चीनी रक्षा मंत्री की ‘जुबान पर कुछ’ तथा ‘दिल में कुछ और’!

punjabkesari.in Sunday, Sep 06, 2020 - 03:38 AM (IST)

प्राचीन काल से ही भारत एक शांतिप्रिय देश रहा है और हमेशा अहिंसा के सिद्धांतों में विश्वास रखने के कारण कभी भी हमने न किसी देश पर आक्रमण किया और न ही किसी देश के भू-भाग पर आज तक कब्जा किया है। अपने इसी लक्ष्य के तहत विश्व में शांति के प्रसार के लिए 29 अप्रैल, 1954 को भारत ने ‘पंचशील’ के सिद्धांतों को आधार बनाकर एक समझौता प्रारूप तैयार किया जिस पर चीन सहित अनेक देशों ने सहमति व्यक्त की। 

पंचशील के सिद्धांतों में एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना, एक-दूसरे के विरुद्ध आक्रामक कार्रवाई न करना, एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, समानता और परस्पर हित की नीति का पालन करना तथा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति में विश्वास रखना शामिल है। यही नहीं प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रयासों से अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों के विरोध के बावजूद 1950 में चीन को सुरक्षा परिषद की सदस्यता मिली। 

हालांकि उसी वर्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू को चीन के खतरे से आगाह करते हुए कहा था कि ‘‘हम चीन को मित्र के तौर पर देखते हैं लेकिन चीन की अपनी महत्वाकांक्षाएं और उद्देश्य हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तिब्बत के गायब होने के बाद चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है।’’उक्त चेतावनी उस समय सच हो गई जब चीन ने 1959 के तिब्बती विद्रोह के बाद भारत द्वारा दलाईलामा को शरण देने पर 20 अक्तूबर, 1962 को भारत पर हमला करके हमारे 1383 भारतीय जवानों को शहीद करने के अलावा भारत का 43,180 वर्ग कि.मी. क्षेत्र अपने कब्जे में ले लिया। 

चीन का विश्वासघात ही पंडित जवाहर लाल नेहरू के देहांत का कारण बना। तभी से दोनों देशों के नेताओं के बीच विभिन्न स्तरों पर दर्जनों बैठकें होने के बावजूद सीमा विवाद यथावत कायम है। बहरहाल 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पांच दिवसीय चीनी दौरे, जिसके दौरान उन्होंने चीन के प्रधानमंत्री श्री ली पेंग, जो चाऊ-एन-लाई के दत्तक पुत्र थे, सहित विभिन्न चीनी नेताओं से बात की थी, के बाद रिश्तों पर जमी बर्फ कुछ पिघली थी। मैं भी दूसरे पत्रकारों के साथ श्री राजीव गांधी के चीन दौरे में शामिल था। बीजिंग में जब हम सुबह-सवेरे हवाई अड्डो से बाहर निकले तो हमने लोगों को साइकिलों पर काम पर जाते हुए देखा। हमें जिस जगह ठहराया गया उसके निकट ही ‘तिनानमिन चौक’ था जहां 1989 में हुए लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों के दौरान सैन्य कार्रवाई में हजारों चीनी मारे गए थे। 

उसके बाद दोनों देशों में दोस्ती शुरू होने और संबंधों के आगे बढऩे का जो सिलसिला शुरू हुआ था उसे एक अच्छी शुरूआत कहा गया था परंतु यह बहुत समय तक नहीं चल पाया और 2012 में शी जिनपिंग के चीन का राष्ट्रपति बनने के बाद हालात खराब होते जा रहे हैं। ऐसे में अब स्थिति का जायजा लेने लद्दाख पहुंचे भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल नरवणे ने एल.ए.सी. पर स्थिति को अत्यंत गंभीर बताया है, वहीं शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भाग लेने मास्को पहुंचे रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और चीन के रक्षा मंत्री ‘वेई फेंगही’ के बीच रात के समय होटल में नाटकीय रूप से भेंट हुई जिसके लिए ‘वेई फेंगही’ ने ही पहल की थी। 

समाचारों के अनुसार लगभग दो घंटे चली इस बैठक में दोनों देशों के बीच जारी गतिरोध पर ध्यान केंद्रित किया गया। यह इस वर्ष मई में दोनों देशों की सेनाओं के बीच पूर्वी लद्दाख में जारी तनाव के बाद दोनों पक्षों के बीच शीर्ष स्तर पर आमने-सामने की पहली मुलाकात थी जिसमें भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ वार्ता में चीनी रक्षा मंत्री ने ‘सकारात्मक’ स्टैंड लेते हुए बातचीत के माध्यम से सीमा विवाद सुलझाने पर सहमति व्यक्त की। 

‘वेई फेंगही’ ने स्पष्टीकरण दिया कि ‘‘सीमा विवाद के चलते दोनों देशों के संबंध गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं। ऐसे में जरूरी था कि दोनों देशों के रक्षा प्रमुख आमने-सामने बैठ कर खुले तौर पर बातचीत करें।’’परन्तु इसके शीघ्र बाद ही चीन सरकार का बयान आ गया जिसमें यह आरोप लगाया है कि ‘‘लद्दाख में तनाव बढ़ाने के लिए भारत पूरी तरह जिम्मेदार है तथा चीन अपनी एक इंच जमीन भी नहीं छोड़ेगा।’’ स्वाभाविक प्रश्न पैदा होता है कि यदि चीनी सेनाओं ने हमारे भू-भाग पर कब्जा नहीं किया है तो क्या हमारे नेता झूठ बोल रहे हैं? और यह कहना भी गलत होगा कि चीन के रक्षा मंत्री  ‘वेई फेंगही’ को वास्तविकता की जानकारी नहीं होगी। 

चीन द्वारा विवाद सुलझाने सम्बन्धी समाचार लोगों के लिए सुखद झोंके की तरह आया था परन्तु अगले ही दिन चीन सरकार द्वारा अपने रक्षा मंत्री के बयान से पलटी मार लेने से यह संदेह पैदा होना स्वाभाविक ही है कि कहीं उसने अपना पहला बयान किसी दबाव के अंतर्गत तो वापस नहीं लिया!—विजय कुमार


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