लाला जी के बलिदान दिवस पर अपनी कमजोरी की निर्भीक स्वीकारोक्ति

punjabkesari.in Saturday, Sep 09, 2017 - 12:48 AM (IST)

पूज्य पिता लाला जगत नारायण जी को हमसे बिछुड़े हुए आज 35 वर्ष हो गए हैं। परंतु पंजाब केसरी समूह पर उनका वरद हस्त आज भी बना हुआ है। पूज्य पिता जी ने जहां अपने संपादकीय लेखों में देश की समस्याओं पर निर्भीक एवं सटीक विचार नि:संकोच व्यक्त किए वहीं अपनी विचारधारा से जुड़े मुद्दों पर आजीवन अडिग रहे। लाला जी के जीवन के इसी पहलू को उजागर करता दिनांक 7 नवम्बर, 1973 के अंक में प्रकाशित उनका संपादकीय प्रस्तुत है:

मैं शाकाहारी कैसे बना?
मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो आर्य समाजी था। मेरे पिता जी भी आर्य समाजी थे और माता जी तथा उनका परिवार भी आर्य समाजी था। मेरे पिता जी बेशक आर्य समाजी थे परंतु वह रोजाना दोनों समय मांस का प्रयोग करते थे, मगर मेरी माता जी मांस को हाथ नहीं लगाती थीं। उन्होंने पिता जी के लिए पृथक चूल्हा और बर्तन आदि मांस पकाने के लिए दे रखे थे और पिता जी के मांस खाने पर काफी रोष व्यक्त किया करती थीं। 

मुझे भी पिता जी दोनों समय अपने साथ एक ही थाली में मांस खिलाया करते थे। पिता जी कभी-कभी मदिरापान भी किया करते थे और माता जी हमेशा उनको शराब पीने से मना किया करती थीं और कई बार घर में मदिरापान और मांस खाने पर परस्पर झगड़ा भी हो जाया करता था। जब पिता जी शराब पी कर घर आते थे तो मैं माता जी को बता दिया करता था कि आज पिता जी शराब पी कर आए हैं तो माता जी पिता जी को कहा करती थीं कि आप शराब न पीने का वायदा करके आज फिर क्यों शराब पी कर आए हैं तो पिता जी कहा करते थे कि मैंने शराब नहीं पी। 

इस पर माता जी मुझे कहती थीं कि पिता जी का मुंह सूंघ कर बताओ कि इन्होंने शराब पी हुई है या नहीं। तो मैं मुंह सूंघ कर बता दिया करता था कि आज पिता जी शराब पीकर आए हैं और इस पर काफी झगड़ा हुआ करता था और मुझे भी थप्पड़ रसीद किए जाते थे। यह बात 1905, 06 व 07 की है जब मैं 5-7 वर्ष का बालक था। मैं माता-पिता की इकलौती संतान था। अन्य बहन-भाई नहीं था। माता जी यद्यपि मांस खाने के बहुत विरुद्ध थीं पर मुझे पिता जी के साथ मांस खाने से बहुत कम रोकती थीं क्योंकि वह घर में अधिक क्लेश पैदा करना नहीं चाहती थीं। 

1907 में लायलपुर आर्य समाज मंदिर में एक माता गंगा देवी उपदेशिका के रूप में पधारीं और उन्होंने 3-4 दिन मदिरापान तथा मांसाहार के विरुद्ध बड़े प्रभावशाली व्याख्यान दिए। उस उपदेशिका देवी ने मांसाहारी पुरुषों को संबोधित करते हुए कहा था कि क्या मासूम जानवरों का वध करके और उन्हें खाकर के अपने पेट को कब्रिस्तान बना रहे हो! 

मेरे पिता जी को उसी एक वाक्य ने इतना झ्ंिाझोड़ा कि उन्होंने आर्य समाज के मंच पर यह घोषणा की कि मैं आज से न शराब पिऊंगा और न ही मांस खाऊंगा। श्रीमती गंगा देवी जी ने एक वाक्य यह भी कहा था कि मांस खाने वाले पशु-पक्षियों को जो बच्चे पैदा होते हैं वे पैदा होने के बाद पहले मां का दूध ही पीते हैं। शेरनी का बच्चा भी पैदा होने के बाद पहले मां का दूध ही पीता है और उसे मांस नहीं खिलाया जाता। पिता जी ने उस दिन के पश्चात जब तक वह जीवित रहे न तो मांस खाया और न ही मदिरापान किया। मैं 1915 तक मांसाहारी रहा। एक दिन अचानक पार्टी में सूअर का मांस व अचार दिया गया जिसे खा कर मैं बहुत बीमार हो गया। मुझे उल्टियां आने लगीं व मेरी तबीयत सख्त खराब हो गई। उस समय मेरे पिता जी एवं माता जी ने यह प्रण लिया कि मैं अपनी भावी जिंदगी में मांस नहीं खाऊंगा। 

