क्यों नहीं थम रहे किसान आंदोलन

Monday, Jul 23, 2018 - 02:53 AM (IST)

हाल के वर्षों में किसानों से जुड़े आंदोलनों में तेजी से वृद्धि हुई है। 2014 में 628, 2015 में 2683 तथा 2016 में इनकी संख्या बढ़ते हुए 4837 तक पहुंच चुकी थी। 2016 में ऐसे आंदोलन सबसे अधिक बिहार (2342), उत्तर प्रदेश (1709), कर्नाटक (231), झारखंड (197), गुजरात (123) में हुए हैं। इनके अलावा महाराष्ट्र, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल भी इनसे अछूते नहीं रह सके। 

इनमें से कई आंदोलनों ने हिंसक रूप भी लिया जैसा कि गत वर्ष मध्य प्रदेश में देखा गया था। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2014 से 2016 के मध्य ‘किसान संबंधी उपद्रवों’ में आठ गुणा वृद्धि हुई है। इन उपद्रवों में भूमि तथा पानी पर विवाद से लेकर मौसम के चलते संसाधनों पर पड़े दबाव से उत्पन्न तनाव भी शामिल हैं। इस वर्ष भी किसान आंदोलनों ने अक्सर सुर्खियां बटोरी हैं। कुछ माह पहले किसानों की ओर से 10 दिनों के लिए शहरों को दूध तथा सब्जियों की आपूर्ति बंद करने का आंदोलन चला था और सब्जी विक्रेता कम कीमतों को लेकर सड़कों पर उतरे थे। उसके बाद गन्ना किसानों ने भी विरोध जताया और हाल ही में महाराष्ट्र में दूध की कीमतें बढ़ाने की मांग को लेकर सड़कों पर दूध बहा कर विरोध जताया गया। 

अब तक की सरकारों की ढिलमुल नीतियों के चलते ही आज देश के आधे किसान परिवार कर्ज में डूबे हैं। नैशनल सैम्पल सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि देश के कुल 9.02 करोड़ किसान परिवारों में से 4.68 करोड़ किसान परिवार कर्जदार हैं और सबसे अधिक कर्जदार किसान परिवारों वाले राज्य हैं उत्तर प्रदेश (79 लाख), महाराष्ट्र (41 लाख), राजस्थान (40 लाख), आंध्र प्रदेश (33 लाख), पश्चिम बंगाल (33 लाख)। 

अगले वर्ष देश में होने वाले आम चुनावों के मद्देनजर अब हमारे सत्ताधारी तथा विरोधी दोनों पक्ष के नेताओं का ध्यान फिर से किसानों की ओर जाने लगा है और उन्हें तरह-तरह के प्रलोभनों से लुभाने के प्रयास भी शुरू हो चुके हैं लेकिन दुख की बात है कि अभी भी देश का पेट भरने वाले हमारे मेहनतकश किसानों की मूल समस्याओं को दूर करने के लिए सच्चे प्रयास नहीं हो रहे हैं। आज के किसान जिन तीन प्रमुख जोखिमों का सामना कर रहे हैं- उनका सीधा संबंध कीमतों की अस्थिरता, व्यापार नीतियों से किसानों के हितों को पहुंच रही चोट तथा कृषि संसाधनों पर पड़ रहे भारी दबाव से है। 

भारतीय किसान का सबसे बड़ा जोखिम है कीमतों में अस्थिरता। सब्जियों और दालों की कीमतें विशेष रूप से अस्थिर रही हैं। सब्जियों और दालों का अत्यधिक उत्पादन अक्सर उनकी कीमतों को गिरा देता है जिसे लेकर अक्सर विरोध प्रदर्शन होते हैं। सरकार की अनाज खरीद नीति के चलते चावल और गेहूं की कीमतें अन्य खाद्य पदार्थों की तुलना में कम अस्थिर हैं। हालांकि, सभी अनाज उत्पादकों को इस खरीद नीति का भी लाभ नहीं मिल पाता है। 

न्यूनतम समर्थन मूल्य का भी राजनीति से सीधा संबंध है जिसमें किसी भी सरकार ने गंभीरतापूर्वक मूल्य बढ़ाने की नीति नहीं बनाई है। आम तौर पर चुनावों से ठीक पहले बढ़ौतरी होती है। इसके अलावा फसलों की आधिकारिक खरीद मात्रा में बदलाव भी किसानों की आय की अनिश्चितता बढ़ा देते हैं। गेहूं और चावल के अलावा अन्य फसल उत्पादकों के लिए अनिश्चितता और भी अधिक है क्योंकि राज्यों की ओर से खरीद बेहद कम होती है, भले ही खरीद कीमत 23 प्रमुख फसलों के लिए घोषित की गई हो। 

किसानों का दूसरा जोखिम व्यापार नीतियों से जुड़ा है। खाद्य पदार्थों की खुदरा कीमतों को सीमा में रखने की जरूरत के चलते सरकारें कृषि निर्यात पर प्रतिबंध लगाती रही हैं उससे भी उत्पादकों को चोट पहुंचती है और उनकी आय की अनिश्चितता बढ़ जाती है। भारतीय किसानों के लिए तीसरा सबसे बड़ा जोखिम संसाधनों पर बढ़ रहा दबाव तथा जलवायु परिवर्तन का कृषि पर हो रहा दुष्प्रभाव है। सिंचाई के लिए पानी की कमी तथा वक्त के साथ मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। बढ़ते तापमान तथा अनियमित वर्षा के चलते भी किसानों का जोखिम लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में आसान दरों पर ऋण उपलब्ध न होना किसानों को और हताश कर देता है। किसानों के लिए लागू की गई बीमा योजनाओं की सीमित सफलता के कारण सरकार को फिर से न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की नीति का सहारा लेना पड़ा है जो पहले ही बेअसर रही है।  ऐसे में लगता यही है कि आने वाले दिनों में भी किसान आंदोलनों में कोई कमी नहीं आएगी।

Pardeep

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