बेघर हो सकते हैं लाखों आदिवासी

Monday, Mar 04, 2019 - 02:54 AM (IST)

गत दिनों दिए गए सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद 10 लाख से अधिक आदिवासियों और जंगलों में रह रहे परिवारों पर बेघर होने की तलवार लटकने लगी है। 13 फरवरी को अपने आदेश में कोर्ट ने कहा कि ‘जंगल के भीतर रहने वाली आदिवासी जनजाति’ और ‘जंगल में रहने वाले अन्य पारम्परिक’ लोगों की जमीन के मालिकाना हक का दावा अगर राज्य सरकारों ने स्वीकार नहीं किया है तो उन्हें अदालत में 27 जुलाई को अगली सुनवाई से पहले जंगल छोडऩा होगा।

हालांकि, इस आदेश को निरस्त करने के लिए केन्द्र तथा गुजरात सरकार की गुजारिश के बाद 1 मार्च को अदालत ने अपने उस आदेश पर रोक लगाते हुए कहा कि सरकार को तेजी से काम करना और आदेश दिए जाने तक का इंतजार नहीं करना चाहिए था। दरअसल, केन्द्र सरकार ने गत एक साल में सुप्रीम कोर्ट में चल रहे इस केस के दौरान इन परिवारों के पक्ष में अपने वकील खड़े नहीं किए थे जिसके लिए उसे कड़ी आलोचना का सामना भी करना पड़ रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने इन परिवारों को जंगलों से हटाने का जो आदेश दिया वह वन्य जीवों के लिए काम कर रही संस्थाओं तथा कार्यकत्र्ताओं द्वारा दायर केस में सुनाया गया है जिन्होंने वन अधिकार कानून को चुनौती देते हुए कहा है कि इसकी आड़ में लाखों लोगों ने फर्जी दावे किए हैं। देश के 10 करोड़ आदिवासी हमेशा से हाशिए पर रहे हैं जिनकी समस्याओं तथा कल्याण को नजरअंदाज किया जाता रहा है। सरकारों ने भी इनके कल्याण के प्रति मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं किया है और आज भी उनमें से अधिकांश घने जंगलों तथा खनिज-समृद्ध राज्यों में दयनीय हालात में जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं।

अनुमान है कि उनमें से 40 लाख से अधिक संरक्षित वन क्षेत्रों में रहते हैं जो देश की कुल भूमि क्षेत्र का लगभग 5 प्रतिशत है। संरक्षित क्षेत्रों में वन तथा लगभग 600 वन्यजीव अभयारण्य एवं राष्ट्रीय उद्यान शामिल हैं। 2006 का एक कानून उन आदिवासियों और जंगल में रहने वाले अन्य लोगों को वन भूमि पर रहने तथा काम करने का अधिकार देता है जिनकी 3 पीढिय़ां दिसम्बर, 2005 से पहले से वहां रह रही हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का आदेश 17 राज्यों द्वारा प्रदान की गई जानकारी पर आधारित है। राज्यों ने वन भूमि पर 40 लाख से अधिक दावों का तीन-चरणीय सत्यापन किया है। इसके लिए वन भूमि पर रहने वाले प्रत्येक परिवार से 13 विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों की मांग की जाती है। लगभग 18 लाख दावों को स्वीकार करते हुए 72,000 वर्ग कि.मी. वन भूमि पर रहने वाले परिवारों को ‘लैंड टाइटल’ सौंप दिए गए परंतु 10 लाख से अधिक दावे खारिज भी हो गए।

कहा जा रहा है कि स्वतंत्र भारत में आदिवासियों को पहली बार इतने बड़े स्तर पर कानूनी तौर पर बेघर किया जा रहा है परंतु वन्यजीव समूहों ने अदालत में दायर याचिका में कहा है कि भारत के सीमित वनों पर अतिक्रमण हो रहा है और वन्यजीवों को इनसे खतरा है। उनके अनुसार वन भूमि के अलग-अलग हिस्सों पर रहने की इजाजत देना जंगलों के विनाश का कारण बन रहा है। वन कानून में राष्ट्रीय उद्यानों तथा अभयारण्यों में रहने वाले लोगों के पुनर्वास की बात कही गई है परंतु वास्तव में इस दिशा में कुछ भी नहीं हुआ है। दूसरी ओर आदिवासी सहायता समूहों का कहना है कि कानून को लागू करने का तरीका ही दोषपूर्ण रहा है और वर्तमान स्थिति के लिए वे अति उत्साही पर्यावरणविदों तथा वन्यजीव समूहों को दोषी मानते हैं। उनके अनुसार कई आधिकारिक और स्वतंत्र रिपोटर्स ने पुष्टि की है कि बड़ी संख्या में दावों को गलत तरीके से खारिज किया गया है।

बड़े पैमाने पर जंगलों से आदिवासियों के निष्कासन से उनकी अधिक संख्या वाले मध्य प्रदेश, कर्नाटक तथा उड़ीसा जैसे राज्यों में अशांति फैलने की आशंका है जो निराधार भी नहीं है क्योंकि 2002 से 2004 के बीच ऐसी ही कोशिश में जंगलों से 3 लाख वनवासियों को हटाने के प्रयास के दौरान हिंसा फैल गई थी। गांवों में आग लगा दी गई, घरों को ध्वस्त किया गया, फसलों को नुक्सान पहुंचा व पुलिस गोलीबारी में कई लोगों की जान गई थी। समय आ चुका है कि वन संबंधी कानूनों को लागू करने की सही रणनीति बनाई जाए ताकि न तो जंगलों को नुक्सान हो और न ही जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के अधिकारों का हनन हो सके।

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