न्यायपालिका ले रही है लगातार राष्ट्र और जनहितकारी फैसले

Saturday, Jan 21, 2017 - 12:38 AM (IST)

आज जबकि कार्यपालिका और विधायिका निष्क्रिय हो रही हैं, केवल न्यायपालिका और मीडिया ही जनहित से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर सही राह दिखा रही हैं। विभिन्न न्यायालयों द्वारा मात्र लगभग 3 सप्ताह में दिए गए जनहितकारी आदेश और फैसले निम्र में दर्ज हैं

28 दिसम्बर को पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजीव नारायण रैना ने कहा, ‘‘हरियाणा के स्कूलों के मुख्याध्यापक मात्र प्रशासनिक काम के बोझ के आधार पर छात्रों को पढ़ाने से इंकार नहीं कर सकते। सरकार उन्हें अपनी ड्यूटी निभाने के लिए वेतन देती है। लिहाजा सरकार को उन पर काम का बोझ तय करने का अधिकार है।’’

न्यायमूर्ति रैना ने यह फैसला हरियाणा के विभिन्न हाई स्कूलों में तैनात अध्यापकों के एक समूह द्वारा दायर याचिकाओं को रद्द करते हुए सुनाया जिन्होंने शिकायत की थी कि क्लासें लेने के साथ-साथ प्रशासकीय जिम्मेदारी निभाने के कारण उन पर काम का बोझ बढ़ गया है।

11 जनवरी को दिल्ली हाईकोर्ट ने स्थानीय निकाय विभाग को राजधानी में बिखरा मलबा उठाने में नाकाम रहने पर फटकार लगाते हुए इसे ‘नॉन स्टार्टर’ करार देते हुए कहा, ‘‘आप लोग डंडा पडऩे पर ही काम करते हैं। हम आपको छोड़ेंगे नहीं। दिसम्बर में सफाई अभियान के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले, अत: राजधानी में सफाई अभियान का दूसरा चरण शुरू करवाएं।’’

11 जनवरी को ही एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए मद्रास हाईकोर्ट के न्यायमूॢत एस.के. कौल और न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश ने अंतरिम आदेश जारी करके भारत और विशेषकर तमिलनाडु के मुख्य काजियों को ‘तलाक के प्रमाणपत्र’ जारी करने से रोकने का आदेश पारित करते हुए कहा, ‘‘अदालतों की कानूनी कार्रवाई के लिए चीफ काजी द्वारा जारी प्रमाणपत्र मात्र एक सलाह है और उसका कोई कानूनी आधार नहीं है।’’

इसी प्रकार 19 जनवरी को सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर तथा न्यायमूॢत डी.वाई. चंद्रचूड़ ने ‘चर्च कोर्ट’ द्वारा तलाक सहित अन्य मामलों में दिए जाने वाले आदेशों को मान्यता देने की गुहार संबंधी याचिका को रद्द करते हुए कहा,‘‘किसी धार्मिक समुदाय का व्यक्तिगत कानून संसद के बनाए हुए कानून से ऊपर नहीं हो सकता। अत: ‘चर्च कोर्ट’ द्वारा दिए जाने वाले तलाक के आदेश की कोई वैधता नहीं है।’’

12 जनवरी को देश में बढ़ रहे वायु प्रदूषण सम्बन्धी एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान दिल्ली हाईकोर्ट ने पंजाब सरकार को इसी वर्ष से खेतों में किसानों द्वारा पराली न जलाना सुनिश्चित करने का निर्देश देते हुए कहा, ‘‘वायु प्रदूषण आज लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्र बन गया है।’’

12 जनवरी को ही कोलकाता हाईकोर्ट की डिवीजन बैंच ने बंगाल के गृह सचिव से पूछा कि पुलिस कर्मचारियों की फिटनैस सुधारने के लिए उनकी सरकार कौन से पग उठा रही है? अदालत ने इस संबंध में दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया जिसमें कहा गया था कि ‘‘पुलिस में कार्यरत कर्मचारियों में से अधिकांश इतने थुलथुल और मोटे हैं कि उनके लिए अपनी तोंद का भार उठा कर चलना भी मुश्किल है।’’

13 जनवरी को सुप्रीमकोर्ट ने शीशा मिश्रित मांझा पर रोक लगाने संबंधी राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के आदेश को रद्द करने की मांग करने वाली याचिका यह कहते हुए रद्द कर दी कि यह मवेशियों व पक्षियों के लिए भी नुक्सानदेह है।

18 जनवरी को पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने कुरुक्षेत्र में विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत दी जाने वाली पैंशन में घोटाले से जुड़े अधिकारियों के विरुद्ध रपट दर्ज करने की मांग के संबंध में हरियाणा सरकार को नोटिस जारी किया।

आज जबकि न्यायपालिका पर पहले ही काम का बहुत बोझ है तथा देश की जिला अदालतों में ही 10 वर्ष से अधिक पुराने 2.3 करोड़ मामले लंंबित हैं, ऐसे में न्यायपालिका पर सामाजिक सरोकार के दूसरे मामले निपटाने और वे काम करने का दबाव बढ़ा है जो सरकारों को स्वयं करने चाहिएं।

हैडमास्टरों द्वारा पढ़ाने की जिम्मेदारी से बचने, मलबे के ढेर, प्रदूषण,  धर्मस्थलों द्वारा तलाक के प्रमाणपत्र, शीशा मिश्रित मांझा, कुपात्रों को पैंशन व पुलिस में कर्मचारियों की फिटनैस आदि के संबंध में विभिन्न न्यायालयों की उक्त टिप्पणियों एवं आदेशों से पुन: इस कथन की पुष्टिï हो गई है कि आज न्यायपालिका हीवह सब काम कर रही है जो सरकारों को स्वयं करने चाहिएं।     —विजय कुमार

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