‘उज्जैन के कुंभ में’ ‘संतों के बीच हुई खूनी लड़ाई’

punjabkesari.in Saturday, May 14, 2016 - 01:59 AM (IST)

प्राचीन काल से ही भारत के जन-जीवन पर संत समाज का अत्यधिक प्रभाव रहा है तथा लोग इनके जीवन से मार्गदर्शन एवं प्रेरणा पाते रहे हैं परंतु अब जमाना बदल गया है।  समय के साथ-साथ जिस तरह समाज में अनेक कमजोरियां तथा कुरीतियां आई हैं, संत समाज भी इनसे अछूता नहीं रहा। राजनीतिज्ञों में व्याप्त सत्ता लिप्सा की भांति संत समाज में भी सत्ता की भूख जाग उठी है। 
 
इसका प्रमाण 12 मई को उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ में देखने को मिला जब सुबह-सवेरे ‘आवाहन अखाड़े’ के ‘श्रीमहंत पद’ के चुनाव को लेकर साधुओं के प्रतिद्वंद्वी धड़ों के 50 सदस्यों के बीच हुए खूनी संघर्ष में 6 साधु घायल हो गए और 2 साधुओं को पुलिस ने इस मामले में गिरफ्तार कर लिया।
 
उल्लेखनीय है कि अखाड़े में चार ‘गादियों’ (गद्दियों) के चुनाव होने थे जिनमें से तीन ‘गादियों’ के चुनाव तो शांतिपूर्वक निपट गए परंतु ‘16 मढ़ी’ नामक चौथी ‘गादी’ के चुनाव को लेकर उस समय विवाद की स्थिति बन गई जब पंचों द्वारा सर्वसम्मति से किए गए चुनाव पर प्रतिद्वंद्वी धड़े ने आपत्ति कर दी और चुने गए ‘श्री महंत’ को उठा लिया। 
 
इस पर झगड़ा शुरू हो गया जिसने अत्यंत गम्भीर रूप धारण कर लिया। इसमें साधुओं ने एक-दूसरे पर तेज धारदार तलवारों, त्रिशूलों, डंडों, चिमटों और भालों का खुल कर इस्तेमाल किया और एक-दूसरे पर टूट पड़े। 
 
कुछ तीर्थयात्रियों के अनुसार इस संघर्ष में उन्हें 3 गोलियां चलने की आवाज भी सुनाई दी जिसकी पुलिस जांच कर रही है। तुलसी दास जी के अनुसार संत चलते-फिरते तीर्थ हैं। वे अपने हृदय की स्वाभाविक पवित्रता के चलते सारे सांसारिक-बंधन त्याग कर समाज के मार्ग दर्शन और कल्याण के लिए संत वेश धारण करते हैं। यदि वे भी अपने सद्गुणों को त्याग कर पद लिप्सा के वशीभूत ऐसा आचरण करेंगे तो फिर उनमें और साधारण लोगों में अंतर ही क्या रह गया?     
 

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