जो कोई ‘गंवाता’ है वही ‘जीतता’ है

punjabkesari.in Sunday, Aug 30, 2020 - 01:24 AM (IST)

दिवंगत  आर.के. मिश्रा जोकि ‘पैट्रियाट’ के संपादक तथा आब्र्जवर रिसर्च ऑफ फाऊंडेशन के संस्थापक थे, ने इंदिरा गांधी जिन्हें कि हम सब भली-भांति जानते हैं, के बारे में एक दिलचस्प कहानी बताई। आपातकाल के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष देव कांत बरुआ ने गुप्त रूप से मिश्रा को एक मसला हुआ कागज का टुकड़ा दिया जिसमें तीन कांग्रेसी नेताओं का नाम घसीट कर लिखा गया था। बरुआ गोपनीयता के आधार पर उसे लॉन में ले गए। इंदिरा गांधी को तीनों के बारे में अमरीकी होने का शक था। मिश्रा ने अपने मूल्यांकन को इंदिरा गांधी के साथ सांझा किया। जब मिश्रा बरुआ के पास जाने वाले थे उनका मुंह समाचारों से भरा हुआ था। प्रात: के समाचार पत्रों ने उन्हें एक झटका दिया। पृष्ठ 1 पर उस कागज में लिखे हुए 3 व्यक्तियों के चित्र छपे थे। उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। बरुआ से कॉल आने के बाद पर्दा उठाया गया। 

ऐसा क्या हुआ था? एक समांतर जांच हालांकि अधूरी थी, ने इंदिरा गांधी को जल्द ही कार्रवाई करने के लिए उत्सुक कर दिया। उन्होंने तीनों को अपनी कैबिनेट में ले लिया। इस कहानी का निष्कर्ष यह निकला है कि सशक्त राजनीतिक सहयोगियों को जांच के दायरे में लाने का सही रास्ता यह है कि उनको कैबिनेट सिस्टम में ले लिया जाए। शीत युद्ध के दौरान कांग्रेसियों के बीच पूर्व-पश्चिम संबंधों के कारण एक पदार्थ फर्क बना। शीत युद्ध के बाद एक गंदा  पूंजीवाद देखने को मिला। पार्टी के मूर्खों तथा उनके कार्पोरेट घरानों के साथ ङ्क्षलक पर नजरें रखी गईं। इस चरण के तहत लैफ्ट-राइट, ईस्ट-वैस्ट संबंधों के मुख्य मामले थे। ‘द टाइम्स’, ‘लंदन’ के संवाददाता पीटर हेजलहस्र्ट ने इंदिरा गांधी को स्वयं हित से थोड़ा परे होने के तौर पर उनका वर्णन किया। अपने समय में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विदेशी मामले में फ्री हैंड की अनुमति दे रखी थी मगर हालांकि यहां पर मास्को के साथ दोस्ती की पुष्टि करने में थोड़ी सुस्ती बरती गई। 

विभिन्न पश्चिमी राजधानियों में अपने कार्यकालों को निभाने के बाद फ्रैंकफर्ट ऑलगेमाइन के विदेशी संपादक के तौर पर रिटायर होने वाले वर्नर एडम ने लिखा कि नई दिल्ली तथा मास्को दोनों ही मास्को में भारतीय प्रैस की अनुपस्थिति के कारण डरे हुए थे। अपनी मास्को पोस्टिंग के दौरान उनका नई दिल्ली में कई दोस्तों के साथ संबंध था। एक बार भारतीय राजदूत का इंटरव्यू लेने के दौरान उन्होंने अनातोली डोब्रिनिन जोकि वाशिंगटन में पूर्व सोवियत राजदूत थे, से कॉल रिसीव की। उस समय क्यूबन मिसाइल संकट चल रहा था। डोबरी से इनके साथ छोटी बात एक मिलनसार बात साबित हुई। एडम के कहने का मतलब यह था कि राजधानी में कोई भी भारतीय संवाददाता नहीं था जहां क्रेमलिन में दूतावास के पास उनकी असाधारण पहुंच हो सकती थी। मगर प्रैस के पास स्थाई पसंद थी। उसने लंदन व वाशिंगटन में अपने संवाददाता रखे थे। 

वे दिन जब प्रधानमंत्रियों को भरोसेमंद सहयोगियों के ईस्ट-वैस्ट संबंधों पर स्थिर निगाहें रखने की जरूरत थी, वह समय खत्म हो गया।  पी.एम.ओ. अपने आप में घनिष्ठ मित्रों वाले पूंजीवाद के नए सिस्टम में एक उद्यम या फिर संगठन के लिए एक महत्वपूर्ण चीज बन गई। ऐसे हालातों में वर्तमान कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को कैसी सूचना की जरूरत है। 23 विरोधियों ने पत्र में क्या लिखा है? 

