‘मॉब लिंचिंग’ पर राज्यों की नीयत साफ नहीं

punjabkesari.in Monday, Sep 10, 2018 - 03:42 AM (IST)

माना जाता है कि ‘ब्रिटिश राज’ में 1857 के बाद भारत जैसे विशाल तथा विविधतापूर्ण देश पर शासन करते हुए कुछ अलिखित नियमों का पालन किया जाता था। इनमें से एक नियम यह था कि गांवों के कामकाज में दखलअंदाजी न की जाए। इसी नियम के चलते प्रत्येक जिले तथा बड़े गांवों में पुलिस स्टेशन होने के बावजूद लोगों को अपनी कुप्रथाएं अथवा अंधविश्वास को मानने की छूट थी जब तक कि वे ‘ब्रिटिश राज’ अथवा कमिश्नरों के मूल कामकाज के साथ न टकराएं। 

भारत से अंग्रेजों के जाने के लम्बे अर्से के बाद आज भी कुछ नियम स्वतंत्र भारत में बदस्तूर जारी हैं। आज भी लोग कई कुरीतियों का पालन कर रहे हैं और कानून से भी इसीलिए साफ बच जाते हैं क्योंकि स्थानीय अथवा राज्य सरकारों में लिखित संविधान अथवा उसके सिद्धांतों को लागू करने की इच्छाशक्ति ही नहीं है। ऐसा ही एक मुद्दा भीड़ की हिंसा का है, जिसकी घटनाओं में तेजी से अनियंत्रित वृद्धि हुई है। उपद्रवियों के समूह अक्सर किसी राजनीतिक उद्देश्य के तहत बिना डरे बच्चों का अपहरण करने वाले संदिग्ध गिरोहों अथवा गौ हत्या का संदेह होने पर निर्दोष लोगों की पीट-पीट कर हत्या कर रहे हैं। 

हैरानी की बात है कि उनमें से कभी भी किसी ने संदिग्धों को काबू करके पुलिस के हवाले नहीं किया। जांच किए अथवा केस चलाए बगैर भीड़ अथवा गौरक्षक संदिग्धों को मौके पर तुरंत सजा देने को आतुर नजर आते हैं और लगता है कि पुलिस को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं है। निर्दोष लोगों के अधिकारों तथा जीवन को सुरक्षा प्रदान करने में स्थानीय प्रशासन तथा राज्य सरकारों के बुरी तरह से फेल रहने की परिस्थितियों में सुप्रीम कोर्ट ने 17 जुलाई को ‘मॉब लिंचिंग’ की निंदा करते हुए संसद से ऐसे अपराधों के प्रति लोगों के मन में भय पैदा करने के लिए नियम बनाने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, ‘‘भीड़तंत्र के भयावह कृत्यों को राष्ट्र के कानूनों को रौंदने की इजाजत नहीं दी जा सकती।’’ 

केन्द्र का पक्ष रखते हुए अटार्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार इस संबंध में कानून बनाने पर विचार करने के लिए मंत्रियों की एक विशेषाधिकार समिति बनाई है। तभी सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों को भी नागरिकों के जीवन की रक्षा के लिए कुछ विशेष प्रावधान करने का आदेश दिया था। 7 सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य का गम्भीर संज्ञान लिया कि भीड़ तथा गौरक्षकों की ओर से होने वाली हिंसक घटनाओं से निपटने के लिए प्रावधान तय करने के लिए 17 जुलाई के उसके आदेश का पालन 29 में से केवल 9 राज्यों तथा 7 में से केवल 2 केन्द्र शासित प्रदेशों ने किया था। शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने अन्य सभी राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों को अनुपालन रिपोर्ट जमा करने के लिए एक सप्ताह का समय दिया है। 

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा तथा जस्टिस ए.एम. खानविलकर तथा डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों को रिपोर्ट जमा करने के लिए और समय नहीं दिया जाएगा और ऐसा न होने पर संबंधित होम सैक्रेटरीज को न्यायालय में समन किया जाएगा। राज्यों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को नजरअंदाज करना तथा अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने से कदम पीछे खींचने से ही इस मामले पर उनकी नीयत के बारे में बहुत कुछ पता चलता है। राज्यों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को नजरअंदाज करना अदालत की अवमानना से कम नहीं है परंतु अपने ही नागरिकों की सुरक्षा के संबंध में जारी अदालती मामले का अनुपालन नहीं करना अपने आप में न्यायिक जांच के लिए भी पर्याप्त है। 

संविधान के अनुरूप शासित किसी भी राष्ट्र की सरकार के अलावा मानवता, नैतिकता तथा संवेदना पर आधारित उसका सभ्य समाज भी ऐसे आदेशों का अनुपालन करने के लिए बाध्य होता है, तो भला अधिकांश राज्य अपने इस कत्र्तव्य से क्यों भाग रहे हैं? कांग्रेस कार्यकत्र्ता तहसीन पूनावाला की याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने 20 जुलाई को अलवर में रकबर खान की भीड़ द्वारा हुई हत्या के मामले में आरोपित पुलिस वालों के विरुद्ध की गई कार्रवाई के बारे में जानकारी देने के लिए राजस्थान सरकार को हलफनामा दायर करने का भी निर्देश दिया है। यदि कानून-व्यवस्था लागू करने को लेकर राज्यों तथा उसके प्रशासनिक अधिकारियों का रवैया इतना ढुलमुल है तब इतना तो तय है कि उनके काम करने के तरीके और इच्छा में कुछ न कुछ तो गड़बड़ अवश्य है।


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Pardeep

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