स्त्री शक्ति की ‘नई ईद’

Friday, Aug 25, 2017 - 11:34 PM (IST)

तीन तलाक की प्रथा का अंत कर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विश्व में भारतीय मुस्लिम महिलाओं की शक्ति को ही रेखांकित नहीं किया, बल्कि करोड़ों भारतीय स्त्रियों को नवीन शक्ति दी। जिन पर सारी जिंदगी ट्विटर, फेसबुक, फोन, पोस्ट कार्ड या ई-मेल पर ‘तलाक-तलाक-तलाक’ के शब्दों की क्रूर तलवार लटकती रहती थी, जिस प्रथा को अधिकांश मुस्लिम देश पहले ही प्रतिबंधित कर चुके हैं, उसे भारत में समाप्त करने में इतना लंबा समय क्यों लगा? 

गंभीर चेहरा बनाए और मजहबी विद्वता की तमाम संजीदगी ओढ़े मौलवियों तथा उनके समर्थकों ने सदियों तक मुस्लिम महिलाओं की भयानक त्रासद जिंदगी पर सन्नाटा ओढ़े रखा। सायरा बानो जैसी लाखों मुस्लिम महिलाएं चुपचाप घुटन भरी जिंदगी जीने पर विवश रहतीं यदि प्रधानमंत्री मोदी ने विश्वास न दिलाया होता कि उन्हें न्याय और समानता मिलेगी। इस पर मुस्लिम उलेमाओं तथा पर्सनल बोर्ड ने खुलकर तलाक समाप्त करने की पहल लेने की बजाय अजीबो-गरीब ढीला रवैया अपनाया। वे चाहते तो मुस्लिम समाज में नए बदलाव का नेतृत्व अपने हाथों में लेकर समाज में नई स्फूॢत भर सकते थे और अपने नेतृत्व को समय-सम्मत, काल-सापेक्ष एवं मनुष्यता के प्रति संवेदनशील सिद्ध कर सकते थे। मुस्लिम नेताओं ने यह सुनहरा मौका खो दिया और भारत का सर्वोच्च न्यायालय इस परिवर्तन का सूत्रधार बना।

यह विडम्बना है कि कुछ तकनीकी नुक्ते ढूंढ कर 2 विद्वान न्यायाधीश इस फैसले के साथ नहीं रहे। उन्हें हर दिन तलाक, हलाला, बहु-विवाह के त्रिकोण में फंसी मुस्लिम महिलाओं का क्रन्दन क्यों नहीं सुनाई दिया? वास्तव में उत्तर प्रदेश चुनावों से पूर्व ही ‘तीन बार तलाक’ के विरुद्ध आवाजें उठनी शुरू हो गई थीं। अनेक प्रसिद्ध महिलाएं खुलकर एवं अपने समाज के कड़े मजहबी शिकंजों को तोड़कर सामने आईं, संगठन बनाए, अपनी आपबीती सुनाई और एक ताजगी भरा जागरण दिखाई देने लगा। उत्तर प्रदेश चुनावों में इन मुस्लिम महिलाओं ने बड़ी संख्या में मोदी के पक्ष में मत दिए। मुस्लिम स्त्रियों की इस एकजुटता ने मुस्लिम पर्सनल बोर्ड को हिला दिया- पहली बार उसने तीन तलाक को अमान्य करने की तरफ हिचकिचाहट के साथ कदम बढ़ाया और कहा कि ऐसा करने वालों का सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए पर इसे लागू कौन करवाएगा? कैसे तय किया जाएगा कि किस पुरुष का तीन बार तलाक कहना अनुचित था और किसका उचित था? 

और फिर उन सैकुलर नेताओं की बात करिए जो हर मौके-बेमौके पर हिन्दुओं को सुधारने के लिए सक्रिय रहते हैं। हिन्दुओं में पशु बलि प्रथा बंद होनी चाहिए, होली पर रंग नहीं खेलना चाहिए, दीवाली पर पटाखे नहीं छोडऩे चाहिएं इत्यादि सब प्रयोगों के लिए हिन्दुओं को ही चुना जाता रहा। पर वे कभी भी मुस्लिम महिलाओं की शोकान्तिका पर नहीं बोलते थे क्योंकि उन्हें डर लगता था कि उनके आवाज उठाने पर मुस्लिम वोटों के ठेकेदार नाराज हो जाएंगे और उनकी सैकुलर रणनीति की नैय्या डगमगा जाएगी। सर्वोच्च न्यायालय के बहुमत से दिए फैसले ने उन सब सैकुलरों का पाखंड बेनकाब कर दिया। तीन बार तलाक कहकर अपनी ब्याहता पत्नी और बच्चों का जीवन नरक बनाने वाली प्रथा का अंत करने के लिए किसी कृत्रिम दलील की जरूरत नहीं। 

