लाला जी के 38 वें बलिदान दिवस पर ‘समय के सत्ताधारियों को सही सलाह’

punjabkesari.in Monday, Sep 09, 2019 - 12:44 AM (IST)

पूज्य पिता लाला जगत नारायण जी को हमसे बिछुड़े आज 37 वर्ष हो चुके हैं। नि:संदेह वह आज सशरीर हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं परंतु ‘पंजाब केसरी पत्र समूह’ पर उनका पूर्ण आशीर्वाद आज भी बना हुआ है। 

पूज्य पिता जी ने जहां अपने संपादकीय लेखों में देश-विदेश की समस्याओं, राजनीतिक एवं सामाजिक मुद्दों पर अपने निर्भीक एवं सटीक विचार नि:संकोच व्यक्त किए, वहीं अपनी विचारधारा से जुड़े हर विषय पर दृढ़तापूर्वक लिखा। लाला जी की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए, उनकी दूरदृष्टिï के इसी पहलू को उजागर करता ‘पंजाब केसरी’ के 22 जुलाई, 1978 के अंक में प्रकाशित उनका संपादकीय लेख यहां प्रस्तुत है : 

सत्ताधारियों का अंतिम परिणाम
‘‘दुख और सुख, उत्थान और पतन-ये सब चीजें ऐसी हैं जिनका संबंध इस संसार में जन्म-जन्म से स्थायी रहा है। यदि संसार के इतिहास को उठाकर हम देखें तो पता चलता है कि जिन लोगों की तूती सारे संसार में कभी बोला करती थी आज उनका नामलेवा और पानीदेवा भी इस संसार में कोई बचा नहीं। शायर ने ठीक ही कहा है : 
जिनके महलों में हजारों रंग के फानूस थे,
झाड़ उनकी कब्र पर हैं और निशां कुछ भी नहीं। 

‘पंजाब केसरी’ लाला लाजपतराय भारतवर्ष के उन महान नेताओं में से एक थे जिनका नाम इस देश के इतिहास में सदा-सर्वदा स्वॢणम अक्षरों में लिखा जाएगा परंतु उनके जीवन के अंतिम दिन किस कदर दर्द भरे थे, इसकी चर्चा पाठकों की सेवा में कई बार मैं पेश कर चुका हूं कि लाला लाजपतराय जी को अपने अंतिम दिनों में यह संसार एकदम सूना-सूना, स्वार्थी और किसी भी अच्छे आदमी का मान व मूल्य न डालने वाला दिखने लगा था। ठीक ऐसा ही हाल राष्टï्रपिता महात्मा गांधी का भी हुआ। उनके अंतिम दिनों की यादें जब हम पढ़ते हैं तो दिल दुख से भर उठता है। भारत में जो राजनीतिक परिस्थितियां उनके जीते जी पैदा हो गई थीं वह उनसे बेहद दुखी थे और इसकी अभिव्यक्ति अपने निकटतम साथियों से भी उन्होंने की थी। 

दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। एमरजैंसी के काले दौर की समाप्ति पर लोकनायक श्री जय प्रकाश नारायण और देश के बुजुर्ग नेता आचार्य कृपलानी ने जनता पार्टी को बनाने और उसे सत्ता में लाने में जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई आज वह किसी से छिपी हुई नहीं है परंतु इससे बड़ी दुर्भाग्य की बात और कोई हो नहीं सकती कि जनता पार्टी में जो आंतरिक झगड़ा आजकल चल रहा है और जिसकी वजह से जनता पार्टी एक ऐसे खतरनाक मोड़ पर आ खड़ी हुई है कि उसका हश्र भी भगवान न करे कांग्रेस जैसा हो सकता है, मगर जनता पार्टी के नेता आचार्य कृपलानी और लोकनायक से कोई परामर्श और मार्गदर्शन लेने के लिए तैयार नहीं हैं।

भारत में ही ऐसा हो, ऐसी बात नहीं है। रूस में भी जब स्टालिन के बाद ख्रुश्चेव सत्ता में आए तो उन्होंने उसी स्टालिन की कब्र खुदवा कर व लेनिन के पास से निकलवा कर आम रूसी नेताओं के कब्रिस्तान में दफन करवा दिया जिसके आदेश पर एक बार घाघरा पहन कर नाचने पर वह विवश हो गए थे और उसके आगे जुबान तक खोलने का साहस उनका न होता था। जर्मनी का इतिहास भी सरासर ऐसा ही है। एक जमाना था जब यह पढ़ाया जाता था कि हिटलर कभी गलत नहीं बोलता, हिटलर कभी गलत नहीं सोचता और हिटलर कभी गलत काम नहीं करता, परंतु आज उसी हिटलर का नाम लेना जर्मनी में एक दंडनीय अपराध माना जाता है। 

