इंजीनियरिंग कॉलेजों से छात्र नदारद

punjabkesari.in Monday, Mar 12, 2018 - 02:34 AM (IST)

दिसम्बर 2017 में भारत सरकार ने 300 से अधिक निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों को बंद करने का फैसला लिया। अर्थात ये कॉलेज अकादमिक सैशन 2018-19 के लिए नए दाखिले नहीं कर सकेंगे। 

ऐसा इन संस्थानों में भ्रष्टाचार की वजह से नहीं बल्कि इसलिए किया गया है क्योंकि गत 5 वर्षों के दौरान इनमें लगातार 30 प्रतिशत से भी कम दाखिले हुए हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार इसी वजह से करीब 500 कॉलेजों को निगरानी पर रखा गया है। परंतु नागालैंड से आई एक खबर देश में उच्च शिक्षा को लेकर बड़ी अजीब तथा दुखभरी दास्तान से रू-ब-रू करवा रही है। राज्य में मान्यता प्राप्त एकमात्र इंजीनियरिंग संस्थान एक भी सीट भर नहीं सका है।

ये सारी बातें देश के शिक्षा तंत्र पर तरह-तरह के सवाल खड़े करने के साथ-साथ जॉब सैक्टर में सुधार की जरूरत की ओर भी इशारा कर रही हैं। अभी तक विश्व भर में अमेरिका के बाद भारत ही सबसे ज्यादा इंजीनियर तैयार करता रहा है परंतु हालिया आंकड़े दर्शाते हैं कि ऑल इंडिया काऊंसिल फॉर टैक्निकल एजुकेशन (ए.आई.सी.टी.ई.) द्वारा प्रमाणित तकनीकी संस्थानों को विभिन्न राज्यों में 50 प्रतिशत सीटें भरने में भी खासी मशक्कत का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में नागालैंड में 240 सीटों (100 प्रतिशत) के खाली रहने के अलावा हिमाचल प्रदेश (75 प्रतिशत), हरियाणा (72 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश (64 प्रतिशत) के तकनीकी संस्थानों में भी बड़ी संख्या में सीटें खाली पड़ी हैं। सितम्बर 2017 में ए.आई.सी.टी.ई. काऊंसिल ने देश भर में 410 कॉलेजों को बंद करने की स्वीकृति दी थी और हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, राजस्थान जैसे राज्य भी केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय को रिपोर्ट करने वाले ए.आई.सी.टी.ई. को नए तकनीकी संस्थानों की स्थापना नहीं करने को कह चुके हैं। 

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक अधिकारी के अनुसार हर वर्ष नए इंजीनियरिंग कॉलेज खुल रहे हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर तथा शिक्षकों के मापदंड पूरे होने पर ए.आई.सी.टी.ई. उन्हें स्वीकृति दे देता है परंतु इस फील्ड में मांग तथा आपूर्ति का ध्यान रखना भी तो आवश्यक है। ए.आई.सी.टी.ई. तथा मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बीच तालमेल की कमी के अलावा जांच का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है कि आखिर क्यों इतने कम छात्र इंजीनियरिंग कालेजों का चयन कर रहे हैं जबकि इस विषय के जानकारों की जरूरत प्रत्येक उद्योग में होती है। 

विशेषज्ञों का कहना है कि इन तकनीकी संस्थानों में बड़ी संख्या में सीटें खाली रहने की वजह जॉब मार्कीट में इंजीनियरों के लिए अवसरों का ठप्प पड़ जाना अथवा नॉन-इंजीनियरिंग फील्ड्स के छात्रों के लिए करियर विकल्पों की भरमार होना है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि जिन कोर्सेज को करने के बाद युवाओं को नौकरियां नहीं मिल सकेंगी तो अन्य छात्र उनका चयन करना बंद करने लगेंगे। इन संस्थानों में दाखिलों में कमी का एक कारण यह भी हो सकता है कि जहां दुनिया ‘आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस’ या ‘टोटल ऑटोमेशन’ की ओर कदम बढ़ा रही है, वहीं हमारे संस्थान अभी भी पुराने सिलेबस पर ही टिके हुए हैं। आॢटफिशियल इंटैलीजैंस के मामले में चीन अग्रणी बन चुका है जबकि भारत अभी तक इसके शुरूआती दौर पर ही खड़ा है। 

हमारे निजी, सरकारी मान्यताप्राप्त अथवा सरकारी सहायता प्राप्त शैक्षिक संस्थानों को न केवल खुद को अपग्रेड तथा सिलेबस सुधारने की जरूरत है, उन्हें शिक्षकों को भी पुन:शिक्षित करना होगा। छात्रों द्वारा इंजीनियरिंग को प्राथमिकता न देने का एक कारण इस फील्ड में अच्छे वेतन वाली नौकरियों की कमी भी हो सकती है। ऐसा ही संकट कॉमर्स स्ट्रीम में भी आया था परंतु कमर्शियल बैंकिंग तथा अन्य संबंधित नौकरियों में वृद्धि से इसने खुद सम्भाल लिया था। इस बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई जैसे शहरों में अब भी इंजीनियरिंग कालेजों या आई.आई.टीज में 95 प्रतिशत कट-ऑफ है और हजारों छात्र इनमें दाखिला लेना चाहते हैं। 

ऐसे में प्राइवेट या सरकारी मान्यता प्राप्त कालेजों का स्तर सुधारने की अत्यधिक आवश्यकता है। ऐसे हालात में शायद अब सरकार को केवल सिलेबस में सुधार की ही नहीं, इंडस्ट्री को पुनर्जीवित करने की भी जरूरत है ताकि इंजीनियरिंग ग्रैजुएट्स के लिए नौकरियों के अवसर सृजित हो सकें।


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