वीजा नवीकरण समस्या और भारत लौटने वाले असंख्य इंजीनियर

Monday, Apr 24, 2017 - 12:00 AM (IST)

किसी भी भारतीय को साम्राज्यवादी का रेखाचित्र बनाने को कहा जाए तो शर्तिया  तौर पर वह लंम्बी टोपियों वाले अंग्रेज या फ्रांसीसी सैनिकों की बात करेगा। देश पर 200 वर्ष तक शासन करने वाले इन साम्राज्यवादियों की छवि से पैदा हुई भारतीयों की भावनाओं में आज भी असुरक्षा, नफरत व भय झलकता है।

भारत के श्रेष्ठ परंतु महंगे कपड़ा उद्योग और इन्हें वित्त पोषित करने वाले कुशल बैंकिंग तंत्र ने केवल बंदूक के सामने अपने घुटने नहीं टेके थे, इसके पीछे बाजार की ताकतें भी थीं। पश्चिमी देशों में औद्योगिक क्रांति के साथ मशीनों पर बने सस्ते कपड़ों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को नष्टï कर दिया था।

बेशक भारतीय टैकीज (प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों) की साम्राज्यवादियों से तुलना बेतुकी बात लगे परन्तु पश्चिमी दुनिया में उनकी छवि कुछ ऐसी ही बना दी गई है। भारतीय प्रौद्योगिकी कम्पनियां मैनचैस्टर और लैंकाशायर की ‘नई कपड़ा मिलें’ हैं जो ऐसी सस्ती सेवाएं दे रही हैं जिनका मुकाबला यू.के. और यू.एस. की स्थानीय आई.टी. कम्पनियां नहीं कर पा रही हैं।

हाल ही में कुशल विदेशी कामगारों  के लिए जारी एक वीजा कार्यक्रम को ऑस्ट्रेलिया ने रद्द कर दिया है जबकि एच-1 बी वीजा सिस्टम में बदलाव करने वाले अमरीकी आदेशों को अंतिम रूप दिया जा रहा है।

ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री मैल्कम टर्नबुल ने 4 वर्ष पुराने वीजा सिस्टम के तहत उच्च कुशल आप्रवासियों को दिए जाने वाले 457 वीजा को खत्म कर दिया है। आई.टी. इंडस्ट्री के जानकारों की नजर में यह एक चौंकाने वाला फैसला है जो भारत यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी के साथ मैल्कम की नई-नई दोस्ती के कुछ ही दिनों बाद आया है। इस वक्त 95 हजार कुशल आप्रवासी 457 वीजा पर ऑस्ट्रेलिया में हैं जिनमें बड़ी संख्या भारतीयों की है।

गत नवम्बर में यू.के. ने भी नई वीजा नीति की घोषणा की थी। इसके अंतर्गत टीयर 2 इंट्रा-कम्पनी ट्रांसफर वर्ग के तहत आवेदन करने वालों के लिए वेतन सीमा बढ़ा दी गई थी। यह वही वीजा है जिसके अंतर्गत भारतीय आई.टी. कम्पनियां भारत से अपने कर्मचारियों को यू.के. ले जाती हैं। इंगलैंड की प्रधानमंत्री ‘थेरेसा मे’ द्वारा दिल्ली में दिलाए अनेक आश्वासनों के बावजूद ये बदलाव कर दिए गए।

अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के ‘बाय अमेरिकन हायर अमेरिकन’ अभियान ने एच-1बी तथा एल1 वीजा प्राप्त करने के लिए भारतीय आई.टी. पेशेवरों की राह में कई अवरोध खड़े कर दिए हैं। एच-1बी वीजा भारतीय टैकीज में अत्यधिक लोकप्रिय था जिससे बड़ी संख्या में उन्हें अमरीकी कम्पनियों में नौकरियां मिल सकी थीं।

सिंगापुर तथा न्यूजीलैंड 2 अन्य देश हैं जिन्होंने ‘तकनीकी आप्रवासियों को बाहर रखने’ वाले कानून पास किए हैं। वहां कम्पनियों से कहा गया है कि वे वर्क परमिट के लिए आवेदन करने से पहले रिक्तियों के लिए स्थानीय विज्ञापन दें। फरवरी, 2016 से यह भारतीय कम्पनियों के वर्क परमिट आवेदनों को रोक रहा है। नि:संदेह इन सभी देशों का अपने नागरिकों के प्रति पहला कत्र्तव्य बनता है क्योंकि आप्रवासी स्थानीय लोगों से कम वेतन पर भी काम करने को राजी हैं। स्पष्ट है कि कभी मुक्त अर्थव्यवस्था के ढोल पीटने वाला पाश्चात्य जगत अब ‘सीमित संरक्षणवादिता’ को अपना रहा है।

इस बीच जहां तक भारत का संबंध है क्या हम उन असंख्य वापस आने वाले इंजीनियरों को खपाने के लिए तैयार हैं? दूसरी बात यह है कि चंूकि अभी भी भारतीय बाजार पारंपरिक रोजगार आकांक्षियों को ही नौकरी दे रहा है, लिहाजा इस घटनाक्रम से विरल प्रतिभाओं को खपाना प्रभावित हो सकता है।

भारतीयों में ‘STEM’ (Science, Technology, Engineering and Mathematics) विषय के प्रति कुदरती झुकाव है इस नाते हम विश्व में इंजीनियरों के दूसरे सबसे बड़े उत्पादक हैं। क्या भारतीय टैक कंपनियों को नए विश्व उपनिवेशवादियों के रूप में देखा जा सकता है और क्या वे देश की आॢथक स्थिति को सुधार सकती हैं?

सवाल पैदा होता है कि ‘‘क्या भारतीय टैकियों को सचमुच ग्लोबल उपनिवेशवादियों के रूप में देखा जा सकता है? अथवा यदि वे स्वदेश लौटने के लिए मजबूर होते हैं तो क्या भारतीय व्यवस्था उनकी प्रतिभा का सद्प्रयोग कर पाएगी?’’

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