बलात्कार के खिलाफ आवाज हैं इस बार के नोबेल शांति पुरस्कार

Monday, Oct 08, 2018 - 04:01 AM (IST)

बहस चाहे कॉलेज में हो रही हो, किसी रैली या टी.वी. चैनल पर किसी समस्या की उपेक्षा करनी हो तो अक्सर उसे ‘फस्र्ट वल्र्ड प्रॉब्लम’ बता दिया जाता है। किसी सवाल को टालने या किसी समस्या के महत्व या गम्भीरता को खत्म करने के लिए राजनेता अक्सर इस वाक्यांश का प्रयोग करते हैं। पर एक समस्या जिससे सभी देशों व सभी वर्ग की महिलाओं को जूझना पड़ रहा है वह है, महिलाओं का लगातार हो रहा शारीरिक व मानसिक उत्पीडऩ। कार्यस्थलों पर, कोचिंग सैंटर के बाहर, मंदिर में तथा स्कूल तक में बलात्कार हो रहे हैं।

युद्ध क्षेत्रों में दुश्मनों को गुलाम बनाने या उनका मनोबल तोडऩे के लिए उनकी महिलाओं से बलात्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। ऐसे माहौल में इस साल नादिया मुराद तथा डा. डैनिस मुकवेगे को दिया गया नोबेल शांति पुरस्कार ‘रेप कल्चर’ के खिलाफ यह मजबूत संदेश है कि शॄमदा बलात्कार पीड़िता को नहीं, बलात्कारी को होना चाहिए। 24 साल की उम्र में नोबेल पाने वाली नादिया दूसरी सबसे छोटी आयु की महिला हैं। हालांकि, इस बार का नोबेल शांति पुरस्कार दो अभूतपूर्व शख्सियतें सांझा कर रही हैं। 

डा. डैनिस मुकवेगे ने डैमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में शांति स्थापना के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की तो नादिया मुराद ने जनसंहार तुल्य अत्याचार सह रही यजीदी महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए जी-जान लगा दी है। मुकवेगे ने बलात्कार तथा भयानक आंतरिक चोटों की शिकार महिलाओं का उपचार करते हुए एक डॉक्टर के रूप में शुरूआत की। नासूरों को सिलते हुए उन्होंने महसूस किया कि इस ङ्क्षहसा का इलाज केवल टांकों से नहीं होगा, इस बारे में समाज में जागरूकता लाना बेहद जरूरी है। 

इस मुद्दे पर खुल कर अपनी बात रख कर उन्होंने अपने देश के तानाशाह राष्ट्रपति जोसफ कबीला तथा पड़ोसी रवांडा से भी दुश्मनी मोल ले ली। 2012 में हथियारबंद लोगों ने उनकी जान लेने की कोशिश की जिसमें उनका ड्राइवर मारा गया। उनके परिवार को बंधक बनाए जाने के बावजूद उन्होंने ‘हत्याओं की राजधानी’ के नाम से कुख्यात हो चुके कांगो में अपना संघर्ष जारी रखा जहां ‘ऑटोकैनिबेलिज्म’(स्वभक्षण) तथा ‘रीरेप’ (दोबारा बलात्कार) जैसे शब्दों का जन्म हुआ है। मुकवेगे की कहानी बेहद प्रेरणादायक है और बलात्कार पीड़िताओं को दी गई उनकी मदद भी प्रशंसा से अधिक की हकदार है, इस पुरस्कार की सच्ची हकदार नादिया मुराद भी हैं। 

अब मानवतावादी नेत्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी नादिया एक यजीदी हैं जो सीरिया-ईराक सीमा पर एक गांव में रहती थीं। 2014 में उनके यजीदी गांव में कत्लेआम किया गया और उनकी मां का बलात्कार करके मौत के घाट उतार दिया गया था। खुद उन्होंने तीन महीने आई.एस. आतंकियों की ‘सैक्स स्लेव’ के रूप में बिताए। न जाने कितनी बार उन्हें बेचा और खरीदा गया और कैद के दौरान शारीरिक अत्याचार का शिकार हुई। किसी तरह वह उनकी कैद से भाग निकलीं और एक एक्टिविस्ट बन गईं। उन्होंने बहुत सी महिलाओं को आई.एस. से बचाया। 

रूढि़वादी यजीदी संस्कृति की वजह से उनके जैसे अत्याचारों का शिकार होने के बावजूद अधिकतर यजीदी महिलाएं इस बारे में बात नहीं करना चाहतीं परंतु नादिया ने अपनी कहानी बार-बार लोगों के सामने रखी ताकि इस मुद्दे पर दुनिया का ध्यान जाए और साथ ही इसे लेकर उनके अपने लोगों की सोच बदल सके। पहले बलात्कार की शिकार यजीदी महिलाओं से कोई पुरुष शादी करने को तैयार नहीं होता था परंतु नादिया द्वारा आवाज उठाने के बाद यजीदी पुरुष बलात्कार की शिकार महिलाओं से शादी के लिए आगे आ रहे हैं। यह नोबेल शांति पुरस्कार उस वक्त आया है जब पश्चिमी देशों में ‘मी टू’ अभियान बलात्कार पर सबका ध्यान दिला रहा है कि किस तरह समाज में महिलाओं को कुचलने के लिए बलात्कार को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। 

परंतु भारत में अनेक बलात्कार पीड़िताओं द्वारा एफ.आई.आर. दर्ज करवाने के लिए सामने आने के बावजूद हमारे यहां ‘मी टू’ अभियान जोर नहीं पकड़ सका है। लोगों को आज भी लगता है कि महिलाओं को यौन उत्पीडऩ के खिलाफ नहीं बोलना चाहिए,तो कुछ लोगों को लगता है कि उन्हें ऐसे मामलों को उठाना ही नहीं चाहिए। इस तरह की सोच के बीच शारीरिक, मानसिक अपराध किस तरह रुकेंगे?

Pardeep

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