‘सांसों की डोर थामे’ रखने के लिए भीख मांगने को विवश ‘वृंदावन की विधवाएं’

punjabkesari.in Saturday, Apr 13, 2019 - 03:27 AM (IST)

देश की 4 करोड़ से अधिक विधवाओं में से आधी से अधिक की हालत अत्यंत खराब है। इसका एहसास मुझे 10 वर्ष पूर्व 2009 में बटाला के प्रसिद्ध समाजसेवी महाशय गोकुल चंद जी के निमंत्रण पर वृंदावन जाकर हुआ था। 

वहां उनके द्वारा आयोजित मासिक राशन वितरण समारोह में राशन लेने के लिए आई अपने परिजनों द्वारा परित्यक्त और मात्र एक सफेद साड़ी में अपना शरीर ढांपने की नाकाम कोशिश करती विधवाओं की दयनीय दशा देख कर मेरा मन भर आया था। उत्तर प्रदेश की धर्म नगरियों वृंदावन तथा काशी को ‘विधवाओं के शहर’ भी कहा जाता है जहां आकर वे अंतिम शरण लेती हैं। एक अनुमान के अनुसार मथुरा लोकसभा क्षेत्र जहां 18 अप्रैल को मतदान होना है, के वृंदावन, गोवर्धन तथा राधाकुंड इलाकों में 5 से 6 हजार के बीच विधवाएं रहती हैं। 

यहां कान्हा के चरणों में जीवन की संध्या बिताने की इच्छा से आने वाली विधवाओं में अधिकांश बंगाल, त्रिपुरा, उड़ीसा, झारखंड और असम से हैं। कुछ तो परिजनों द्वारा ठुकराने के कारण यहां पहुंचीं और जब कुछ विधवाओं को रोटी के लिए अपनों के ही आगे हाथ फैलाना पड़ा तो वे इस अपमान से बचने के लिए यहां आ गईं। यह सिलसिला अब भी जारी रहने के कारण यहां विधवाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है और भीख मांगने पर रोक के बावजूद ये बड़ी संख्या में धर्मस्थलों के बाहर भीख मांग कर ही गुजारा करने को विवश हैं। यहां राज्य सरकार के आश्रमों में रहने वाली विधवाओं को सुबह-शाम तीन-तीन घंटे भजन गायन में शामिल होना पड़ता है जिसके बदले में उन्हें खाने के लिए चावल और 20 रुपए जेब खर्च के लिए मिलते हैं। ऐसे में 17 सितम्बर, 2014 को अपने संसदीय क्षेत्र मथुरा में भाजपा सांसद हेमा मालिनी ने यह टिप्पणी करके वृंदावन में रह रही तकदीर की मारी और अपने परिजनों द्वारा परित्यक्त विधवाओं के घावों पर नमक छिड़क दिया : 

‘‘इनके पास बढिय़ा बैंक बैलेंस होता है, अच्छी आय होती है, बढिय़ा बिस्तर होते हैं पर वे आदतन भीख मांगती हैं और इनकी बड़ी संख्या बंगाल, बिहार से आ रही है। अन्य राज्यों से उन्हें यहां आने की जरूरत नहीं है।’’ हेमा के उक्त संवेदनाहीन बयान को लेकर उसकी कड़ी आलोचना हुई जिसके लिए उन्हें माफी भी मांगनी पड़ी थी। वृंदावन की विधवाओं की दयनीय स्थिति में आज पांच वर्ष बाद भी कोई बदलाव नहीं आया है। इस समय जबकि चुनावी मौसम में सभी दलों द्वारा मतदाताओं को रिझाने के लिए तरह-तरह के वादे और दावे किए जा रहे हैं, इनकी समस्याओं की ओर किसी का ध्यान नहीं है। ये आज भी पहले की भांति ही दुख और पीड़ा भरा जीवन बिता रही हैं। 

भोजन लेने के लिए चिलचिलाती धूप में एक भंडारे के आयोजन स्थल पर खड़ी 90 वर्षीय वृद्ध विधवा सुधा दासी के अनुसार उसे याद ही नहीं है कि पिछली बार उसने किसी मतदान में कब भाग लिया था। मूलत: बंगाल की रहने वाली सुधा दासी ने अपना सारा जीवन वृंदावन शहर की संकरी गलियों में बिता दिया है। अधिकांश विधवाएं तो पंजीकृत मतदाता भी नहीं हैं। हालांकि इस बार कुछ विधवाओं के मतदाता पहचान पत्र बनाए गए हैं परंतु इनकी संख्या 10 प्रतिशत से भी कम है। ये भी अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगी इसमें संदेह ही है क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल ने न ही इनके बारे में कभी बात की और न ही कभी इनकी सुध ली है। अधिकांश विधवाओं का कहना है कि अपने जीवन से वे इस कदर उकता चुकी हैं कि उन्हें अपने मताधिकार का प्रयोग करने में कोई रुचि नहीं है।

वृंदावन में 25 वर्षों से रह रही झारखंड से आई एक वृद्ध विधवा ने कहा, ‘‘मैं वोट क्यों डालूं? इससे क्या फर्क पड़ेगा? क्या वे मुझे रोटी और आश्रय देंगे? मेरा जीवन एक नरक है और मेरी अंतिम सांस तक नरक ही रहेगा। मुझे यदि मतदाता पहचान पत्र मिल भी जाए तब भी मैं मतदान नहीं करूंगी।’’ एक अन्य विधवा ने कहा कि जब हमारे घरवालों ने ही हमें छोड़ दिया तो फिर इससे क्या फर्क पड़ता है। देश के लिए हमारा महत्व ही क्या है। वृंदावन की हजारों विधवाओं की यही कहानी है। सुप्रीमकोर्ट द्वारा इनके रहन-सहन और जीवन स्तर में सुधार के लिए समय-समय पर दिए निर्देशों के बावजूद इनकी हालत ज्यों की त्यों है और वे अपनी सांसों की डोर थामे भीख मांगने व मंदिरों में भजन गाने को विवश हैं।—विजय कुमार 


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