चंद गांवों की कहानी गांधी जी के सपनों की ‘तर्जुमानी’

Friday, Feb 12, 2016 - 12:47 AM (IST)

भारत की आधी से अधिक जनता गांवों में रहती है और वास्तव में असली भारत तो गांवों में ही बसता है परंतु आज भी बड़ी संख्या में गांव बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं तथा गांववासी अनेक बुराइयों के शिकार हैं।

 
आज भी उत्तर प्रदेश के ‘माखनपुर’ जैसे कई गांव हैं जहां लोग लालटेन की रोशनी में जी रहे हैं। उत्तर प्रदेश के ही बिजनौर जिले में ‘इच्छावाला’ नामक एक गांव ‘अनपढ़ों का गांव’ कहलाता है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गांव ‘सेमलिया पठार’ में भी एक भी व्यक्ति साक्षर नहीं है। 
 
ऐसे गांवों के बीच कुछ ऐसे गांव भी हैं जो अपने दम पर प्रगतिशीलता की तस्वीर पेश करते हुए देशवासियों को आपसी भाईचारे, प्रेम प्यार, पर्यावरण के संरक्षण और दहेज जैसी कुरीतियों के विरुद्ध संदेश दे रहे हैं। 
 
आज देश में विकास के नाम पर अंधाधुंध पेड़ काटे जा रहे हैं परंतु मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में ‘करमदी’ नामक गांव के प्रत्येक परिवार में किसी भी व्यक्ति के निधन या बच्चे के जन्म पर एक पौधा लगाने की परम्परा है। 
 
परिवार के सदस्यों की तरह ही इन पौधों की देखभाल और पालन-पोषण किया जाता है। गांव के लोग इनसे ‘आशीर्वाद’ लेने जाते हैं तथा राखी, होली, दीवाली जैसे त्यौहार भी इन पेड़ों के साथ ही मनाते हैं। 
 
देश में असहिष्णुता को लेकर छिड़े विवाद के बीच पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद, बुलंदशहर और हापुड़ क्षेत्र में ‘साठा चौरासी’ नामक  144 गांवों का समूह देश को सौहार्द और सद्भावना का संदेश दे रहा है। 
 
इन गांवों में हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी लेकिन धर्म अलग होने के बावजूद दोनों के बीच अद्भुत एकता है। तोमर राजपूतों की पगड़ी मुसलमान राजपूतों के गांव से आती है जिसे हिन्दू राजपूत अपना चौधरी मानते हैं और सिसोदिया राजपूतों के यहां पगड़ी मुस्लिम सिसोदिया गांव से आती है।
 
मुस्लिम नामों के साथ राणा, सिसोदिया और तोमर उपनाम आम लगाए जाते हैं। इस इलाके में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मों के गांवों के अधिकांश प्रवेश द्वारों पर महाराणा प्रताप की मूॢत नजर आती है। 
 
आज जबकि देश में कन्या भू्रण हत्या जोरों पर है, राजस्थान के बाड़मेर जिले में ‘खच्चरखड़ी’ नामक गांव  की मुस्लिम बस्ती में कन्या संतान के जन्म पर एक विशेष प्रकार के नृत्य का आयोजन करने के अलावा गांव भर में गुड़ बांटा जाता है और सामूहिक भोज दिया जाता है।
 
जहां इस सीमावर्ती जिले के कई गांवों में भू्रण हत्या की कुप्रथा के दुष्परिणामस्वरूप दशकों से कोई बारात नहीं आई वहीं कांच कशीदाकारी में माहिर होने के कारण इस गांव की कन्याओं के लिए रिश्तों की कोई कमी नहीं रहती और शादी का खर्च भी लड़के वाले ही उठाते हैं जिस कारण यहां बेटियों का जन्म दुख का नहीं बल्कि खुशी का कारण है।
 
राजस्थान में ही नागौर के ‘बासनी बेलिमा गांव’ में न कोई दहेज लेता और न ही देता है। बारातियों को बड़ा भोज व दावत भी नहीं दी जाती सिर्फ दो कप चाय पिलाकर निकाह की खुशी मनाई जाती है और डीजे भी नहीं बजाया जाता।  
 
इस गांव की ‘बैतूल माल सोसायटी’ द्वारा यह पहल की गई है। इस गांव के निवासी मोहम्मद अनवर के अनुसार, ‘‘हमारे गांव में दहेज लेना और देना पूर्णत: प्रतिबंधित है। हमने अपनी पोती सुमैया की शादी में 200 बारातियों को सिर्फ 2-2 कप चाय पिलाई और सुमैया को केवल एक लोटा तथा कुरान शरीफ की प्रति देकर विदा कर दिया।’’
 
गांव में चाहे सामूहिक निकाह पढ़वाए जाएं या फिर कोई परिवार अपने स्तर पर निकाह करवा रहा हो सब पर दहेज का लेन-देन किसी भी हालत में न करने का नियम लागू है। यही नहीं, मृत्यु होने पर भी भोज नहीं दिया जाता। 
 
गांव में गरीब और विधवा महिलाओं को प्रति माह पैंशन दी जाती है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन बिताने वाली महिलाओं को घर भी बनवाकर दिए गए हैं। इस गांव में महिलाओं पर किसी तरह की भी पाबंदी नहीं है। महिलाओं को पूरे अधिकार दिए गए हैं और नई पीढ़ी की युवतियों के हाथों में महंगे मोबाइल दिखाई देना आम बात है। 
 
उक्त गांव देश में प्रगतिशीलता की लहर की मुंह बोलती तस्वीर हैं। यदि सभी गांव-शहर उक्त गांवों की भांति कुरीतियों से मुक्त व समाज के प्रति अपने दायित्वों को लेकर जागरूक हो जाएं तो देश में वह सुनहरा दौर आने में देर न लगे जिसका सपना कभी महात्मा गांधी ने देखा था।  
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