्ष के इतिहास में चुनाव उपयुक्त ढंग से नहीं हो सके हों तो भी एक मकसद तो पक्का पूरा हुआ है- ‘जनता के प्रति जवाबदेही’ जो लोकतंत्र का मूल तत्व है। 

जनता द्वारा नकार दिए जाने का भय राजनेताओं को उनकी समस्याओं को दूर करने के लिए बाध्य करता है। अक्सर होने वाले चुनावों ने सरकारों को सतर्क रखा है। चुने जाने के बाद जनता के प्रतिनिधि धीरे-धीरे लोगों से दूर होते जाते हैं। यदि 5 वर्षों के लिए कोई चुनाव न हुए तो इस अवधि तक जनता की सुध नहीं ली जाएगी और लोकतंत्र धीरे-धीरे सूख जाएगा। प्रत्येक कानून के लिए जनमत संग्रह करवाना अथवा जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार जनता को देना कुछ अन्य विकल्पों के रूप में गिनाए जा सकते हैं परंतु ये कहीं ज्यादा महंगे सिद्ध होंगे।

Advertising