हंगामे की भेंट समूचा बजट सत्र लोकसभा और राज्यसभा रहीं ठप्प
Saturday, Apr 07, 2018 - 02:27 AM (IST)
संसद की गरिमा का लगातार क्षरण हो रहा है। हमारे जनप्रतिनिधियों में इसकी कार्रवाई में भाग लेने के प्रति रुचि घटने के कारण यह रचनात्मक विचार-विमर्श का मंच न रह कर हंगामे और शोर-शराबे का केंद्र बनती जा रही है।
संसद के बजट अधिवेशन का पहला चरण 29 जनवरी से 9 फरवरी तक और दूसरा चरण 5 मार्च से 6 अप्रैल तक चला और दोनों ही चरण अभूतपूर्व हंगामे की भेंट चढ़ गए। इस सत्र में लोकसभा में मात्र 23 प्रतिशत और राज्य सभा में 28 प्रतिशत काम हुआ। लोकसभा में दूसरे चरण में 127 घंटे 45 मिनट तथा राज्यसभा में 124 घंटे का समय बर्बाद हुआ। दूसरे चरण में दोनों सदनों में किसी भी मुद्दे व विधेयक पर चर्चा नहीं हो पाई और एक दिन भी प्रश्रकाल एवं शून्यकाल नहीं हो सका। अधिवेशन के दौरान दोनों ओर से सांसदों ने एक-दूसरे पर लोकतंत्र की हत्या के आरोप लगाए।
6 अप्रैल को राजग एवं कांग्रेस के सांसदों ने राष्टï्रपिता महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने आकर नारेबाजी की और कांग्रेस पर संसद की कार्रवाई में बाधा डालने का आरोप लगाते हुए राजग सांसदों ने संसद भवन परिसर में बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकर की प्रतिमा के समक्ष धरना दिया। लोकसभा और राज्यसभा की कार्रवाई में भाग लेने के प्रति जनप्रतिनिधियों की उदासीनता को देखते हुए मुझे 11 वर्ष पूर्व 3 मार्च, 2007 का दिन याद आ रहा है जब लोकसभा के तत्कालीन डिप्टी स्पीकर श्री चरणजीत सिंह अटवाल के निमंत्रण पर मैं संसद भवन में गया। शाम 4 बजे जब मैं लोकसभा की दर्शक दीर्घा में पहुंचा, तब सदन की अध्यक्षता श्री अटवाल कर रहे थे।
हालांकि उस दिन कोई वाकआऊट भी नहीं था परंतु सदन में यू.पी.ए. के लगभग 20 और विरोधी दलों के भी इतने ही सदस्य इधर-उधर बिखरे बैठे थे। दर्शक दीर्घा संसद की कार्रवाई देखने आए बच्चों से भरी हुई थी पर नीचे सदन खाली-सा था। इस बारे 4 मार्च, 2007 के संपादकीय ‘संसद में कुछ समय’ में मैंने लिखा था, ‘‘संसद के दोनों सदनों की कार्रवाई पर प्रति मिनट 7 लाख रुपए खर्च होते हैं। हमें यह देख कर अफसोस हुआ कि देश की जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की संसद की कार्रवाई के प्रति रुचि इतनी कम है।’’ ‘‘इन्हें प्रति मास एक लाख रुपए वेतन व भत्ते मिलते हैं तथा इस गरीब देश के प्रत्येक सांसद के वेतन-भत्तों व सुविधाओं आदि पर प्रति मास 10 लाख रुपए तक खर्च आता है।’’
इस बारे श्री अटवाल से चर्चा करने पर उन्होंने भी कहा था कि इस बारे हालात सुधारने के लिए गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता है पर हालात आज भी वही हैं जो 11 वर्ष पूर्व 2007 में थे। संसद का बजट अधिवेशन शोर-शराबे और हंगामे की भेंट चढ़ चुका है। इसे देखते हुए राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू ने हंगामा करने वाले सदस्यों पर नाराजगी जताते हुए उनके लिए दिया जाने वाला रात्रि भोज रद्द कर दिया जबकि दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने संसद के कार्रवाई बाधित दिनों का वेतन काटने तक की सलाह दे डाली थी। बहरहाल, संसद में गतिरोध को लेकर भाजपा व कांग्रेस ने राजनीति भी शुरू कर दी है। कांग्रेस ने 9 अप्रैल को भाजपा के झूठ को बेनकाब करने के लिए सभी राज्य व जिला मुख्यालयों पर एक दिन का उपवास रखने की तथा भाजपा ने 12 अप्रैल को देश भर में अनशन करने की घोषणा की है।
परंतु संसद चले न चले, विधानसभा चले न चले हमारे जनप्रतिनिधि अन्य तमाम मुद्दों पर आपस में लड़ते-झगड़ते रहने के बावजूद हमेशा एक होकर अपने वेतन-भत्ते बढ़वा लेते हैं और अब सांसदों का मूल वेतन दोगुना बढ़ाकर 1 अप्रैल, 2018 से 1 लाख रुपए कर दिया गया है। मूल वेतन के अलावा 45,000 रुपए संसदीय भत्ता भी बढ़ाकर 70,000 रुपए प्रति महीना कर दिया गया है। उन्हें मिलने वाले आफिस से जुड़े भत्ते को 45,000 रुपए से बढ़ाकर 60,000 रुपए मासिक और फर्नीचर के लिए मिलने वाला खर्च 75,000 से बढ़ाकर 1 लाख रुपए कर दिया गया है। इसके अलावा पूर्व सांसदों को मिलने वाली पैंशन 20,000 रुपए से बढ़ाकर 25,000 रुपए कर दी गई है। ऐसे में संसद के सम्मान और कार्यकलाप के बारे में अत्यंत निराशाजनक तस्वीर उभर कर सामने आती है। अत: इस बारे एक-दूसरे पर दोषारोपण करने की बजाय सभी पक्षों को आपस में मिल बैठकर इस समस्या का हल निकालना चाहिए ताकि संसद सुचारू रूप से चले, जनप्रतिनिधियों की आपसी ‘लड़ाई’ में जनता से जुड़े काम न अटकें और देश की बदनामी भी न हो।—विजय कुमार