3 साल के बाल विवाह के केस का फैसला आया 14 साल बाद

punjabkesari.in Sunday, Nov 26, 2017 - 01:01 AM (IST)

देश की अदालतों में लंबित मुकद्दमों का आंकड़ा ट्रायल अदालतों में लंबित 2.54 करोड़ केसों सहित 3.2 करोड़ की संख्या को पार कर चुका है तथा दूसरी ओर देश की छोटी-बड़ी सभी अदालतों में न्यायाधीशों की भारी कमी चल रही है। न्याय प्रक्रिया की धीमी गति के कारण ही न्याय पालिका लगातार बढ़ रहे मुकद्दमों के बोझ तले दबी जा रही है। 

अकेले कोलकाता हाईकोर्ट में ही लगभग सवा दो लाख मामले लंबित हैं परंतु वहां केवल 32 जज ही काम कर रहे हैं जबकि वहां जजों के स्वीकृत पदों की संख्या 72 है। इसी प्रकार पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में 85 जजों की स्वीकृत संख्या के मुकाबले 50 जज ही काम कर रहे हैं। हालत यह है कि कई मामलों में तो केस पीड़ित पक्षकार के मरने के बाद भी चलते रहते हैं जबकि अनेक मामलों में किसी केस का फैसला होने में दसियों साल लग जाते हैं। सबसे पहले निचली अदालतों में मामले पेश किए जाते हैं जहां से हाईकोर्ट में और उसके बाद पक्षकार की संतुष्टिï न होने पर मामला सुप्रीमकोर्ट में चला जाता है। अदालतों में जजों की कमी होने के कारण सबसे पहले तो निचली अदालत में ही 3-4 साल केस चलता रहता है और फैसले के बाद यदि हाईकोर्ट में अपील की जाए तो 7-8 साल बाद बारी आती है। 

इसी को देखते हुए एक बार पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र मल्ल लोढा ने सुझाव दिया था कि जिस प्रकार सरकारी अस्पताल वर्ष भर खुले रहते हैं और आपात् सेवाओं में डाक्टरों को सेवाएं देनी पड़ती हैं कुछ ऐसे कदम उठाए जाएं कि वकील और जज भी दिन-रात काम करें जब तक केसों की संख्या कम न हो जाए। जजों की कमी के कारण एक जज के लिए एक केस को अपेक्षित समय दे पाना संभव नहीं हो पाता जिसे देखते हुए अब तो ऐसी आशंका घर कर रही है कि कहीं मुकद्दमेबाजी में फंसे मुवक्किलों का धैर्य ही न समाप्त हो जाए। इसके लिए न्यायालयों में जजों के रिक्त पद भरने व केसों के निपटारे के लिए तात्कालिक कदम उठाने की आवश्यकता है। जिस भी मुवक्किल या वकील को अपना केस कमजोर लगता है वे उसे लम्बा खींचने की कोशिश करते हैं। तयशुदा समय में जवाब न आना और गवाही पूरी न करना केस लटकने का बड़ा कारण है। हालांकि अदालतों में लंबित केसों का निपटारा निश्चित अवधि में करने का कुछ मामलों में प्रावधान है परंतु इसका कठोरतापूर्वक पालन नहीं हो रहा है। 

घरेलू हिंसा और दहेज उत्पीडऩ के केस ऐसे हैं जिनकी संख्या आए दिन बढ़ रही है। ‘समझौता सदन’ में ऐसे केस प्राथमिकता के आधार पर निपटाए जाने चाहिएं और हो सके तो किसी भी अवकाश या शनिवार को कार्य दिवस में बदल कर अधिक संख्या की श्रेणी वाले केसों की सुनवाई हो सकती है। लम्बी चलने वाली कानूनी लड़ाई की एक मिसाल हाल ही में राजस्थान के जोधपुर के एक पारिवारिक न्यायालय में देखने को मिली जब न्यायालय ने 22 नवम्बर को एक ऐसे बाल विवाह को रद्द किया जो करीब 14 साल पहले हुआ था। उस समय लड़की की उम्र 3 साल थी जो अब 17 साल की हो चुकी है। एन.जी.ओ. सारथी ट्रस्ट की संस्थापक कीर्ति भारती के समर्थन से उक्त किशोरी ने 2003 में हुई शादी को रद्द कराने के लिए कानूनी जंग लड़ी। किशोरी ने जोधपुर के फैमिली कोर्ट में शादी को रद्द करने की मांग का अनुरोध किया था जिस पर अब न्यायाधीश रेखा भार्गव ने दोनों पक्षों के आपसी समझौते से शादी को रद्द करने का आदेश जारी किया। 

एक पारिवारिक विवाद के निपटारे में भी इतना लम्बा समय लगना इस बात का मुंह बोलता प्रमाण है कि हमारी न्याय प्रणाली किस कदर धीमी गति से चल रही है। अत: देश की अदालतों में दशकों से लटकते आ रहे मुकद्दमों की चुनौती से निपटने के लिए न्याय प्रणाली में ऊपर से नीचे तक बुनियादी ढांचा सुधारने, खाली पद भरने, सभी स्तरों पर सरकार एवं न्यायपालिका में सहयोग और तालमेल बढ़ाने तथा न्याय प्रक्रिया के सरलीकरण की आवश्यकता है।—विजय कुमार 


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