भारत को चाहिए एक मजबूत मध्य-पूर्व नीति

Monday, Feb 12, 2018 - 03:03 AM (IST)

फिलिस्तीन जाने वाले आम पर्यटक अधिकतर मुस्लिम अथवा धर्म परायण ईसाई होते हैं। ईसाई आमतौर पर बैतलहम जाते हैं। वह पवित्र स्थल जहां ईसा मसीह का जन्म हुआ तथा गिरजाघर व उसके आस-पास की सारी जगह की देखभाल मुस्लिम करते हैं। वास्तव में गिरजाघर की चाबियां हर रात ईसाई उन्हें ही सौंपते हैं और सुबह उनसे वापस लेते हैं। 

ऐसे में सवाल है कि अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान को बड़ी संख्या में पसंद करने वाले बॉलीवुड प्रशंसक फिलिस्तीनियों का भारत के साथ और क्या संबंध है। भारत के सहयोग का जिक्र फिलिस्तीनी हमेशा करते हैं क्योंकि उसे मान्यता देने वाले गैर-मुस्लिम राष्ट्रों में भारत ही सबसे पहला था। कभी यासर अराफात इंदिरा गांधी को ‘बहन’ पुकारा करते थे तो आज प्रधानमंत्री मोदी का पूरी गर्मजोशी से राष्ट्रपति अब्बास स्वागत करते हैं। 

गजब की कूटनीति का परिचय देते हुए प्रधानमंत्री मोदी पहले तो एकमात्र उदार मुस्लिम राष्ट्र जोर्डन (वास्तव में यह एकमात्र मुस्लिम राष्ट्र है जहां इसके राजा तथा रानी दोनों के पोट्र्रेट जगह-जगह लगे हुए हैं) पहुंचे। यात्रा के दूसरे चरण में मोदी यू.ए.ई. तथा सऊदी अरब के लीडरों से मिले। परंतु किसी भारतीय प्रधानमंत्री की इस पहली फिलिस्तीन यात्रा से कई संकेत मिल सकते हैं। इसराईल के साथ अच्छे संबंधों के बीच इसराईल-फिलिस्तीन विवाद में दो राष्ट्र सिद्धांत को मान्यता देना जबकि ट्रम्प द्वारा येरुशलम को इसराईल की राजधानी की मान्यता देने से इसका दर्जा एक-राष्ट्र नीति का हो गया था। दोनों पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना परिपक्व विदेश नीति का संकेत है। यदि भारत मध्य-पूर्व की इस समस्या को हल करने में दिलचस्पी लेता है तो यह नीति एक सहायक व सक्रिय भूमिका के रूप में विकसित हो सकती है। 

रामल्ला में एक टैक्नोलॉजी पार्क प्रोजैक्ट निर्माण से लेकर फिलिस्तीनियों को नौकरियां देने जैसे विविध आॢथक पैकेज के अलावा मोदी ने वहां इंफ्रास्ट्रक्चर तथा अस्पताल बनाने का भी भरोसा दिया है। ये सभी कदम फिलिस्तीनियों के लिए महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ दुनिया भर, विशेषकर पाकिस्तान तथा भारत के मुसलमानों के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश भी हैं। अमेरिका, इसराईल तथा फिलिस्तीन के साथ दोस्ताना संबंधों से एक परिपक्व लोकतंत्र के रूप में भारत का दावा पुख्ता होता है। इसके अलावा इस प्रकार बनने वाली धर्मनिरपेक्ष छवि अगले चुनावों में मोदी सरकार के काम भी आ सकती है। अंतर्राष्ट्रीय मंचों तथा संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दा उठा कर भारत को मुस्लिम विरोधी प्रदर्शित करने का पाकिस्तान का खेल भी इससे थम सकता है। 

भारतीय नीति निर्माताओं के साथ शायद यह समस्या नहीं है कि वे सही कदम नहीं उठाते हैं बल्कि असली समस्या है कि उनके प्रयासों में निरंतरता का अभाव है। दक्षिण-पूर्व एशिया को लेकर भारत की ढुलमुल नीति के चलते ही उन देशों के साथ अच्छे संबंधों तथा उन्हें वित्तीय सहायताएं देने के बावजूद भारत वहां अपना प्रभाव स्थापित नहीं कर सका। इसी बात का लाभ उठाते हुए चीन ने इस क्षेत्र में अपना प्रभाव फैला लिया है। मध्य-पूर्व में मुस्लिम देशों के साथ अच्छे संबंधों की बदौलत व्यापार में लाभ के अलावा वह रूसी प्रभाव पर भी अंकुश लगा सकेगा जहां यूरोप की सक्रिय भूमिका के अभाव (ब्रैग्जिट तथा सत्ता परिवर्तनों की व्यस्तता की वजह से) में रूस-तुर्की-चीन की धुरी पैर जमाती जा रही है। 

प्रधानमंत्री मोदी यू.ए.ई. में उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा दुबई के शासक शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मख्तूम, अबू धाबी के क्राऊन प्रिंस शेख मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान से मिले। दुबई के वल्र्ड गवर्नमैंट समिट को भी उन्होंने सम्बोधित किया जहां भारत एक मेहमान राष्ट्र था। इसके बाद मोदी ने आर्थिक तथा व्यापारिक संबंध मजबूत करने के लिए ओमान की यात्रा भी की। तेल की बढ़ती कीमतों के मद्देनजर खाड़ी के देशों से अच्छे संबंध रखना समाधान का एक रास्ता हो सकता है। 90 लाख से अधिक भारतीय खाड़ी देशों में काम करते तथा रहते हैं। इनमें से एक-तिहाई केवल यू.ए.ई. में ही हैं। स्पष्ट है कि भारत के लिए एक मजबूत मध्य-पूर्व नीति वक्त की जरूरत है।

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