सेतुसमुद्रम कैनाल परियोजना का भविष्य

Sunday, Mar 26, 2017 - 10:02 PM (IST)

आस्ट्रेलिया के पर्यटन विभाग के अनुसार 2016 के दौरान विश्व भर से 2.62 मिलियन लोग पर्यटन के मौसम के दौरान ‘ग्रेट बैरियर रीफ’ देखने पहुंचे। यूनैस्को द्वारा वर्ष 2014 में विरासत स्थल के रूप में घोषित 25 मिलियन वर्ष पुरानी ग्रेट बैरियर रीफ को पर्यावरणविदों द्वारा मृत घोषित कर दिया गया था परंतु आस्ट्रेलिया सरकार ने यहां प्रदूषण घटाने के लिए पर्यावरण सुधार लागू करके और समुद्र के पानियों के गर्म होने के कारणों को समाप्त करके इसे ‘सजीव’ कर दिया। 

दूसरी ओर भारत सरकार ने अभी तक विभिन्न संगठनों द्वारा धार्मिक और पर्यावरणीय आधार पर विरोध करने के बावजूद रामसेतु के गिर्द खाड़ी में जहाजरानी मार्ग कायम करने के लिए स्वीकृत बहुकरोड़ी सेतुसमुद्रम कैनाल परियोजना को खारिज नहीं किया है। श्रीलंका के उत्तर-पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीपों से कुछ ही दूर भारत में तमिलनाडु के दक्षिण-पूर्वी तट पर पम्बन द्वीप को रामेश्वर द्वीप भी कहाजाता है लेकिन इसे ‘राम का पुल’ अर्थात ‘रामसेतु’ नाम से अधिक जाना जाता है।

इन समुद्री ढांचों पर काफी समय से विवाद रहा है और सेतुसमुद्रम परियोजना के बाद से खासतौर पर यह विषय विवाद का केंद्र रहा है। सेतुसमुद्रम शिपिंग कैनाल प्रोजैक्ट में इस क्षेत्र को बड़े पोतों के परिवहन योग्य बनाना और साथ ही तटवर्ती इलाकों में मत्स्य और नौवहन बंदरगाह बनाने की योजना है पर इसे लेकर कुछ लोगों ने विवाद खड़ा कर दिया था। इन लोगों का दावा है कि रामसेतु भगवान राम और उनकी वानर सेना द्वारा बनाया गया पुल है और इसे किसी भी कीमत पर तोड़ा नहीं जा सकता। वहीं कुछ लोगों का दावा है कि इसका निर्माण प्राकृतिक रूप से हुआ है। 

भू-गर्भीय साक्ष्यों से पता चलता है कि यह पुल अतीत में भारत और श्रीलंका के बीच पूर्व भू-संपर्क था। यह पुल 50 किलोमीटर लम्बा है और कुछ रेतीले किनारे सूखे हैं और इस क्षेत्र में समुद्र 1 से 10 मीटर तक उथला है। 15वीं शताब्दी में समुद्री तूफानों द्वारा इस मार्ग को गहरा किए जाने तक यह पुल पैदल आने-जाने के योग्य था। इस पुल का सर्वप्रथम उल्लेख ईसा पूर्व 1500 के लगभग रचित भगवान वाल्मीकि की ‘रामायण’ में किया गया था। 

9वीं शताब्दी में अपनी पुस्तक ‘बुक आफ रोड्स एंड किंगडम्स’ में इब्न खोरदाबेच ने ‘सेतबंधई’ या ‘समुद्र का पुल’ का उल्लेख किया था। डच नक्शा नवीस द्वारा 1747 में बनाए गए नक्शे में इस ढांचे का उल्लेख है जोकि अभी भी तंजावुर स्थित ‘सरस्वती महल पुस्तकालय’ में उपलब्ध है। मार्कोपोलो ने भी इस पुल का उल्लेख किया है और वास्तव में ऐसा माना जाता है कि 1480 में एक चक्रवात द्वारा नष्टï कर दिए जाने तक यह समुद्र तल के ऊपर मौजूद था। 

प्रारंभिक इस्लामी स्रोतों में श्रीलंका में एक पर्वत का उल्लेख आदम की चोटी के रूप में किया गया था व जिसके बारे में समझा जाता है कि इसी से नीचे गिर कर आदम ने इसे ‘आदम की चोटी’ नाम देकर भारत का रुख किया था और ब्रिटिश इतिहासकार तथा नक्शानवीस इसे इसी नाम से पुकारते थे, उसी प्रकार अलब्रूनी ने इसे ‘आदम का पुल’(एडम्स ब्रिज) कहा था। 

हालांकि सैटेलाइट के रिमोट सैंसिंग डाटा द्वारा प्रदत्त जानकारी के अनुसार यह ढांचा लगभग 7000 तथा 18000 वर्ष पूर्व के बीच बनाया गया होगा परंतु इस सम्बन्ध में अधिक शोध नहीं किया गया है। यदि कोई अन्य देश होता तो अपनी धार्मिक और ऐतिहासिक महत्ता वाले इस पुल को पर्यटन प्रोत्साहन का बड़ा माध्यम बना सकता था। अपनी प्रकृति तथा भौगोलिक महत्ता के कारण पुरातत्वविद ही नहीं बल्कि इतिहासकार भी इस पर वृहत अनुसंधान करते। 

भारत सरकार तथा विभिन्न सरकारी संगठनों में इस मामले में रुचि की दुखद सीमा तक कमी है। प्रसंगवश ‘इंडियन कौंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च’ (आई.सी.एच.आर.) ने समुद्री पुरातत्व पर 15-30 रिसर्चरों को इस सम्बन्ध में 2 सप्ताह का प्रशिक्षण देने का निर्णय किया है। उनके अनुसार इसमें कोई मंत्रालय संलिप्त नहीं है तथा इस परियोजना का उद्देश्य इस ढांचे को समझना है। शायद पर्यटन विभाग, ए.एस.आई. (भारतीय पुरातत्व विभाग) तथा इतिहासकारों को एक मंच पर आकर न सिर्फ अपने महान ऐतिहासिक स्मारकों को समझने की जरूरत है बल्कि इनके संरक्षण और विश्व को इनकी विशिष्टïता दर्शाने की भी आवश्यकता है।  

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