कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण

punjabkesari.in Sunday, Mar 10, 2019 - 11:52 PM (IST)

‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947’ में प्रावधान था कि अंग्रेज भारतीय रियासतों को स्वतंत्र छोड़ कर जाएंगे। अपेक्षा यही थी कि वे अपना विलय भारत या पाकिस्तान में कर लेंगी। वे अविभाज्य थीं और भारत तथा पाकिस्तान के नेता भी धार्मिक आधार पर किसी रियासत का विभाजन नहीं चाहते थे। अंग्रेजों ने भौगोलिक कारकों को विलय का आधार बनाने के लिए प्रेरित किया था। इतना तो तय था कि विलय का असर रियासत के सभी लोगों पर समान रूप से होगा फिर भी न तो ऐसी कोई कानूनी आवश्यकता थी और न ही किसी तरह की मांग थी कि शासक किसी विशेष कारक का ध्यान रखें। विलय के संबंध में अंतिम फैसला राजा का ही होना था।

ऐसे में जब राजा हरि सिंह ने 26 अक्तूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर का नियंत्रण भारत सरकार को सौंपा तो इसके कानूनी दस्तावेज भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माऊंटबैटन ने स्वीकार किए थे।

2 वर्ष की अल्प अवधि के अलावा, जब भारत कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र ले गया था और पाकिस्तान द्वारा कश्मीर से कबीलायी लड़ाकों तथा अपनी सेना को न हटाने पर संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव खारिज होने के पश्चात भारत ने यही कहा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और इससे जुड़े सभी मुद्दे निजी तथा अंदरूनी मसले हैं। इस बारे में केवल भारत-पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय हल ही तलाश किया जा सकता है। भारत ने बार-बार इस मामले में तीसरे पक्ष की मध्यस्थता अथवा किसी अन्य हल से इंकार किया है।

परंतु लगता है कि पुलवामा घटना ने कश्मीर मसला हल करने के संबंध में विश्व के विचार बदल दिए हैं। हमारे पास इसके 3 स्पष्ट उदाहरण हैं। बालाकोट में भारतीय कार्रवाई पर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने कहा कि वे स्थिति को शांत करने के प्रयास कर रहे हैं। कुछ का यह भी कहना था कि उन्होंने भारतीय पायलट को छोडऩे के लिए पाक पर दबाव भी बनाया था।

न्यूयॉर्क टाइम्स में छपा एक हालिया सम्पादकीय भी इस बात पर जोर देता है कि ‘‘उत्तर कोरिया के पास हथियारों के बढ़ते जखीरे पर ध्यान केन्द्रित करना उतना महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि भारत-पाक में संघर्ष परमाणु युद्ध की वजह बन सकता है।’’ यह बताते हुए कि भारत ने 5 दशकों में पहली बार पाकिस्तान में लड़ाकू विमान भेजे हैं, अखबार ने लिखा है कि ‘अगला मुकाबला शायद इतने शांतमय ढंग से समाप्त नहीं होगा।’

‘भारत में हमला करने वाले आतंकी गुटों पर पाकिस्तान ने कभी गम्भीरता के साथ कार्रवाई नहीं की है। हाल ही में पाक अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने विभिन्न सशस्त्र समूहों के 44 सदस्यों को हिरासत में लिया है, परंतु पाकिस्तान पहले किए ऐसे ही अपने वायदों पर अधिक देर तक टिक नहीं सका है। अंतर्राष्ट्रीय दबाव के अभाव में कोई दीर्घकालीन हल सम्भव नहीं है।’

लेख के अनुसार इस बात के संकेत हैं कि अमेरिका इस मामले में रुचि लेने लगा है, भारत के आतंक विरोधी अभियान को बल देने की बात की है और वह कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन के प्रति भारत के दृष्टिकोण को बदलने को भी प्रोत्साहित कर सकता है।

एक अन्य मंच, जहां कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण हुआ, वह है ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑप्रेशन (ओ.आई.सी.) जहां इसकी स्थापना के 50 वर्षों में पहली बार भारत को निमंत्रित किया गया।

भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा जोरदार ढंग से भारत का पक्ष रखने के बावजूद 57 मुस्लिम देशों के इस संगठन ने अंत में पारित बयान में भारतीय पायलट को रिहा करने के लिए इमरान खान की प्रशंसा की और कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन के लिए भारत की आलोचना करते हुए जांच आयोग बैठाने की भी सिफारिश कर दी।

इस मुद्दे पर चिंता जाहिर करने वाला तीसरा देश था चीन जिसे बुधवार तक मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र की आतंकवादी सूची में शामिल किए जाने और उसके संगठन पर बैन लगाए जाने पर अपना रुख तय करना है।

सी.पी.ई.सी. (चीन-पाक इकॉनोमिक कॉरिडोर) के लिए चीन ने पाकिस्तान में बालाकोट के निकट बड़ी मात्रा में जमीन अधिगृहीत की है और 10 हजार चीनी कर्मचारी बिजली उत्पादन, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी इस आर्थिक गलियारे से जुड़ी विभिन्न परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में यदि चीन अजहर मसूद का विरोध करता है तो पाक अधिकृत कश्मीर में उसे जैश के हमलों का सामना करना पड़ सकता है। पाक-चीन को जोडऩे वाला काराकोरम हाईवे यहीं से गुजरता है।

भारत-पाक में तनाव बढऩे से भी चीन की परियोजनाएं प्रभावित होंगी। चीन के विदेश मंत्री पाकिस्तान के बाद भारत के दौरे पर आने वाले हैं ताकि दोनों देशों के बीच मध्यस्थता कर सकें। जैसे सऊदी अरब के विदेश मंत्री अब्देल अल जुबेर सोमवार को अपनी पाक यात्रा के पश्चात भारत-पाक में तनाव कम करने के लिए आ रहे हैं।

प्रश्न उठता है कि वर्तमान हालात में अमेरिका, चीन या यू.के. की मध्यस्थता के लिए क्या भारत तैयार है? अथवा क्या यह इतना मजबूत है कि अपने दुश्मनों या मित्रों की नीतियों को सहन कर सके क्योंकि कश्मीर के मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण तो हो चुका है।


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