तब से अब तक मैंने मांस नहीं खाया और न ही चिरंजीव रमेश चंद्र तथा चिरंजीव विजय कुमार और न ही उनके परिवार तथा बच्चे मांस एवं शराब का सेवन करते हैं और न ही कभी हमारे परिवार को मांस खाने की प्रेरणा मिली है व न ही कभी मांस खाने की इच्छा किसी ने व्यक्त की है। जो लोग यह प्रचार करते हैं कि मांसाहारी लोग बड़े योग्य और मजबूत होते हैं उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि हाथी और गैंडा दो ऐसे शक्तिशाली पशु हैं जो शेर के बाद पशुओं में बहुत शक्तिशाली माने जाते हैं परंतु ये दोनों शाकाहारी हैं। आज से सौ वर्ष पहले तक भारत में जितने भी युद्ध हुए उनमें हाथी को एक विशेष स्थान प्राप्त होता था और जिस सेना के पास हाथी नहीं होते थे उसकी पराजय निश्चित समझी जाती थी। 

इसके अतिरिक्त पुरातन समय में सहकारी सेना के भी चार भाग थे-पैदल, घुड़सवार, रथवाहिनी और हाथियों वाले सैनिक। रथों में घोड़े भी जोते जाते थे और बैल भी। इस प्रकार युद्ध में जो पशु काम आते थे वे तीनों ही शक्तिशाली व तीव्रगामी पशु बैल, घोड़ा, हाथी थे जो पूर्ण शाकाहारी हैं। इतना ही नहीं बिजली का वेग बताने के लिए आज भी हार्स पावर अर्थात घोड़े की शक्ति शब्द का प्रयोग किया जाता है। किसी मांसाहारी पशु की शक्ति का शब्द नहीं। बहरहाल मैं अधिक तर्क पेश न करते हुए अपने परिवार तथा स्वयं को सुखी समझता हूं कि हमारा पूर्ण परिवार शाकाहारी है और हमें शाकाहारी होने पर गर्व है और बकौल माता गंगा देवी जी-हम अपने पेट में मासूम पशुओं के कब्रिस्तान नहीं बनने देते। 

शाकाहारी जीवन एक पवित्र जीवन है और धार्मिक जीवन व्यतीत करने के लिए मनुष्य का शाकाहारी होना अत्यंत आवश्यक है। संसार के सभी धर्म मनुष्य को शाकाहारी होने का उपदेश देते हैं इसलिए हमें अपनी धर्मपुस्तकों के अनुसार शाकाहारी बनना अत्यावश्यक है। मेरा सारा जीवन राजनीति में गुजरा है। राजनीतिक व्यक्ति का जीवन बड़ा ही पापपूर्ण होता है। अगर किसी मनुष्य ने अत्यंत धार्मिक जीवन व्यतीत कर अपनी आत्मा को शांति के मार्ग पर चलाने की कोशिश करनी हो तो उसको तब तक मन की शांति प्राप्त नहीं हो सकती जब तक वह मांस, मदिरा और तामसी भोजन का परित्याग नहीं करता। 

अत: यह जरूरी है कि हम मांस, मदिरा व तामसी भोजन का त्याग करें, सादा जीवन बिताएं व संतों, महात्माओं, ऋषियों के मार्ग पर चलने का प्रयत्न करें। इसी में ही मनुष्य मात्र का कल्याण है। -जगत नारायण
पूज्य लाला जी ने जिस निर्भीकता से उक्त बातें कही हैं, उसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए वर्ना आज तो लोग अपनी कमजोरियों को छुपाना और अपनी खूबियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताना ही उचित समझते हैं। पूज्य लाला जी को उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए ‘पंजाब केसरी परिवार’ भी उन्हीं के चरण चिन्हों पर चलने का संकल्प लेता है।—विजय कुमार 


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