म्यांमार के रोहिंग्या शरणार्थियों की समस्या

Monday, Sep 25, 2017 - 12:03 AM (IST)

केवल चुनावी राजनीति ही नहीं बल्कि विश्व भर में नीति निर्धारण पर विभिन्न देशों में आने वाले ‘अवांछित आप्रवासियों का भय’ छाया हुआ है। इसकी शुरूआत सीरिया से आने वाले शरणार्थियों से हुई और उसका असर इटली के चुनावों, ब्रैग्जिट, अमरीकी चुनावों और फ्रांस के चुनावों तथा हाल ही में शनिवार को न्यूजीलैंड में और रविवार को जर्मनी के चुनावों में दिखाई दिया जहां एक बार फिर मुख्य मुद्दा ‘विदेशी आप्रवासियों’ को न आने देने का है। 

म्यांमार से भाग कर भारत में दाखिल होने के इच्छुक रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रश्र पर भारत सरकार और किसी सीमा तक भारतीय लोगों की प्रतिक्रिया भी उपरोक्त देशों जैसी ही है। भारत ने हमेशा शकों, यूनानियों, परशियनों, पारथेनियनों के लिए और यहां तक कि स्वतंत्रता के 70 वर्षों दौरान हर प्रकार के शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे खुले रखे हैं जिनमें तिब्बत के बौद्ध, अफगानिस्तान के मुसलमान, श्रीलंका के हिंदू और ईसाई तथा यहां तक कि पाकिस्तान से आए शरणार्थी भी शामिल हैं लेकिन पूर्वी पाकिस्तान से 1971 में और बाद में 2014 तक बंगलादेश से एक करोड़ हिंदू, मुस्लिम, बौद्धों और कबायलियों के आने तक हमारा एकमात्र मापदंड मानवतावादी रहा है। 

लेकिन अन्य शरणार्थियों के साथ आतंकवादियों की भारत में घुसपैठ की आशंका को देखते हुए भारत ने पहली बार अपनी नीति बदल दी है। सुप्रीमकोर्ट द्वारा भारत सरकार को रोहिंग्या शरणार्थियों को आने देने के लिए कहने के बावजूद सरकार ने इस पर रोक लगाने का निर्णय किया है क्योंकि सरकार इसे कार्यपालिका का अधिकार मानती है और यह मामला न्याय पालिका के अधीन नहीं आता कि वह इस पर निर्णय ले सके। यद्यपि रोहिंग्या शरणार्थियों को आने या न आने देने के समर्थकों और विरोधियों दोनों के ही अपने-अपने मजबूत तर्क हैं। उत्तर-पूर्व के 8 में से 5 राज्यों का कहना है कि उनके लिए इन्हें खपाना मुश्किल होगा। इन हालात में हालांकि भारत सरकार बंगलादेश को आर्थिक सहायता दे रही है ताकि रोहिंग्या वहां के शरणार्थी शिविरों में रह सकें परंतु भारत सरकार को सक्रिय रूप से इस मुद्दे पर विचार करने की आवश्यकता है। 

सर्वप्रथम यह अध्ययन करना चाहिए कि क्या यह रोहिंग्या शरणार्थियों को शरण न देकर किसी अंतर्राष्ट्रीय कानूनी प्रतिबद्धता या अपने संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन तो नहीं कर रही। बेशक भारत शरणार्थियों बारे 1951 की संयुक्त राष्ट्र कंवैंशन या इसके 1967 के प्रोटोकोल का हस्ताक्षरकत्र्ता नहीं है परंतु हम अभी भी मानवाधिकारों के बारे उन अनेक कंवैंशनों से बंधे हुए हैं जिन पर हमने हस्ताक्षर कर रखे हैं। इनमें संयुक्त राष्ट्र का वह सिद्धांत भी शामिल है जिसमें शरणार्थियों की जबरदस्ती वापसी को रोका गया है। इससे भी बड़ी बात सुप्रीमकोर्ट द्वारा धारा-21 के अंतर्गत दी गई जीवन के अधिकार और निजी स्वतंत्रता संबंधी व्यवस्था है जो भारत के सभी लोगों पर लागू होती है चाहे उनकी नागरिकता कोई भी हो। इसमें रोहिंग्या शरणार्थी भी शामिल हैं। 

संभवत: तत्काल रूप से भारत को वैसे ही कुछ पग उठाने की आवश्यकता है जैसे तुर्की ने सीरियाई शरणार्थियों बारे उठाए। इसने शिविर बनाए, भोजन, पानी और बिजली उपलब्ध की, लेकिन शहरों के बाहर सीमाएं बंद कर दीं जब तक कि उन्हें कहीं जाने का ठिकाना नहीं मिल गया। बंगलादेश के अलावा थाईलैंड भी उनको अस्थायी शरण देने के लिए तैयार हैं। ऐसे में म्यांमार सरकार निकट भविष्य में किसी समय रोहिंग्याओं को वापस लेने का कोई संकेत नहीं दे रही क्योंकि इस समय म्यांमार की सेना सीमा पर बारूदी सुरंगें बिछा रही है ताकि देश में दाखिल होने की कोशिश करने वाले किसी भी शरणार्थी को उड़ाया जा सके। ऐसे में भारत की निंदा करने वाले खाड़ी देश स्वयं इन शरणार्थियों को अपनाने को तैयार नहीं। 

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आंग सू की के बीच वार्ता में भी सू की ने किसी प्रकार का कोई आश्वासन नहीं दिया है। वास्तव में उन्होंने तो यह स्वीकार करने से भी इंकार कर दिया है कि कोई समस्या है। इस हालत में शरणार्थियों को वापस भेजना मुश्किल होगा। आंग सू की अपनी ही सेना के खिलाफ नहीं जाएंगी जिसने गांव जलाए थे। फिर भी भारत के म्यांमार के साथ अच्छे संबंधों का इस्तेमाल एक समाधान ढूंढने के लिए किया जा सकता है।

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