मिसाल के तौर पर सोनिया को अपनी याद्दाश्त को रिफ्रैश करना होगा। उन्हें उन 23 जिन्हें कि विद्रोही कहा जा रहा है, के चित्रों को देखना होगा जिन्होंने सब कुछ हिला कर रख दिया। सोनिया को सूचना देने वालों को इतिहास में ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा। उन्हें मात्र अक्तूबर 2011 का समय देखना होगा जब नीरा राडिया टेप उजागर हुई। टेपों की प्रतिलिपि को साधारण तौर पर पढऩे के बाद यह खुलासा होगा कि कौन-सा विद्रोही राज्यसभा में रहने के बाद अपने जीवन को देख रहा है? हाल ही में मैंने ब्लूमबर्ग में एन.डी. मुखर्जी का लेख पढ़ा जो सोनिया गांधी को उसे पढऩा चाहिए। उसमें लिखा गया कि पूरा प्रभाव पाने के प्रयास में अंबानी के साथ अडानी भी जुड़ गए। कहानी में लिखा गया कि, ‘‘मल्टीपल मीडिया की रिपोर्टें अब कहती हैं कि अहमदाबाद आधारित अरबपति गौतम अडानी जोकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उत्साही समर्थक हैं, पहले से ही निजीकरण किए गए मुम्बई एयरपोर्ट का नियंत्रण लेने में सफल हो जाएंगे। इससे पूर्व अडानी ने 6 छोटे एयरपोर्टों का अनुबंध भी जीत लिया था। नए 6 एयरपोर्टों की नीलामी होगी।’’ 

पत्र लिखने वाले विद्रोहियों के बीच किसके अम्बानी के साथ संबंध हैं? किसके मुंह में गौतम अडानी का नाम सुनकर पानी आ जाता है। कांग्रेसी नेता शशि थरूर तिरुवनंतपुरम एयरपोर्ट का अनुबंध लेना चाहते हैं, जो उस उद्योगपति के पास जाएगा जो मोदी प्रशासन के पैट्रन संतों में से एक है। इन सब बातों को देख कर कांग्रेस अध्यक्ष कहां पर खड़ी हैं। 1969 में जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को दोफाड़ कर दिया तब यह एक भयंकर चरण था। मोहन कुमार मंगलम जैसे पूर्व माक्र्सवादी की सरकार में उपस्थिति से कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस को बाहर से सपोर्ट थी। यह बात पश्चिम के साथ-साथ भीतर में ही समर्थकों के लिए एक पीड़ाकारक बात थी। 

वहीं सोवियत यूनियन 1971 के बंगलादेश आप्रेशन्स के दौरान धुंधला पड़ गया था। इस बात ने बंगाल की खाड़ी में अमरीका के 7वें बेड़े की उपस्थिति को यकीनी बनाया। वहां पर बीचों-बीच परस्पर क्रिया चल रही थी। 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा सशक्त कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं को अलग कर दिया गया जिनका संबंध समाजवादियों, कम्युनिस्ट विरोधियों तथा आर.एस.एस. के साथ था। यह ऐसा मिश्रण था जो 1974 के जे.पी. आंदोलन का कारण बना। आखिरकार इसने आपातकाल को बुलावा दिया तथा 1977 में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। 

70 और 80 के दशक प्रचंड ईस्ट-वैस्ट के जूझने के थे। भारत में कम्युनिस्ट उस समय के ढांचे में प्रासंगिक रहे। 2004 से 2009 का समय सोनिया-मनमोहन सिंह के जादू का समय था। यह ऐसा समय था जब उनके पास 61 कम्युनिस्ट सांसदों का समर्थन था जिन्होंने मनरेगा, वन अधिकार एक्ट, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एक्ट, सूचना का अधिकार एक्ट को आगे बढ़ाया। कुछ हद तक मुश्किल में फंसी कांग्रेस के लिए यह एक मोक्ष के बराबर है। एकमात्र सुपर पावर क्षण में समाप्त हो चुका है। जो बाइडेन तथा बर्नी सैंडर्स की टीम सामाजिक न्याय के लिए इकट्ठी हुई है। अपने आपको पुनर्जीवित करने के स्थान पर कांग्रेस को समानता तथा न्याय के प्लेटफार्म पर खोने के लिए तैयार रहना चाहिए। कांग्रेस को बाइबल संबंधी वाक्य पर भरोसा करना होगा कि जो कोई गंवाता है वही जीतता है।-सईद नकवी
 


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