‘अमरीका और भारत’ दोनों देशों के ‘बच्चों पर साढ़ेसाती’

punjabkesari.in Friday, May 27, 2022 - 03:41 AM (IST)

आज अमरीका और भारत दोनों ही देशों के बच्चे तरह-तरह की हिंसा की चपेट में आए हुए हैं। अमरीका में बच्चे स्कूलों में गोलीबारी की घटनाओं में मारे जा रहे हैं तो भारत में विभिन्न अपराधों के शिकार हो रहे हैं। विश्व के खुशहाल देशों में गिने जाने के बावजूद अमरीका में गोलीबारी तथा हिंसा लगातार बढऩे से वहां की धरती खून से लाल हो रही है। यहां तक कि स्कूलों में होने वाली गोलीबारी में मासूम बच्चे मारे जा रहे हैं। 

2012 में कनैक्टीकट के ‘सैंडी हुक स्कूल’ में एक 19 वर्षीय व्यक्ति द्वारा गोलीबारी करके 20 बच्चों की हत्या के बाद अब 24 मई को दक्षिण टैक्सास प्रांत के उवाल्डे गांव के ‘रॉब एलीमैंट्री स्कूल’ में ‘साल्वाडोर रामोस’ नामक 18 वर्षीय युवक ने दूसरी से चौथी तक कक्षा के 19 छात्रों तथा 2 अध्यापकों समेत 21 लोगों को एक कमरे में बंद करके मौत के घाट उतारने के अलावा अनेक बच्चों सहित 17 अन्य लोगों को घायल कर दिया।

‘साल्वाडोर रामोस’ ने इससे पहले अपनी दादी की भी गोली मार कर हत्या कर दी थी। उसका अपनी मां से भी झगड़ा रहता था जो इस हद तक बढ़ जाता कि पुलिस को आकर बीच-बचाव करना पड़ता था। झगड़ालू स्वभाव के रामोस ने गत 16 मई को 18 वर्ष का होने के अगले ही दिन अपनी पहली राइफल खरीदी और 3 दिन बाद एक और हथियार तथा 376 राऊंड गोली-सिक्का खरीदा था। 

इस घटना से पूर्व इस वर्ष अमरीका के स्कूलों में हुई गोलीबारी की 136 घटनाओं में 27 बच्चों की मौत हो चुकी थी। वहां 21 वर्ष की आयु से पहले शराब खरीदना तो अवैध है परंतु 18 वर्ष की आयु के बाद बंदूक और राइफल खरीदने की छूट है। इसी कारण बंदूक संस्कृति वहां की जीवन शैली का एक हिस्सा बन गई है जिस पर अंकुश लगाने के लिए कोई कानून ही नहीं है। जहां अमरीका में बच्चे गोलीबारी का शिकार हो रहे हैं तो भारत में बड़ी संख्या में समाज विरोधी तत्वों द्वारा भीख मंगवाने, वेश्यावृत्ति में धकेलने, मानव तस्करी व अंग प्रत्यारोपण के लिए अपहरण, हत्या, बलात्कार, उत्पीड़न आदि का शिकार होने के अलावा बच्चे दूसरों के बहकावे में आकर या परिवारों की गरीबी, माता-पिता द्वारा बच्चों पर ध्यान न देने आदि कारणों से घरों से भाग रहे हैं। 

कोरोना काल में घरों में बंद रहने और मोबाइल फोनों में व्यस्त रहने के कारण बड़ी संख्या में सोशल मीडिया पर लोगों से दोस्ती करने वाले अनेक बच्चों को उनके फेसबुक मित्रों ने मिलने के बहाने बुलाया और वे उनसे मिल कर मौज-मस्ती की चाह में घर से चले गए और फिर उनमें से अनेक बच्चे वापस नहीं लौटे जो उनके परिवारों के लिए मृतक समान ही हैं। केवल दिल्ली में ही इस वर्ष के पहले चार महीनों में 1879 बच्चे गुम हुए हैं। इनमें से 1583 बच्चे 12 से 18 वर्ष आयु वर्ग के हैं और यह संख्या गत वर्ष की इसी अवधि से 2 प्रतिशत अधिक है। इसी प्रकार 138 गुम बच्चे 0-8 वर्ष आयु वर्ग के तथा 158 बच्चे 8-11 वर्ष आयु वर्ग के हैं। पुलिस के अनुसर खोए बच्चों को खोजने में चेहरे पहचानने वाले साफ्टवेयर से सहायता मिलती है तथा कई बार बच्चों को ढूंढने के लिए पुलिस को दूसरे राज्यों के अनाथालयों आदि में भी जाना पड़ता है। 

कई मामलों में गुम होने वाले बच्चे वंचित वर्ग से सम्बन्धित होने के कारण परिवार वालों के पास उनके फोटो तक नहीं होते जिस कारण पुलिस को उन्हें ढूंढने के लिए दूसरे तरीके अपनाने पड़ते हैं। खोए बच्चों को ढूंढने का सराहनीय काम करने वाले पुलिस कर्मियों के लिए शुरू किए गए ‘दिल्ली पुलिस असाधारण कार्य पुरस्कार’ से पुलिस कर्मियों को काफी उत्साह मिला है। 

उल्लेखनीय है कि जहां अमरीका में रिपब्लिकनों द्वारा बंदूक संस्कृति पर रोक लगाने के प्रयासों को सिरे न चढऩे देने के कारण वहां बंदूक संस्कृति के प्रसार का परिणाम बच्चों की मौतों तथा हिंसा की अन्य घटनाओं के रूप में निकल रहा है तो दूसरी ओर भारत में विभिन्न कारणों से बच्चों के गुम तथा उनके अन्य अपराधों का शिकार होने के कारण बच्चों पर साढ़ेसाती आई हुई है। इसके विपरीत हमारे सामने जापान का उदाहरण है जहां सरकार की सतर्कता के कारण देश इस तरह के अपराधों से मुक्त है। लिहाजा इस मामले में भारत और अमरीका दोनों ही जापान से कुछ सीख ले सकते हैं।—विजय कुमार


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