बिल्कुल ठीक यही हाल इटली के डिक्टेटर मुसोलिनी का हुआ। संसार का सारा इतिहास ही इस प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है। आज मैं इन कालमों में चीन के स्वर्गीय डिक्टेटर माओ-त्से-तुंग के बारे में कुछ लिखना चाहता हूं। एक जमाना था जब माओ को चीन का परमात्मा समझा जाता था और किसी भी बड़े से बड़े आदमी का यह साहस नहीं था कि वह उसके आगे जुबान खोल सके। यहां तक कि जब भी चीन के लोग खाना खाते तो कहते थे कि यह खाना माओ की बदौलत ही उनको मिल रहा है। माओ के बारे में हाल ही में एक खबर अखबारों में छपी है जिसके कुछ अंश मैं नीचे दर्ज करना आवश्यक समझता हूं। खबर इस प्रकार है : 

‘‘चीन के भूतपूर्व चेयरमैन माओ-त्से-तुंग के एक बयान को छापने की जो इजाजत चीन की वर्तमान सरकार ने दी है उससे यह बात तो पूरी तरह स्पष्टï हो जाती है कि सामाजिक नीति के विषय में जो लम्बी छलांग माओ-त्से-तुंग ने 1953 में लगाई थी उसमें वह बहुत ही बुरी तरह असफल रहे। माओ का यह भाषण जिसको छापने की इजाजत अब दी गई है, उसने 30 जनवरी, 1962 को 7000 डैलीगेटों की उपस्थिति में दिया था। अब जबकि माओ का यह बयान चीन सरकार ने छापने की अनुमति दे दी है तो यह बात पूर्णत: स्पष्ट हो गई है कि अब और भी बहुत से ऐसे नेता जो माओ के जीवन में उनके पदचिन्हों पर चलते रहे हैं, चीन के राजनीतिक जीवन से समाप्त कर दिए जाएंगे। 

अपने इस भाषण में माओ ने स्वीकार किया है कि हर वह व्यक्ति जो गलती करता है उसको अपनी गलती की अनुभूति करनी चाहिए, उन गलतियों को कभी छिपाना नहीं चाहिए तथा नीति के मामलों में जो गलतियां हुई हैं उनकी स्वीकारोक्ति पूरी निडरता से करनी चाहिए। माओ ने अपने भाषण में इस बात की भी स्वीकारोक्ति की है कि 1958 से 1962 तक की अवधि में जिन नीतियों पर वह चलते रहे यदि वे पूरी तरह असफल भी नहीं रहीं तो कम से कम उनमें आवश्यकता से अधिक कमियां अवश्य रहीं और उनके कारण चीन प्रगति के मामले में संसार से सौ वर्ष पीछे पड़ गया है। 

प्रेक्षकों का मत है कि माओ के इस बयान से चीन के नए नेताओं को सुधार के मार्ग पर आगे चलने में बहुत बड़ी सहायता मिल सकेगी और जो रुकावटें वे अपने मार्ग में अनुभव कर रहे हैं वे भी निश्चित ही एक बहुत बड़ी सीमा तक दूर हो जाएंगी।’’ यह लेख लिखने का मेरा उद्देश्य केवल यह है कि प्राय: सत्तारूढ़ लोग गद्दी पर बैठते ही सत्ता के मद में इस कदर चूर हो जाते हैं कि संसार भर की बुद्धि और विवेक का स्वामी स्वयं को ही समझ बैठते हैं और किसी भी शुभचिंतक की कोई बात सुनने को तैयार नहीं होते परंतु यह बात कदाचित नहीं भूलनी चाहिए कि सत्ता आनी-जानी चीज है। वह न कभी सदा रही है और न ही रह सकती है। इसलिए सत्ता में रहते हुए पूरे विवेक, ज्ञान, बुद्धि और जन कल्याण की भावना से ही काम करने वाले लोगों का नाम तो अमर हो जाता है अन्यथा उनका अंत माओ, हिटलर, मुसोलिनी और अन्य डिक्टेटरों जैसा ही होता है।—जगत नारायण’’ 

समय साक्षी है कि पूज्य लाला जी ने उक्त संपादकीय में जो बातें लिखी हैं वे आज भी उतनी ही सार्थक हैं और समय के शासकों को सचेत करती हैं कि उन्हें अपने आदर्शों और सिद्धांतों पर अडिग रह कर अपने अधिकतम बुद्धि और विवेक से अपने मिशन पर आगे बढऩा चाहिए ताकि सत्ता से वंचित होने के बाद उन्हें नकारात्मक हालात का सामना न करना पड़े। आज लाला जी के उक्त संपादकीय के साथ उन्हें स्मरण करते हुए हम पुन: संकल्प लेते हैं कि जिन आदर्शों पर वह अडिग रहे हम भी उन्हीं आदर्शों पर चलते हुए सत्य और निर्भीक, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष पत्रकारिता से कभी भी विचलित न होंगे।—विजय कुमार 


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