अगर पाकिस्तान और अन्य मुस्लिम देशों ने यह प्रथा खत्म न भी की होती, यदि कुरान और हदीस में 1400 साल पहले इसका कहीं उल्लेख होता भी, तो भी समय की मांग और मनुष्यता के सरोकार देखते हुए नई उम्र की नई आवश्यकताओं के अनुसार तीन तलाक प्रथा का अंत किया जाना ही उचित होता। इसके लिए सबसे उपयुक्त एवं सार्थक कहा जाने वाला देश भारत ही हो सकता था। भारत में, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम का स्वरूप शेष विश्व में मिलने वाले इस्लाम से भिन्न है। दरगाहें, वहां चढऩे वाली चादरें, झूले, इलायचीदानों, लाल झंडे, मन्नतें, कव्वालियां, गीत, संगीत.... ये सब कहां और किस देश के इस्लाम में मिलेगा? यह केवल भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश के इस्लामी समाज में मिलता है। 

इस सब सह अस्तित्व और सांझेदारी... जो हिन्दू-मुस्लिम मन तथा हिन्दू परम्पराओं का सम्मान प्रतिनिधित्व करती हैं, को तोडऩे के लिए अरब धन और अरब मन में रचे-बसे लोगों का अभियान ‘वहाबी’ आंदोलन के रूप में चल रहा है। वहाबियत मुसलमानों को अपनी जन्मभूमि, कर्म भूमि, पुरखों की विरासत के काटने का अतिरेकी आंदोलन है जिससे आई.एस.आई.एस. का जन्म हुआ। इन सबके विरुद्ध अगर किसी को आवाज उठानी चाहिए थी तो वे भारतीय मुसलमान ही हो सकते थे। विडम्बना यह है कि अतिरेकी मानस के शिकंजे में ग्रस्त पाकिस्तान के मुसलमान सुधारों की ज्यादा आवाज उठाते दिखते हैं, बनिस्बत भारतीय मुसलमानों के। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाजवादी नेता हामिद दलवाई ने मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई तथा 18 अप्रैल, 1966 को ‘तीन तलाक’ से ग्रस्त 7 मुस्लिम महिलाओं के नेतृत्व में महाराष्ट्र विधानसभा, मंत्रालय के समक्ष प्रदर्शन किया। 

मुस्लिम उलेमा हैरत में पड़ गए लेकिन हिन्दू सैकुलरों ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेक दिए। सवाल यह है कि विद्वान एवं धार्मिक हामिद दलवाई मुसलमानों के नेता के नाते स्वीकार क्यों नहीं हुए और मुस्लिम नेतृत्व जहर उगलने वाले, स्त्रियों का दमन करने वाले लोगों के हाथों में क्यों सिमटा रहा? सर्वोच्च न्यायालय ने इन तमाम सैकुलरों को तमाचा मारा है। अब भी इन सुधारों के खिलाफ आवाजें उठ रही हैं। मुस्लिम नेतृत्व को भय सता रहा है कि अगर वे कालबाह्य एवं समाज के लिए संदर्भहीन होते चले जाएंगे तो उनको पूछेगा कौन? यदि सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले से जड़बद्ध मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियां दूर होने लगीं और परिवर्तन आने लगा तो उनका वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। 

इन सब संदर्भहीन जीवाश्मों की चिंता किए बिना परिवर्तन का कारवां चलते रहना चाहिए। गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन और सामाजिक बुराइयां न हिन्दू होती हैं, न मुसलमान। समाज को आगे बढऩा है तो सामूहिक तौर पर इनके खिलाफ लडऩा ही होगा। हिन्दू समाज की प्रगति का कारण यही है कि उसने नवीन परिवर्तनों को अंगीकार किया। मुस्लिम समाज को तीन तलाक की प्रथा से मुक्ति का फैसला एक नए जागरण पर्व तथा स्त्री शक्ति की नई ‘ईद’ के रूप में मनाना चाहिए।

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