दलबदल के जाल से बचने के लिए नेताओं ने ढूंढ लिए जुगाड़ू तरीके

Monday, Jul 04, 2022 - 03:56 AM (IST)

गत 15 दिनों में भारतीय राजनीति में वही सब दिखा जो अब तक कई बार दोहराया जा चुका है-अर्थात सरकार गिराने के लिए विद्रोही विधायकों को एक आलीशान सुरक्षित रिजॉर्ट में ले जाया गया। इस बार निशाने पर महाराष्ट्र सरकार थी जिसके विरुद्ध शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला था। यदि अन्य देशों के संविधान की तरफ देखें तो ब्रिटिश संसद के सदस्य किसी भी समय राजनीतिक दलबदल कर सकते हैं। इसे वे ‘क्रास ओवर’ कहते हैं यानी सरकार की ओर से उठ कर विपक्षी सीटों पर जा बैठना। 54 देशों के कॉमनवैल्थ में मात्र 23 देशों में दलबदल विरोधी कानून हैं और उनमें से भारत में ही यह सबसे कठोर है। 

भारत में जवाहर लाल नेहरू के बाद से दलबदल शुरू हुआ जब कांग्रेस को अन्य दलों का सामना करना पड़ा और इसके साथ ही ‘आया राम गया राम’ की रिवायत शुरू हुई। वर्षों की लम्बी बहस के बाद 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दलबदल विरोधी कानून’ पारित किया गया और इसे संविधान की दसवीं अनुसूची में जोड़ा गया। हालांकि 2003 में इसमें एक बार फिर संशोधन हुआ। 

इसमें प्रावधान है कि ‘अपनी मूल पार्टी की सदस्यता स्वेच्छा से छोडऩे’ के लिए सदस्य को सदन से अयोग्य ठहराया जा सकता है। इसके अलावा अपनी पार्टी द्वारा जारी किसी भी निर्देश के विपरीत मतदान करने या मतदान में हिस्सा न लेने के लिए सदन से निष्कासन की अनुमति है परंतु विचारणीय प्रश्र यह है कि क्या यह कानून भारत में सफल रहा है? 

जैसा कि भारतीयों को बड़ा जुगाड़ू माना जाता है, हमारे नेताओं ने भी इस कानून से बच कर पार्टी बदलने के तरीके तलाश कर लिए हैं। एक आम तरीका यह है कि सत्तारूढ़ दलबदल कानून को ताक पर रख कर विपक्षी दल के विधायकों को तोड़ता है। जब पीड़ित दल उन्हें अयोग्य ठहराने के लिए स्पीकर के पास जाता है तो स्पीकर कुछ नहीं करते। जैसे कि मणिपुर में 2017 में विधानसभा चुनावों के तुरंत बाद कांग्रेस के 7 विधायक भाजपा में शामिल हो गए। स्पीकर ने सुप्रीम कोर्ट के 4 सप्ताह के भीतर निपटारा करने के निर्देश के बावजूद उन्हें अयोग्य करने की याचिका को 2 साल तक लटकाए रखा। अंतत: सुप्रीम कोर्ट को दखल देते हुए मंत्री टी. श्यामकुमार सिंह को मंत्रिमंडल से हटाने के लिए विशेष अधिकारों का उपयोग करना पड़ा था।

हाल के वर्षों में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में बड़ी संख्या में विरोधी दलों के विधायक सत्तारूढ़ दल में शामिल हुए लेकिन उन्हें अयोग्यता का सामना नहीं करना पड़ा। कर्नाटक में 2010 में भाजपा के विद्रोही विधायकों के एक गुट ने मुख्यमंत्री बी.एस. येद्दियुरप्पा को पद से हटाने के लिए राज्यपाल से भेंट करके ‘विशेष संवैधानिक प्रक्रिया’ शुरू करने को कहा परंतु स्पीकर ने उन्हें स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोडऩे का आधार बना कर अयोग्य करार दे दिया। हालांकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के इस फैसले को पलट दिया। इस आधार पर 2017 में अन्नाद्रमुक के 18 विधायकों के गुट को तत्कालीन मुख्यमंत्री पलानीसामी के विरुद्ध राज्यपाल से मिलने पर स्पीकर ने अयोग्य करार दे दिया। 

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि दलबदल कानून का देश में जरा भी पालन नहीं हो रहा है। इस कानून की असफलता के लिए कुछ विशेष कारण जिम्मेदार हैं। इसे लेकर पहली गलती है स्पीकर की ओर से विद्रोही विधायकों को अयोग्य ठहराने के विरुद्ध जवाब देने के लिए अधिक मोहलत देना। क्यों न इसके लिए 2 दिन ही दिए जाएं! ऐसे में स्पीकर का निष्पक्ष होना अनिवार्य है। 

दूसरी गलती चूंकि सुप्रीम कोर्ट की है जो अक्सर इन मामलों में फैसला लेने में लम्बा समय लेती है। इससे विधायकों को तोडऩे तथा जोड़-तोड़ करने का समय मिलता है। साथ ही ऐसा करने वालों के लिए सजा का कोई प्रावधान नहीं है। ये दो बड़े कारण हैं जिनकी वजह से दलबदल कानून का उल्लंघन हो रहा है क्योंकि जब किसी सरकार को अल्पमत में लाने के लिए राजनीतिक जोड़-तोड़ की बात आती है तो समय बहुत महत्वपूर्ण होता है। 

महाराष्ट्र में शिवसेना के असंतुष्ट विधायकों को दलबदल विरोधी कानून के अंतर्गत डिप्टी स्पीकर के नोटिस का जवाब देने के लिए 12 जुलाई तक का समय देने के आदेश से सुप्रीम कोर्ट ने उनके लिए अयोग्यता के खतरे के बिना अपना उद्देश्य पूरा करना संभव बना दिया। कई लोगों का मत है कि हमें दलबदल कानून को ही समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि इसका कोई लाभ नजर नहीं आता।

क्यों न विधायकों को अधिकार दे दिया जाए कि वे जिसका चाहे समर्थन करें, या जिसे भी वोट देना चाहें दे सकें क्योंकि ऐसा न करके हम उन्हें उनकी पार्टी का ही गुलाम बना देते हैं जो उनकी अभिव्यक्ति के अधिकार को भी समाप्त करता है। पर अभी हमारा लोकतंत्र इतना परिपक्व नहीं है कि ऐसा किया जा सके। यहां परिपक्वता का अर्थ केवल लोकतंत्र के पुराने होने से ही नहीं है, देखना यह है कि क्या हमारे नेताओं में इतनी ईमानदारी व नैतिकता है कि वे अच्छाई-बुराई तथा अराजनीतिक मुद्दों को सामने रखकर देश हित में निष्पक्ष फैसले ले सकें?

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