‘म्यांमार संकट’क्या कर सकती है दुनिया

Monday, Mar 01, 2021 - 02:37 AM (IST)

म्यांमार पुलिस ने एक सैन्य तख्ता पलट के खिलाफ प्रदर्शनों के सप्ताह के सबसे खूनी दिन में रविवार को प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की जिसमें कम से कम 7 लोग मारे गए और अनेकों घायल हो गए। म्यांमार में सेना ने 1 फरवरी को तख्ता पलटने के बाद देश के इतिहास में ब्रिटिश शासन से 1948 में आजादी लेने के बाद तीसरी बार सत्ता हासिल की थी। 

निर्वाचित सरकार की नेता आंग-सान-सू-की और उनकी पार्टी नैशनल लीग फार डैमोक्रेसी ने वर्ष 2015 के चुनावों में एकतरफा भारी जीत हासिल की थी। सेना द्वारा सत्ता हासिल करने के बाद सू-की और उनकी पार्टी के अधिकांश नेताओं को हिरासत में लेने के बाद से म्यांमार अराजकता के दौर से गुजर रहा है। 

ऐसा नहीं कि आजादी के बाद म्यांमार सेना से आजाद हो चुका था। उसका संविधान (स्वतंत्रता के बाद का तीसरा) सैन्य शासकों द्वारा 2008 में लागू किया गया था। देश को एक द्विसदनीय विधायिका के साथ एक संसदीय प्रणाली के रूप में शासित किया जाता है। सेना द्वारा 25 प्रतिशत विधायक नियुक्त किए जाते हैं बाकी चुनावी प्रणाली से आते हैं। इससे पहले म्यांमार में वर्ष 1962 से 2001 तक सैन्य शासन रहा। 1990 के दशक में सू-की ने म्यांमार के सैन्य शासकों को चुनौती दी। हालांकि, म्यांमार की स्टेट काऊंसलर बनने के बाद से आंग-सान-सू-की ने म्यांमार के अल्पसंख्यक रोङ्क्षहग्या मुसलमानों के बारे में जो रवैया अपनाया उसकी खूब आलोचना हुई। लाखों रोहिंग्या ने म्यांमार से पलायन कर बंगलादेश में शरण ली। 

एशिया के एक महत्वपूर्ण देश म्यांमार में फिर से तानाशाही की दुनिया भर में आलोचना हुई है। अधिकतर देशों ने चुनी हुई सरकार को इस तरह से हटाए जाने पर निराशा जाहिर करते हुए वहां दोबारा लोकतंत्र बहाली की मांग की है परंतु प्रश्न उठता है कि आखिर दुनिया के देश म्यांमार में हालात सुधारने के लिए क्या कुछ करने में सक्षम हैं? म्यांमार की सेना द्वारा नियुक्त विदेश मंत्री वुना-माऊंग-लिविन के अपने थाई और इंडोनेशियाई समकक्षों के साथ अघोषित बैठक के लिए बुधवार को बैंकाक आगमन के साथ ही दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के लिए एक कठिन राजनयिक कोशिश की शुरूआत हो चुकी है। 

वास्तव में म्यांमार में जो कुछ भी हो रहा है, उसमें रुचि रखने वाले देशों के लिए यह संकट एक असामान्य चुनौती है। म्यांमार को लेकर दुनिया की सैन्य और आर्थिक महाशक्तियों की प्रतिक्रियाओं ने लोगों का सबसे अधिक ध्यान खींचा है-अमरीका के बाइडेन प्रशासन द्वारा प्रतिबंध लगाए गए हैं और यूरोपीय संघ द्वारा इनकी तैयारी हो रही है। वहीं चीन की ओर से आशा के अनुरूप एक कोरा-सा बयान आया जिसमें सभी पक्षों से अपने मतभेदों को शांति से निपटाने का आग्रह किया गया है लेकिन चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के एक बयान का समर्थन किया जिसमें आंग-सान-सू-की की रिहाई और लोकतांत्रिक मानदंडों की वापसी का आह्वान किया गया है। 

इससे पता चलता है कि चीन भी इस तख्तापलट से खुश नहीं था लेकिन अमरीका और चीन दोनों के ही पास म्यांमार संकट से निपटने को लेकर सीमित विकल्प हैं। इस क्षेत्र में अमरीका का प्रभाव बहुत कम है और यह  पिछली बार के उस समय से भी कम है जब 1990 के दशक में अमरीका ने म्यामांर पर व्यापक आर्थिक प्रतिबंध लगाए थे। 

इस तख्तापलट के पीछे चीन का हाथ तथा समर्थन होने की भी खूब चर्चा हो रही है। इसका एक कारण यह भी है कि इसका सबसे अधिक लाभ चीन को होता नजर आता है क्योंकि एक सुपरपावर के रूप में वह नई सरकार को हथियारों की आपूर्ति जारी रखने से लेकर और निवेश के रूप में इस्तेमाल कर सकता है परंतु यह कोई लुकी-छुपी बात नहीं है कि चीन के संबंध आंग-सान-सू-की के नेतृत्व वाली ‘नैशनल लीग फॉर डैमोक्रेसी’ के साथ काफी अच्छे थे। म्यांमार चीन को एक बड़ी उपभोक्ता मार्कीट का प्रस्ताव देता है। 2019 में 6.39 बिलियन डालर से ज्यादा का निर्यात किया गया। म्यांमार प्रस्तावित बंगलादेश, चीन, भारत आॢथक कोरिडोर का प्रवेश द्वार भी है। जाहिर है कि एक अस्थिर तथा अप्रत्याशित तानाशाही सरकार के साथ काम करने के लिए चीन भी अधिक इच्छुक नहीं होगा। 

म्यामांर में संयुक्त राष्ट्र संघ का इतिहास भी खास सफल नहीं रहा है। वर्तमान विशेष राजदूत स्विस राजनयिक क्रिस्टीन स्क्रैनर बर्गेनर के सामने तानाशाही सरकार से बातचीत शुरू करने और सैन्य जनरलों का भरोसा जीतने की लगभग एक असम्भव-सी चुनौती है जो संयुक्त राष्ट्र संघ के सैक्रेटरी जनरल एंटोनियो गुटेरेस के इस तरह के बयानों के चलते और भी कठिन हो गई है कि ‘‘तख्तापलट को असफल करना होगा।’’ तख्तापलट का नेता जनरल मिन-ओन्ग-लैंग शायद ही प्राप्त शक्तियों का त्याग करने के लिए किसी तरह की बातचीत के लिए राजी होगा। 

‘आसियान संगठन’ एक साथ इस मुद्दे पर नहीं बोल सका है। इसके सदस्यों थाईलैंड, वियतनाम, कम्बोडिया यहां तक कि फिलीपीन्स ने भी तख्तापलट को म्यांमार का आंतरिक मसला बताते हुए  इसकी आलोचना करने से इंकार कर दिया। सबसे बड़े सदस्य देश इंडोनेशिया ने ‘आसियान’ के बीच हमेशा की तरह पहल करने की कोशिश जरूर की है। अपनी सभी कमजोरियों के बावजूद ‘आसियान’ एक ऐसा मंच है जहां म्यांमार के वरिष्ठ अधिकारियों का स्वागत किया जाएगा और जहां बातचीत के रास्ते हमेशा खुले रहेंगे। दुनिया के बाकी हिस्सों के संदेशों को जनरलों तक पहुंचाने और संकट को हल करने के बारे में उनके विचार सुनने के लिए यह एकमात्र रास्ता हो सकता है।

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