अमेरिका-तालिबान संधि

Monday, Mar 02, 2020 - 01:49 AM (IST)

अमेरिका और तालिबान के मध्य लम्बे प्रयासों के बाद शनिवार को एक शांति संधि हुई। वार्ता के दो बार बुरी तरह टूटने तथा तालिबान को इसके लिए मेज पर लाने के लिए अफगानिस्तान के असंख्य प्रयासों के बाद हुई इस संधि पर हस्ताक्षर करने वालों में अफगानिस्तान की जनता की चुनी हुई सरकार शामिल नहीं है। अमेरिका की ओर से शांति दूत जालमे खालिजाद और तालिबान की ओर से मुल्ला अब्दुल गनी बरादर जोकि तालिबान के संस्थापक और फरवरी, 2010 से अक्तूबर, 2018 तक पाकिस्तान की जेल में थे, अमेरिकी निवेदन पर वार्ता के लिए बाहर लाए गए। 

अमेरिकी पक्ष का दावा है कि दशकों लम्बे संघर्ष के बाद हो रही यह संधि ‘अफगानिस्तान में नए दौर’ की शुरूआत हो सकती है। फिलहाल यह संधि अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान से निकलने का टाइमटेबल तय करने तथा तालिबान द्वारा युद्ध न छेडऩे की सहमति के बारे में है। वार्ता की मेजबानी कर रहे कतर में ही इस संधि पर अंतिम हस्ताक्षर किए गए। दोहा में 30 देश इस संधि के गवाह बने। इस वक्त अमेरिका अफगानिस्तान में मौजूद अपने 12000 से 13000 सैनिकों की संख्या महीने भर में 8,600 तक कम कर सकता है और वर्ष भर में सभी नाटो देशों की सेनाएं लौट जाएंगी। अमेरिका में 9/11 आतंकी हमले के पश्चात उसने यह संघर्ष इसलिए शुरू किया क्योंकि तालिबान ने अल कायदा को शरण दी थी। तब से अब तक 1 लाख अफगान नागरिकों की जान इस संघर्ष में गई है। 

सैन्य तथा पुनर्निर्माण खर्चों के रूप में 2001 से अब तक अमेरिकी करदाताओं को 1 ट्रिलियन डॉलर का बोझ सहना पड़ा है। आगामी राष्ट्रपति चुनावों के दृष्टिगत डोनाल्ड ट्रम्प इस संधि को अमली जामा पहनाने को उत्सुक हैं क्योंकि यह उनके चुनाव घोषणा पत्र का हिस्सा रही है। परंतु महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या यह संधि तालिबान को दोबारा आतंकी गतिविधियों में संलिप्त होने से रोकने के लिए पर्याप्त होगी, विशेषकर इन हालात में जब कुछ सप्ताह पहले तक ही उसने अमेरिकी ठिकानों को निशाना बनाया था। अब तक जिन कुछ चिंताजनक तथ्यों की जानकारी है उनमें सबसे पहले तो इस संधि पर हस्ताक्षर करने वालों में से एक यह है कि पाकिस्तान की खुल कर तालिबान के ‘उस्ताद’ के रूप में वापसी हो रही है। हमेशा से तालिबान का समर्थक रहा पाकिस्तान फिर से भारत के विरुद्ध इसकी मदद से षड्यंत्र रच सकता है। ‘इलाके में शांति तथा स्थिरता लाने के प्रयासों’ के प्रति भारतीय समर्थन दर्शाने के लिए कतर सरकार के निमंत्रण पर दोहा गए विदेश सचिव को अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार के साथ खड़े होना पड़ा। 

ऐसे में भारत की भूमिका सबसे अधिक प्रभावित होगी। भारतीय विमान के हाईजैक होने पर पाकिस्तानी अधिकारियों के रास्ते तालिबान के साथ वार्ता के अलावा तालिबान से भारत का कोई संबंध नहीं रहा है परंतु शायद अब भारत को उनसे संवाद कायम करने पर विचार करना पड़ सकता है। भारत ने वहां की सरकार के तहत अफगानिस्तान में भारी निवेश (3 बिलियन डालर्स) किया है जिसमें उनकी संसद, सड़कों, स्कूल, पावर प्लांट का निर्माण आदि शामिल है। इसके अलावा चाबहारपोर्ट और उससे जाती सड़क, जिस पर भारत ने भारी निवेश किया है, पर भी इसका असर पड़ेगा। 

चूंकि अफगानिस्तान के वर्तमान संविधान को तालिबान ने स्वीकार नहीं किया है और वह ‘इस्लामिक शासन’ की नीतियां लागू करने को इच्छुक है, अत: नई सरकार के बारे में अभी कुछ स्पष्ट नहीं है कि वह भारत के प्रति क्या रुख अपनाएगी। महिला अधिकार एक अन्य गम्भीर मुद्दा है क्योंकि तालिबान महिलाओं से अमानवीय बर्ताव करने के लिए कुख्यात रहा है और वह लड़कियों की शिक्षा तथा आजादी को इस्लामिक शासन के तहत की स्वीकृति नहीं देगा। भारत को भी नए अफगानिस्तान को लेकर सतर्क रहना होगा!

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